आत्म-चिन्तन की आवश्यकता

February 1954

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(श्री सन्तराम बी.ए.)

सदा कार्य व्यस्त रहना, ताँगे घोड़े की तरह सदा काम में जुते रहना, शरीर और मन को सदा दौड़ाते रहना शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक होता है। इस पर भी हममें से अधिकतर मनुष्य अपने अवकाश के समय का उपयोग केवल दो ही रीतियों से करने का विचार कर सकते हैं या तो हम केवल काम करते हैं या केवल खेल में ही समय बिता देते हैं। इसमें से बहुत कम लोग यह विचार करते हैं कि दैनन्दिन जीवन में आने वाले विरामों का एक दूसरा बहुमूल्य उपयोग भी है और वह है- आत्मचिन्तन।

यदि हम किसी मनुष्य को अपने चौबारे में या सोने के कमरे में या कुटिया में चुपचाप बैठा देखे- जो न पढ़ रहा है, न लिख रहा है, न काम कर रहा है और न खेल रहा है- केवल बैठा है, ऊपर से देखने पर कुछ भी नहीं कर रहा है, तो हममें से अधिकतर क्या समझेंगे? हमारी पहली धारणा यह होगी कि वह किसी की प्रतीक्षा कर रहा है। संभवतः हमें थोड़ा खेद भी होगा कि बेचारा उदास बैठा है। हमारे मन में कभी यह बात न आयेगी कि यद्यपि ऊपर से ऐसा दीखता है कि वह कुछ नहीं कर रहा है पर वस्तुतः वह कोई ऐसा काम कर रहा है जो महत्वपूर्ण और आनन्द दायक दोनों है- उसने अपने मन को इधर-उधर भटकने से रोक कर वर्तमान परिस्थितियों से पूरी तरह अलग होकर चिन्तन में अपने पंख खुले छोड़ दिये हैं।

चिन्तन से नवशक्ति एवं विश्राम मिलता है, आने वाली आवश्यकताओं के लिए शक्ति रक्षित होती है, और जीवन को संतुलित और लचीला बनाये रखने में सहायता मिलती है। इसके द्वारा हम बहुधा अपने अच्छे बुरे कर्मों पर पुनर्विचार कर सकते हैं। इस क्रिया से आन्तरिक विकास में बड़ी सहायता मिलती है।

इसके लिए किसी विशेष या निश्चित प्रणाली की आवश्यकता नहीं। इसमें मन को केवल स्वतंत्र करके शाँति के साथ उद्देश्यों और वर्तमान के कथित ‘क्रियात्मक’ पदार्थों के परे भटकने देने की बात है। चिन्तन में केवल अपने विचारों को जान बूझकर आदेश करना पड़ता है कि वे छुट्टी पर हैं दैनन्दिन जीवन की वास्तविकताओं को छोड़ दें और इस प्रकार इच्छापूर्वक मन की वह अवस्था उत्पन्न कर दें जिसमें मनुष्य कोई मधुर संगीत सुनकर या सूर्यास्त का दृश्य देखकर, या उक्त पर्वत मालाओं पर आश्चर्य से दृष्टिपात करके पहुँच जाता है। यह मन का वह भाव है जिसमें आश्चर्य है पर प्रत्याशा के बिना, ध्यान है पर किसी चेष्टा या अभिसंधि के बिना।

आत्म-चिन्तन के लिए किसी भौतिक सहायता की आवश्यकता नहीं। केवल बैठने के लिए कोई अच्छा सुखद स्थान होना चाहिए। इसके लिये परिस्थितियों का भी कोई महत्व नहीं क्योंकि एक बार स्वभाव बन जाने पर फिर मनुष्य को परिस्थितियों का भाव नहीं रह जाता। वह चाहे जहाँ भी बैठकर चिन्तन कर सकता है हाँ शाँत और सुन्दर परिस्थितियों से सहायता अवश्य मिलती है और कभी-कभी उनके प्रभाव से ही मन चिन्तन अवस्था में चला जाता है।

