संगीत और आध्यात्मिकता का सम्बंध

February 1954

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(राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद)

‘इतिहास से विरासत में आपको भारतीय संगीत जैसी अमूल्य निधि मिली है। अन्य देशों के संगीतों की अपेक्षा इसमें जो विशिष्टता है वह मान्यताओं के कारण है जो संगीत के सम्बंध में हमारे पूर्वजों की थी। भारत में संगीत क्षणिक आमोद-प्रमोद व अतृप्त तृष्णा की वस्तु न होकर समस्त ब्रह्माण्ड अथवा व्यक्त जगत से ऐक्य का आभास है चिरानन्द प्रदान करने वाली आध्यात्मिक साधना है और साँसारिक दुखों से मुक्ति प्रदान करने और ब्रह्म तक मानव को ले जाने वाला मार्ग है। संगीत के इस स्वभाव और ध्येय को हमारे लोगों ने हमारी सभ्यता के प्रभाव से पहचान लिया था और जानबूझ कर संगीत का विकास इन्हीं आदर्शों के अनुकूल किया था। उन्होंने संगीत और जीवन में किसी प्रकार की खाई न खोदी, किसी प्रकार की दीवार न खड़ी की। यह कहना अनुचित न होगा कि उन्होंने संगीत को हमारे जीवन में इस प्रकार बुन दिया कि सहस्र शताब्दियों के पश्चात भी वह उसका अविच्छिन्न अंग बना हुआ है। संसार में सम्भवतः ऐसा अन्य कोई देश नहीं है जहाँ संगीत इतने पुराने युग से जन जीवन में इतना व्याप्त हो जितना कि वह भारत में सहस्रों वर्षों से रहा है। संसार की सब जातियों की अपेक्षा भारतवासियों के कहीं अधिक संगीत प्रेमी होने की बात का जिक्र मैगस्थनीज भी कर गया है। ईसामसीह पूर्व 150 लगभग लिखे गये इण्डिका नामक अपने ग्रंथ में आर्यन ने मैगस्थनीज का यह कथन उद्धृत किया है कि, ‘सब जातियों की अपेक्षा भारतीय लोग संगीत के कहीं अधिक प्रेमी हैं।’ सहस्रों वर्षों से हमारे घरेलू और दुनियावी जीवन में लगभग सभी काम किसी न किसी प्रकार संगीत से आरंभ होते रहे हैं।

‘जन्म से लेकर मृत्यु तक यह संगीत हमारे साथ बना रहता है। जिस दिन बालक संसार में अपनी आँखें खोलता है उस दिन से ही संगीत से भी उसका परिचय हो जाता है। नामकरण, कन्छेद, विवाह आदि में तो संगीत होता ही है। ऐसा कोई तीज त्यौहार नहीं होता, ऐसा कोई पर्व और संस्कार नहीं होता, जिसमें संगीत न हो। घर में ही क्यों? हमारे यहाँ खेत में और चौपाल में, चक्की चलाने और धान कूटने में भी संगीत चलता ही रहता है।’ अतः यह कहना अनुपयुक्त न होगा कि हमारे जन-जीवन के उल्लास को प्रकट करने का तो यह प्रभावी साधन है ही साथ ही उसको गतिमान बनाने का भी अस्त्र है। संगीत उनको रचनात्मक कार्यों में अग्रसर होने की सामूहिक स्फूर्ति और प्रेरणा प्रदान करता है और उनको वह सामूहिक शक्ति देता है जो उन्हें उन कामों के करने के योग्य बना देती है जो वे अकेले या समूह में संगीत की प्रेरणा के बिना न कर पाते।

