शक्तियों का दुरुपयोग मत कीजिए।

February 1954

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(मोहनलाल वर्मा, बी. ए. एल. एल. बी.)

सौंदर्य, शक्ति, यौवन और धन संसार की चार दिव्य विभूतियाँ हैं। ईश्वर ने इन शक्तियों की सृष्टि इस मन्तव्य से की है कि इनकी सहायता एवं विवेकशील प्रयोग के द्वारा मानव धीरे-धीरे उत्थान एवं समृद्धि के शिखर पर पहुँच जाय। वास्तव में इन दैवी विभूतियों के सदुपयोग द्वारा मनुष्य शारीरिक, बौद्धिक एवं मानसिक शक्तियों का चरम विकास कर सकता है। मानव व्यक्तित्व के विकास में वे पृथक-पृथक अपना महत्व रखती हैं।

भगवान के गुण स्वरूप की कल्पना में हम सौंदर्य शक्ति एवं चिर यौवन को महत्ता प्रदान करते हैं। हमारी कल्पना में परमेश्वर सौंदर्य के पुँज हैं, शक्ति के अगाध सागर हैं, चिर युवा हैं, अक्षय हैं। लक्ष्मी उनकी चेरी है। ये ही गुण मानव जगत में हमारी सर्वतोमुखी उन्नति में सहायक हैं। जिन-जिन महापुरुषों को इन शक्ति केन्द्रों का ज्ञान हुआ और जैसे-जैसे उन्होंने इनका विवेकपूर्ण उपयोग किया, वैसे-वैसे उनकी उन्नति होती गई। किन्तु जहाँ इनका दुरुपयोग हुआ, वहीं पतन प्रारंभ हुआ। वह पतन भी इतना भयंकर हुआ कि अंतिम सीमा तक पहुँच गया और उनका सर्वनाश इतना पूरा हुआ कि बचाव संभव न हो सका।

इतिहास इस चिर सत्य का साक्षी है कि सौंदर्य का दुरुपयोग मानव के रक्तपात, युद्ध, लूटपाट और संघर्षों का एक कारण बना है। सुन्दर स्त्रियों को प्राप्त करने के हेतु विश्व के इतिहास में युद्धों के उदाहरणों की कमी नहीं है। सुन्दरी सीता रामायण के युद्ध एवं द्रौपदी महाभारत के युद्धों का कारण बनी! ट्राम का युद्ध एक सुन्दरी के कारण वर्षों चलता रहा। आज के युग में भी सुन्दरी माया उत्पातों का एक कारण मानी गई है। समाज में सौंदर्य के गलत दृष्टिकोण को लेकर आये दिन अनेक प्रकार के झगड़े चला करते हैं।

आज के व्यक्तियों की सौंदर्य भावना केवल ऊपरी चमक-दमक तक ही सीमित रहती है। वे शारीरिक आकर्षण मात्र को ही सौंदर्य का मापदण्ड मानकर उत्पात करते रहते हैं। बाहर आकर्षण बनाये रखने के हेतु अपार धन व्यय किया जाता है। इस अत्यधिक शृंगार प्रियता ने समाज में वासना लोलुपता की अभिवृद्धि की है। आज भी निरंतर यह कार्य हो रहा है। उस सौंदर्य को जो पानी से घुल कर नष्ट हो जाता है, लोग सर्वोपरि मान बैठे हैं।

युवकों में सौंदर्य भावना का निंद्य स्वरूप बुरी तरह फैला हुआ है। कृत्रिम सुन्दरता बनाकर दूसरों को ठगा जाता है। बनाव-शृंगार कर अपनी त्रुटियों या चरित्रगत दुर्बलताओं पर आवरण डाल दिया जाता है। सौंदर्य का स्वाँग भरने वाले, सुन्दर आकर्षण वस्त्र तथा चटकीले-भड़कीले वस्त्र पहनने वाले व्यक्ति प्रायः चरित्र के दुर्बल, स्वभाव के रसिक, वासना लोलुप, चंचल प्रकृति के होते हैं। इनसे न स्वयं अपना भला हो पाता है, न समाज का ही कुछ लाभ होता है। सुन्दर व्यक्ति कोमलता का स्वाँग करते देखे जाते हैं। किसी भी कष्ट साध्य कार्य से उनका मन नहीं रमता।

यौवन मनुष्य की परिपक्वता का समय है। मनुष्य की सब शक्तियाँ पूरी रहती है, मन में आशा, शक्ति और उत्साह रहता है। मुँह पर मुस्कराहट खेलती रहती है। यौवन में मन उचित-अनुचित जिस ओर मन झुक जाता है, जीवन भर उसी ओर झुका रहता है। जब ये आदतें एक जैसी हैं तो मनुष्य उन्हें बदल नहीं पाता।