महान मनोविज्ञानी, विलियम जेम्ज अपने दर्शन शास्त्र के विद्यार्थियों को पुनः पुनः उपासना गृह में जाने की सिफारिश किया करता था। उसने बताया था कि किसी ऐसे शान्त में जाने का अभ्यास जहाँ चिन्ताशील विचार की सूचना प्राप्त होती हो मनुष्य का अपना दृष्टिकोण ठीक रखने में सहायता देती है। वह कहा करता था कि किसी सत्संग में जाने का अनुभव वैसा ही है। मानो कोई मनुष्य भीड़ में पड़ गया है, धक्कों से उसके पाँव-उखड़ गये हैं, तब वह निकटवर्ती द्वार की पैड़ी पर चढ़ जाता है और वहाँ से लोगों के सिर के ऊपर दृष्टि दौड़ाता है, और देखता है कि सामूहिक रूप से भीड़ क्या कर रही है, तब वह ऊंची पैड़ी पर से स्तर कर फिर उसी ठेल पेल में घुस जाता है और धक्का मारकर ठीक दिशा में चलने का यत्न करता है। चिन्तन के सम्बंध में भी वह इसी उपमा का प्रयोग कर सकता था। आत्म चिन्तन से हम क्षुद्र विचारों से ऊपर उठ जाते हैं, और पहचान सकते हैं कि कौन बात महत्वपूर्ण है और कौन महत्वहीन। इससे अनुभव का आध्यात्मिक भाव स्पष्ट हो जाता है।

चिन्तन की क्रिया आरंभ करने के लिए केवल इतनी ही बात की आवश्यकता है कि मन को ठीक मार्ग पर धकेल दिया जाय। यह प्रारंभिक निर्देशक मन को सार्वभौमिक और व्यक्तित्व शून्य की दिशा में ऊपर की ओर बाहर की ओर ले जाने वाला हो, न कि विशेष आत्म-केन्द्रस्थ की दिशा में नीचे की या भीतर की ओर।

क्रियात्मक योजनाओं से थका हुआ और विशेष प्रकार के विचारों से ऊबा हुआ मन इन सब संकीर्ण विचारों को आश्चर्यजनक आसानी के साथ छोड़ देता है। चिन्तन का अभ्यास करते समय पहले थोड़ी-थोड़ी देर के लिए सुन्दरता का स्वरूप, सत्य का अर्थ साहस का भाव, मानव जाति का अदृष्ट, अमरता का गुण प्रभृति किसी सामान्य और अमूर्त विचार पर मन को एकाग्र करना चाहिए। अथवा कोई अनुप्रमाणित करने वाला आप्त वचन लेकर उसे या उससे निकलने वाले विचार को मन में स्थित कीजिए। संभव है कि इससे आपको उसका कोई नवीन अर्थ सूझ जाय, क्योंकि कहा जाता है कि प्रत्येक महाषाक्य के सात का सत्तर अर्थ होते हैं। एक बार विचारधारा को रास्ता दिखा देने के बाद, प्रवाह के साथ-साथ चलिए और जहाँ यह ले जाय वहीं को जाने दीजिए। दर्शक मात्र बन जाइये।

दुख के समय में जब चिन्ता सताने या किसी दूसरे मनोविकार के वशीभूत हो जाने पर शाँति पाने का इससे बढ़कर और कोई साधन नहीं। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि के प्रबल आक्रमण से मनुष्य की बुद्धि ठिकाने नहीं रहती। उस समय आत्म-चिन्तन से बड़ी सहायता मिलती है। बच्चा, बूढ़ा, स्त्री, पुरुष जो भी चाहे अपने अवकाश के समय को बड़ी सरलता से चिन्तन में लगा सकता है। बुद्धिपूर्वक सोच समझकर जीवन बिताने के लिए चिन्तन का महत्व है।


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