‘इतना ही क्यों? भारत में संगीत ने आध्यात्मिक और साँस्कृतिक क्षेत्र में वह काम किया है जो संभवतः और कोई शक्ति शताब्दियों के परिश्रम के पश्चात भी न कर पाती। यद्यपि भारत का साधारण जन वर्णमाला से सर्वथा अपरिचित ही है, किन्तु फिर भी वह आध्यात्मिक ज्ञान से शून्य नहीं है। देश के किसी भी दूर से दूर के ग्राम में आप चले जाइए आपको वहाँ का साधारण कृषक भी अनेक आध्यात्मिक तथ्यों से पूर्णतया परिचित मिलेगा। श्री कजिन्स ने अपने ऐसे ही एक अनुभव का जिक्र कुछ दिन पूर्व परिजन पत्रिका में किया था। उन्होंने लिखा था कि एक ग्राम में वह एक सज्जन से कई घण्टे गूढ़ दार्शनिक तत्वों की बातचीत करते रहे। उस सज्जन के ज्ञान से अत्यन्त प्रभावित होकर चलते समय उन्होंने उक्त सज्जन से कहा कि वह अपना पता लिख कर उनको दे दें। किन्तु उनके आश्चर्य की उस समय कोई सीमा नहीं रही जब उक्त सज्जन ने ऐसा करने में इस कारण अपनी असमर्थता प्रकट की क्योंकि वह वर्णमाला से सर्वथा अपरिचित था। मेरे विचार से कि वर्णमाला से अपरिचित होने पर यदि हमारा साधारण जन इस प्रकार का ज्ञान रखता है तो उसका एक प्रमुख कारण यही है कि संगीतमय गाथाओं और कथाओं ने उसके हृदय में उस ज्ञान को बैठा दिया है। मैं कभी-कभी सोचा करता हूँ कि क्या कारण है कि भारत ही एक ऐसा देश है जिसमें तुलसी या कबीर जैसे कवियों की कृतियों से अनपढ़ लोग भी करोड़ों की संख्या में परिचित हैं। पर मैं समझता हूँ कि इस रहस्य का हल यही है कि हमारे जीवन में इतना बुरा हुआ है कि सहज में ही इन कवियों के मधुर पद घर-घर और ग्राम-ग्राम की सम्पत्ति बन गये। आज भी ऐसे अनेक लोग मिल जायेंगे जो सर्वथा अनपढ़ होते हुए भी तुलसी के रामचरितमानस के अनेक पद सादर सुना सकते हैं, और कबीर के पदों का तो कहना ही क्या है? अतः भारत के साँस्कृतिक आध्यात्मिक विकास में संगीत का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रहा है। हमारे देश के प्राचीन युग में संगीत शास्त्रियों और संगीतज्ञों का भी बड़ा ऊंचा दर्जा होता था जैसा कि संगीत शास्त्रियों की मुनि और ऋषि की उपाधियों से पूर्णतया स्पष्ट है। इन संगीत शास्त्रियों का देश के मानसिक निर्माण में इसलिए भी पर्याप्त भाग होता था क्योंकि प्राचीन युग में संगीत शास्त्र का अध्ययन शब्दशास्त्र के अध्ययन के साथ ही वैदिक शिक्षा व्यवस्था का अनिवार्य अंग था।

भारतीय संगीत कल्याण साधना का एक मार्ग है और सामूहिक शिक्षा का एक ढंग है। अतः यह आवश्यक है कि अपने संगीत को पुनः अनुप्रमाणित करने के लिए हम इन दोनों पक्षों से इसका संबंध फिर जोड़ दें। मुझे शंका है कि इस बारे में उतना विचार नहीं किया गया है जितना कि होना चाहिए।

‘माह का भारतीय संगीत जन जीवन की गंगा से कुछ दूर ही है। वह तो कुछ नगरों की सम्पत्ति बन गया है। मैं यह मानने के लिए प्रस्तुत नहीं हूँ कि उस संगीत की अच्छाई-बुराई को सागर ही परख सकते हैं। हमारे यहाँ तो संगीत की कसौटी यही है जड़ दीप उससे जल उठे। तब फिर भला यह कैसे कहा जा सकता है कि ग्रामवासी का हृदय उससे प्रफुल्लित न हो जायेगा? यदि तुलसी और कबीर ने अपने संगीत से उत्तर भारत के ग्राम्य जीवन को आध्यात्मिकता से प्लावित कर दिया और अनपढ़ों को पण्डित बना दिया तो कोई कारण नहीं है कि आज का संगीतज्ञ वैसा क्यों नहीं कर सकता है इस लोक तंत्र के युग में यह आवश्यक है कि हमारे संगीतज्ञ हमारी जनता से अपना संबंध पुनः वैसा ही स्थापित करें जैसा पहले युग में था और जो अंग्रेजी युग की नगर प्रधान प्रवृत्तियों के कारण टूट गया था। वह इसलिए आवश्यक है कि आज हमारे संगीतज्ञों को वैसा अवकाश-पूर्ण जीवन व्यतीत करने की सुविधा और आर्थिक साधन नहीं है जो इन्हें सामन्तों और राजाओं के युग में प्राप्त थी।

हमारे संगीतज्ञ मीरा और तुलसी की परम्परा को पुनर्जीवित करें। आज भी मीरा और तुलसी के पदों के लिये जनता के हृदय में आदर है, श्रद्धा है और उनके लिए गरीब अमीर सभी खर्चा करने को भी तैयार होते हैं। अतः मुझे पूर्ण विश्वास है कि यदि हमारे संगीत का जनजीवन की गंगा से सम्बंध हो गया तो वह नवजीवन प्राप्त कर लेगा और अपने के सार्थक और सफल बना लेगा।