यौवन में काम भावना (सेक्स) का उभार आता है, मन वासनाओं से भर जाता है। यदि युवक इन वासनाओं का नियंत्रण न करे, या कार्य, कला, अध्ययन, संगीत या अन्य किसी मार्ग द्वारा इन्हें निकलने का मार्ग प्रदान न करे, तो वे गंदे घृणित मार्गों से निकलने लगती है। वासना एक शक्ति है, जिसका दुरुपयोग मनुष्य को पशु कोटि में ला पटकता है। पतन की चरम सीमा में पहुँचकर उसे ज्ञान होता है कि उसने अपने मनुष्यत्व, पौरुष, वीर्य का कितना नाश किया।

पथ-भ्रष्ट युवक सब से दयनीय जीव है। वह उस अमीर की तरह है, जो जीवन-सम्पदा को मिट्टी में मिला रहा है। उसे उन सत सामर्थ्यों का ज्ञान नहीं जो उसके चरित्र में छिपे हैं।

शक्ति का दुरुपयोग मनुष्य को राक्षस बना सकता है। रावण जाति का ब्राह्मण, बुद्धिमान, तपस्वी राजा था, किन्तु शक्ति का मिथ्या दम्भ उस पर सवार हो गया। पण्डित रावण राक्षस रावण बन गया। उसकी विवेक बुद्धि क्षय हो गई। वासना उत्तेजित हो गई। वासना तो एक प्रकार की कभी न बुझने वाली अग्नि है। जितना उसने वासनाओं की पूर्ति का प्रयत्न किया, उससे दुगने वेग से वह उद्दीप्त हुई। शक्ति उसके पास थी। वासना की पूर्ति के लिए रावण ने शक्ति का दुरुपयोग किया। अन्त में अपनी समस्त शक्ति के बावजूद रावण का क्षय हुआ। दुर्योधन ने शक्ति के दम्भ में अपने सब भाई-बन्धुओं का नाश किया।

मुसलमान शासकों के असंख्य उदाहरण हमारे सामने हैं। संयमी, कष्ट-सहिष्णु, सतत जागृत रहने वाले शक्ति सम्पन्न सम्राटों ने बड़े-बड़े राज्यों की नींव रखी। बाबर ने अपनी वीरता से मुगल साम्राज्य की नींव पक्की की किन्तु उसके पुत्र धीरे-धीरे असंयमी, विलासी, लोलुप बने। फलतः मुगल साम्राज्य का क्षय हो गया।

शक्ति का सदुपयोग किया जाय, तो वह मानव मात्र के लिए कल्याणकारी संस्थाओं, आश्रमों, नये-नये नियमों का निर्माण करने, समाज सेवा, नारी जागृति के पुनीत कार्यों में प्रयुक्त हो सकता है दुष्टों का दमन किया जा सकता है।

शक्ति के दुरुपयोग से न्याय का गला घुट जाता है, विवेक दब जाता है, मनुष्य को निज कर्त्तव्य का ज्ञान नहीं रहता, यह मदहोश हो जाता है और उसे सत-असत् का अन्तर प्रतीत नहीं होता।

अंग्रेजी में एक कहावत है, ‘सिंह की तरह बलवान बनो, किन्तु उस शक्ति से निर्धनों को आर्थिक सहायता, निर्बलों को ताकत, असहायों को सहारा मिलना चाहिये। इसी में शक्ति की उपयोगिता है।

लक्ष्मी जहाँ सुख की प्राप्ति का साधन है, वहीं पथ भ्रष्ट भी करने वाली हैं-

श्री सुखस्येह संवासा, सा चापि परिपन्थिनी

-म. भा. उद्यो. पर्व 42-31

अमीर लोगों के पुत्र उच्छृंखल अपव्ययी, विलासी और व्यसनी होते हैं। उनके मन में धन का प्रमाद इतना अधिक छाया रहता है। कि उसके कारण उनकी गुप्त शक्तियाँ विकसित नहीं हो पाती। वे मन के भीतरी स्तर में गुप्त पड़ी रहती हैं।

धन आलस्य उत्पन्न कर मनुष्य को निकम्मा, निरुत्साह और निश्चेष्ट बना देता है। उच्च वृत्तियाँ वासना की आँधी में दब जाती हैं। जिस धन से हम समाज सेवा, लोकोपकार तीनों को प्रोत्साहन प्रदान कर सकते हैं, वही हमारी वासना-पूर्ति में स्वाहा होने लगता है। धन की शक्ति से मनुष्य उचित-अनुचित की परवाह न कर अपनी इच्छाओं को पूर्ण करना चाहते हैं। दूसरे व्यक्ति धन का लोभ पाकर पतन के समस्त साधन जुटा देते हैं, और भोग विलास की घातक निद्रा में मनुष्य सो जाता है। धन वह निद्रा है, जिसके धुंधले में ज्ञान की ज्योति भी क्षीण हो जाती है।

अतः उपरोक्त चारों पदार्थों का उपभोग बहुत सोच-विचार करना चाहिए। उचित उपयोग से विष भी अमृत का कार्य करता है, जब कि मूर्ख के हाथ में अमृत भी विष न सकता है।

अपने से पूछिए आप इस विष को अमृत बना रहे हैं, अथवा इस अमृत को विष बना कर मरने की तैयारी कर रहे हैं?


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