उत्थान एवं पतन का गतिचक्र

February 1954

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(श्री रामचरण महेन्द्र एम. ए.)

संसार की जातियों, राष्ट्रों के उत्थान पतन, व्यक्तियों कुटुम्बों, बड़े-बड़े परिवारों की उन्नति एवं अवनति का एक क्रम है, एक चक्र है। यदि हम ऐतिहासिक दृष्टिकोण से व्यक्तियों परिवारों, जातियों, राष्ट्रों के उत्थान एवं पतन का निरीक्षण करें, तो हमें प्रतीत होता है कि-

प्रत्येक राष्ट्र, परिवार तथा व्यक्ति के उत्थान का कारण उसमें रहने वाले व्यक्तियों के गुण हैं। प्रायः प्रत्येक समुन्नत राष्ट्र या परिवार में एक ऐसा अद्भुत परिश्रमी या प्रतिभाशाली व्यक्ति होता है, जिसके परिश्रम त्याग, बलिदान, सतत उद्योग एवं अथक परिणाम के फलस्वरूप वह राष्ट्र या परिवार समुन्नत होता है, उसका क्रमिक विश्वास होना प्रारंभ होता है और उसी के जीवन में वह उन्नति के शिखर पर पहुँच जाता है।

जब तक परिश्रम, प्रतिभा एवं सतत उद्योग की यह आधार शिला दृढ़ता से जारी रहती है, वह व्यक्ति जीवित रहता है, तब तक वह परिवार या राष्ट्र पुष्पित फलित और समृद्धिशील रहता है।

इस परिवार या राष्ट्र की नवीन परिवर्तित सुखद परिस्थितियों में पल कर नई पीढ़ी राष्ट्र के नए नागरिक परिवार के पुत्र, पुत्री, बन्धु बाँधव इत्यादि अपनी शक्तियों को उस अनुपात में नहीं विकसित कर पाते, जितना प्रारंभिक युगान्तरकारी प्रतिभावान व्यक्ति ने की थी। उनकी शक्तियाँ क्रमशः क्षीण होनी प्रारंभ होती हैं। वे परिश्रम या जागरुकता का महत्व नहीं समझते। वे विलासप्रियता में निमग्न होकर अर्जित धन सम्पत्ति, प्रतिष्ठा, संचित, साख का अनुचित लाभ उठाने का प्रयत्न करते हैं।

नई अविकसित पीढ़ी के युवक-युवतियों पर भी जब तक बुजुर्ग या आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न महापुरुष की छाया रहती है, परिवार या राष्ट्र ज्यों का त्यों रहते हैं। इसके नहीं होने पर न उसका आगे उत्थान चलता है, न पतन होता है।

महापुरुष या प्रतिभावान व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात उसकी संतान या राष्ट्र पिता के देहावसान के बाद उस देश के नागरिक परस्पर लड़ते-झगड़ते हैं, शक्ति या धन के लिए युद्ध तक होते हैं, भाई-भाई लड़ते हैं, और धीरे कुटुम्ब का पतन प्रारंभ होता है। अविकसित अपरिपक्व व्यक्ति की संतानें प्रायः अर्जित धन, गौरव, प्रतिष्ठा या साख के महत्व को नहीं समझती, धीरे-धीरे अगली पीढ़ियों में समृद्धि का चक्र नीचे आना प्रारंभ होता है। जैसे-जैसे संतान या नागरिकों की शिक्षा, अध्यवसाय, परिश्रम की कमी होती है जैसे-जैसे पतन का चक्र नीचे की ओर आता-जाता है।

अन्त में एक ऐसी स्थिति आती है, जब परिवार या राष्ट्र के नागरिक साधारण स्तर पर आ जाते हैं। उनमें कोई विशेषता, प्रतिभा, जागरुकता या परिश्रमशीलता शेष नहीं रह जाती। वे अन्य लोगों की तरह मामूली से बनकर अन्य लोगों में मिल जाते हैं पतन का चक्र अपनी निम्नतम स्थिति में आ जाता है।

बहुत दिनों तक यह प्रसिद्ध कुटुम्ब विस्मृत सा रहता है। लोग उसे भूल जाते हैं किन्तु फिर एक असाधारण शक्तियों वाले बच्चे का जन्म होता है। वह अपने परिवार की अवस्था, प्रतिष्ठा, आत्म गौरव का अध्ययन करता है। उसके गुण ऊंचा उठने के लिए उत्प्रेरित करते हैं। चक्र की प्रगति इस बच्चे के साथ पुनः उन्नति की ओर चलती है। वह अपना वातावरण स्वयं निर्मित करता है। शक्तियों के विकास, दूसरों का अनुभव, अपना उद्योग, परिश्रम की दैवी सम्पदाएं साथ लेकर पुनः उत्थान और समृद्धि के चक्र को ऊपर उठाता है। फिर वह राष्ट्र, परिवार या देश सम्मुख होना प्रारंभ होता है। इसी उत्थान-पतन के क्रम को देखकर इतिहासकारों ने कहा है ‘इतिहास निरन्तर अपनी पुनरावृत्ति किया करता है।’