‘किन्तु जनजीवन के संपर्क का यह अर्थ कदापि नहीं है कि संगीत के स्वरूप को विकृत कर दिया जाए। यदि ऐसा हुआ तो वह अपना मिशन कदापि पूरा नहीं कर सकेगा। हमारे संगीत के स्वरूप अपने स्वभावगत उद्देश्य के अनुकूल ही बने हैं। उदाहरणार्थ हमारे संगीत में रागों का स्थान प्रधान है। यदि राग नहीं तो हमारा संगीत भी नहीं। किन्तु रागों का यह महत्व अन्य बातों के अतिरिक्त इसलिये भी तो है कि हमारे संगीत का ध्येय मन में एक और केवल एक रस का उद्रेक करना है। मानसिक शिक्षा और समय का यह बड़ा प्रभावी तरीका है। अतः स्पष्ट है कि हमारे संगीत का जो ऐतिहासिक स्वरूप है उसको विकृत करके हम उसे जीवन के लिए वैसा कल्याणकर नहीं रख सकते जैसा कि वह है और होना चाहिये। मुझे इस बात का दुख और खेद है कि हमारे देश की प्रचलित परिपाटियाँ संगीत की परम्परा को विकृत कर रही हैं और इस प्रकार हमारी भारी हानि कर रही है। मैं तो यही आशा करता हूँ कि इस प्रश्न पर संजीदगी से विचार किया जायेगा और देश और जाति के लिए संगीत को मानसिक और चारित्रिक उन्नति का एक साधन और जबरदस्त साधन बनाने का प्रयत्न किया जायेगा न कि केवल मन बहलाव और विलास का एक जरिया।

‘अब समय आ गया है कि संगीत का हमारी शिक्षा व्यवस्था से घनिष्ठ सम्बंध काय किया जाए। उसका यह अर्थ नहीं कि यह विश्व विद्यालयों को परीक्षाओं के लिए एक विषय मात्र हो जाए। इसका अर्थ यह है कि हमारे विद्यार्थियों की सामाजिक या सामूहिक चेतना के निर्माण में संगीत का भी अंश हो। हमारे यहाँ तो भगवान भी बिना मुरली या डमरू के पूरे नहीं समझे गए हैं। मानव का तो प्रश्न ही क्या है? यह अकारण ही नहीं है कि विद्या की आधिदेवी सरस्वती के हाथ में पुस्तक के साथ-साथ वीणा भी बताई जाती है। उसका यही अर्थ है कि किसी भी व्यक्ति की शिक्षा केवल पुस्तकीय ज्ञान से ही नहीं पूरी होती वरन् उसके लिए यह भी आवश्यक है कि उसकी मानसिक वृत्तियाँ का भी ऐसा परिमार्जन हो गया हो कि उसे वैराग की कोई भी बात अच्छी न लगे और उसके हृदयतंत्री के तार सर्वदा वही मधुर राग से गूँजते रहें। आज हमारी शिक्षा ऐसी नहीं है और इसीलिए आज हमारे यहाँ मस्तिष्क और हृदय का तालमेल ठीक नहीं दिखाई देता। प्लैटो ने भी इस बात पर जोर दिया था कि संगीत के बिना मानव की शिक्षा पूरी नहीं मानी जा सकती। अतः हमारे संगीत शास्त्रियों और शिक्षा शास्त्रियों दोनों को ही यह विचार करना है कि यह सम्बंध कैसा हो और किस प्रकार कायम किया जाए। अनेक युग बीते तब भारतीय संगीत का उद्भव भगवान शिव से हुआ था। तब से समय के प्राँगण में अनेक राजा महाराजा, सेनानी और विजेता आए और विलुप्त हो गए, अनेक साम्राज्य बने और बिगड़े अनेक दुर्दिन आये और दुःख के पहाड़ टूटे किन्तु भारत बना रहा और भारतीय संगीत बना रहा। इस मृत्युशील संसार में हमारे इतने दीर्घ जीवन का यही रहस्य है कि हमने आध्यात्मिकता का दामन नहीं छोड़ा है। ऐसी आध्यात्मिकता का जो दार्शनिक की शुष्कता से कहीं दूर भगवान की गीता में है और भक्तों के गान में हैं। मुझे विश्वास है कि भगवान शिव का यह वरदान, यह भारतीय संगीत, हमारे जातीय जीवन को सर्वदा गंगा-मृत के समान अमर बनाने वाला बना रहेगा।


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