विवेक वचनावली (Kavita)

February 1954

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कहत सकल घट राम मय, तौ खोजत केहि काज। तुलसी कहँ यह कुमति सुनि, उर आवत अति लाज॥

अलख कहहिं देखन चहहिं, सो कस कहिय प्रवीन। ब्रह्म स्फटिक मनि सम लसै, घट-घट माँझ सुजान।

निकट आय बरतै जो रंग, सो रंग लगै दिखान॥

कोटि घटन में विदित ज्यों, रवि प्रतिबिम्ब दिखाइ। घट घट में त्यों ही छिप्यो, स्वयं प्रकाशी आइ॥

यों सब जीवन को लखौ, ब्रह्म सनातन आदि। ज्यों माटी के घटन की, माटी ही बुनियादी॥

पंचन पंच मिलाइ कै, जीव ब्रह्म में लीन। जीवन मुक्त कहा वही, रस-निधि वह परवीन॥

अलख सबैई लखत वह, लख्यौ न काहू जाय। दृग तारिन को तिल यथा, देखौ नहीं दिखाय॥

हिन्दू में क्या और है? मुसलमान में और? साहिब सबका एक है, व्यापि रहासब ठौर॥

अलख ज्ञान इन दृगन सों, विदित न देखौ जाइ। प्रेम काँति वाकी प्रकट, सबही ठौर दिखाइ॥

सब घट मेरा साइयाँ, सूनी सेज न कोई। भाग्य उन्हीं के हे सखी, जिहि घट परगट होइ॥

कस्तूरी तन में बसै, मृग ढूँढे बन महिं। ऐसे घट घट राम हैं दुनिया देखे नाहिं॥

घट बढ़ कहीं न जानिय, ब्रह्म रहा भरपूर। जिन जाना तिन निकट है, दूर कहै ते दूर।

बहुत दिवस भटकत रह्या, मन में विषै विराम। ढूँढत ढूँढत जग फिरा, तृण के औटै राम॥

ज्यों नैनन में पूतली, त्यों खालिक घट माहिं। मूरख लोग न जानहीं, बाहर ढूंढ़न जाहिं॥

आप मिटाये हरि मिलैं, हरि मैटें सब जाय। अकथ कहानी प्रेम की, कहूँ न कोई पतिआव॥

पढ़-पढ़ के ज्ञानी भये, मिटयौ नहीं तन ताप। राम नाम तोता रटै, कटै न बन्धन पाप॥

गंगा यमुना सरस्वती, सात सिन्धु भरिपूरि। तुलसी चातक के मते, बिना स्वाति सब धूरि॥

कबीर माला ना जपों, जिह्वा कहों न राम। सुमिरन मेरा हरि करें, मैं पावों विश्राम॥

जदपि रहौ है भावतौ, सकल जगत भरपूर। बलि जैये वा ठौर की, जहं ह्वै करै जहूर॥


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