विलास प्रियता, आराम से रहना, गंभीरता से जनरुचि, संसार की प्रगति अपनी सामर्थ्य या शक्ति का वृत्ति अनुमान न रहना, पतन का कारण बनती है। परिश्रम, संयम, उद्योग, मितव्ययिता, जागरुकता से नियति तक ऊंचा उठता है। जागृति एक प्राकृतिक घटना है। राष्ट्रों या परिवार की बीमारी और नींद मनुष्यों की कई-कई पीढ़ियाँ तक रहती है।

खल्डिया, इजिप्ट, रोम इत्यादि पुराने राष्ट्रों के नागरिकों के आचरण भ्रष्ट होते ही इनका अधः पतन होना प्रारंभ हो गया। किलोपेट्रा जैसी परम वैभव सम्पन्न इजिप्ट की महारानी ने कितने पाखण्ड चलाये, अन्त में क्या दुष्परिणाम हुए, यह इतिहास हमें स्पष्ट बताता है। ग्रीक राष्ट्रों में स्त्रियों का प्राधान्य बढ़ते ही वहाँ के नागरिक विलासी बन गये और राष्ट्र को रोमन लोगों ने जीत लिया। शक्ति, संयम, सदाचार के बल पर रोम प्रसिद्ध रहा किन्तु आचरण में शैथिल्य आते ही रोम का पतन आरंभ हुआ।

भारत के इतिहास को लीजिए। नए वंशों की नींव डालने वाले व्यक्ति जैसे कनिष्क, हर्ष, अशोक, चन्द्रगुप्त मौर्य, शिवाजी, शेरशाह, बाबर इत्यादि शासक अद्भुत शक्तियों, परिश्रम एवं उद्योग के भरे हुए प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। इन्हीं के साम्राज्य का पतन दुर्बल शासकों का विलासी कमजोर, आरामतलबी के कारण हुआ। नींव डालने वाला शासक प्रतिभा सम्पन्न, उद्योगी और परिश्रमी तथा नींव उखाड़ कर पतन करने वाले व्यक्ति दुर्गुणों से युक्त, असंयमी, डरपोक निकम्मे होते आये हैं।

प्रकृति का कुछ ऐसा विधान है कि बड़े व्यक्तियों के पुत्र-पुत्री उस कोटि के प्रतिभावान, संयमी परिश्रमी, दूरदर्शी नहीं होते, जितने उनके पिता थे। उन्हें समृद्धि का जो वातावरण प्राप्त होता है, उनमें उनकी गुप्त शक्तियों का विकास रुक जाता है। चूँकि बच्चों में पूर्व संचित समृद्धि, प्रतिष्ठा या धन सम्पत्ति को संभालने की शक्ति नहीं होती, इसलिए धीरे-धीरे वह स्वयं हीनता की ओर जाते हैं। उच्च शक्तियों के साथ साँसारिक समृद्धि, प्रतिष्ठा, धन इत्यादि का अन्योन्याश्रित वृत्ति संबंध है।

व्यक्तियों एवं परिवारों के उत्थान पतन में निरन्तर नियति चक्र चल रहा है। बड़े परिवारों के व्यक्ति अपने बच्चों की शिक्षा, परिश्रमशीलता, जागरुकता, संयम के प्रति ध्यान नहीं देते। फलतः इनके बच्चे साधारण अपरिपक्व असंयमी रह जाते हैं और उनकी पीढ़ियों की संचित सम्पत्ति धीरे-धीरे विनष्ट हो जाती है। कभी-कभी देखा जाता है कि कुछ व्यक्ति और परिवार यकायक सट्टे बेईमानी, काले बाजार या चालबाजियों के बल पर समुन्नत नजर आने लगते हैं, किन्तु कलई खुलते ही उतनी तेजी से उनका पतन भी देखा जाता है।

बड़े खानदान के लड़का-लड़की रुपये का मूल्य नहीं समझते, वे उस अनुपात में परिश्रम नहीं कर पाते, जिस अनुपात में उनके पूर्व पुरुषों ने किया था। धीरे-धीरे उनके हाथ में आकर व्यापार शिथिल होते हैं। मूल धन भी खाया पकाया जाता है। खर्चे वैसे के वैसे ही बने रहते हैं। व्यापार नष्ट होता है और फिर वे परिवार उसी स्थिति में आ जाते हैं, जहाँ से उनका उत्थान होना प्रारंभ हुआ था। इस नियति क्रम से युद्ध करने के लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक शासक नवीन शासकों को गुणी परिश्रमी एवं प्रतिभाशाली बनाकर उनके हाथ में बागडोर सौंपे।

पिता-पुत्र को गरीबी का महत्व समझाये। रुपये की शक्तियाँ, सदुपयोग, परिश्रम शीलता और संयम, इत्यादि सिखाये। कंधे मजबूत होने पर ही सब धन, यश, प्रतिष्ठा जायदाद सौंपने में स्थाई ख्याति प्रतिष्ठा स्थिर हो सकती है। उत्थान एवं पतन के चक्र को चलाने में प्रकृति बड़ी निर्दयी है, यह स्मरण रखिए।


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