जीवन यज्ञ

February 1954

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(राजवैद्य पं. श्यामबिहारी लाल शुक्ल शास्त्री)

जीवात्मा की संसार में विचित्र दशा है नाना योनियों में घूमते-फिरते कभी भगवान दया करके उसे मनुष्य देह दे देते हैं। मनुष्य योनि में जन्म लेकर शिशु, कुमार, युवादि अवस्थाओं को पाकर फिर विषय भोगों में फंसता है। संतान पैदा कर उनके लिए धन धान्य तथा अच्छे-अच्छे भोगों की सामग्री एकत्र करता है उनके उपार्जन करने में तरह-तरह के न्याय, अन्याय और नाना प्रकार के कष्टों को भी सहन करता हुआ पाप तथा अधर्म की भी कुछ चिन्ता न करके और अन्त में पापों के बोझे को सिर पर लाद कर काल का कलेवा हो जाता है। कवियों ने मनुष्य की एक भ्रमर की उपमा देते हुए कहा है कि किस प्रकार मनुष्य विषय-भोग, स्त्री, पुत्रों में फंस कर आगे के प्रबंधन सोचकर और विषयों के भोगने की प्रबल इच्छा से तृप्त न होकर सोचते-सोचते ही अचानक मर जाता है।

मनुष्य के विचार लीनता के सदृश एक कमल में बन्द भ्रमर विचार करता है कि रात्रि चली जावेगी, सूर्य भगवान प्रातः होते ही उदय होंगे, उनका दर्शन कर खिल जावेगा और मैं उसके पराग के मधु का पान करूंगा, ऐसा सोच ही रहा था कि एक हाथी ने कमल को उखाड़ मुँह में रख लिया। भ्रमर के समान वासनायुक्त मनुष्य को कालचक्र नष्ट कर देता है इस प्रकार पशु और मनुष्य में क्या अन्तर है। पशु भी पेट भर और सन्तान उत्पन्न कर मर जाता है परन्तु कई बातों में आज के मनुष्यों से कहीं अच्छे हैं। उन्हें भविष्य की अधिक चिन्ता नहीं, उनके चर्म, अस्थि तक दूसरों के काम में आ जाते हैं। वह संग्रह करना तो जानते ही नहीं मनुष्य को ईश्वर ने बुद्धि दी है। शास्त्र आदि के विचार पर यह सोच सकता है कि मनुष्य जीवन हमें किस लिए मिला है। कमाने-खाने, भोगने और अन्त में असहाय अचानक पशु की भाँति सब कुछ यहाँ छोड़ कर मर जाने के लिए नहीं मिला है। शास्त्र कहता है कि ‘नर समान नहिं कवनिह देही’ इत्यादि। क्या उसकी चरितार्थता भोग-भोगने में ही है। जो सुख अमरावती में इन्द्र को इन्द्राणी के साथ भोग-भोगने में मिलता है वही सुख कुत्ते को कुतिया के सहवास से प्राप्त होता है। जो सुख हमें षट्रस भोगने में प्राप्त होता है। उससे भी कहीं अधिक सुकरी को विष्ठा खाने में प्राप्त होता है। हमें मखमल के गद्दों पर जो आनन्द मिलता है, उससे अधिक गर्म रेत में लोटने से वैषाख में वैषाख नन्दन गधे को प्राप्त होता है। यदि मनुष्य में यज्ञादिक शुभ कर्म अथवा ज्ञान की वृद्धि न हुई जिससे वह ईश्वर को प्राप्त कर सके, हमें आज इसी पर विचार करना है इस घोर कलियुग में भागवत प्राप्ति के प्रायः सभी प्राचीन वैदिक साधन लुप्त से हो गये हैं।

अब न तो कोई वेदों का अध्ययन ही करता है और न वेदों में कथित यज्ञ-यागों को ही अब करता है। यद्यपि यज्ञों की महत्ता का अन्य शास्त्रों में विशेष कर गीता में वर्णन आया है। संसार में समस्त सुख तथा अक्षय सुख भी यज्ञों के करने से मनुष्य को प्राप्त हो सकता है और लोग प्राप्त भी करते हैं।

नित्य कर्म की भाँति होने वाले होम, अमावस्या, पूर्णिमा को होने वाली इष्टियाँ, विशेष अवसरों पर होने वाले विशिष्ट यज्ञों का क्या महत्व है? इसका वर्णन पाठक ‘अखण्ड ज्योति’ के पिछले अंक में पढ़ चुके हैं। अपनी स्थिति एवं भावना के अनुसार उनको करने के लिए हमें व्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप से प्रयत्न करते रहना चाहिए ताकि विश्व का सूक्ष्म वातावरण शुद्ध हो। वायु शुद्धि तो यज्ञों द्वारा आहुतियों एवं सामग्रियों के अनुपालन से एक सीमित मात्रा में ही होती है पर वेदमंत्रों के उच्चारण एवं यज्ञ की अत्यन्त रहस्यमयी प्रक्रियाओं द्वारा संसार का वह सूक्ष्म वातावरण जिसमें विचारों एवं भावनाओं का निवास है- शुद्ध होता है और उस शुद्धि के अनुसार सर्वत्र फैले हुए वासना, लोभ, स्वार्थ, हिंसा, ईर्ष्या, द्वेष, छल, अनीति आदि के कुविचारों का समाधान होकर ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती है जिनमें जन साधारण के मस्तिष्क शाँत, स्वस्थ एवं सतोगुणी रहें। जब ऐसा वातावरण संसार में फैला रहता है तो घर-घर में सुख शाँति विराजती है परस्पर स्नेह, सद्भाव सेवा एवं सहयोग के ही उदाहरण चारों ओर दीख पड़ते हैं। पूर्व युगों में ऐसा ही वातावरण फैला रहता था। यज्ञ भगवान को प्रसन्न करके लोग सब प्रकार सुख शाँति प्राप्त करते थे। आरोग्य वृद्धि, उत्तम वर्षा, वीर्यदान, वनस्पतियों तथा धान्यों की उत्पत्ति, वायु वृद्धि, सकाम कामनाओं की पूर्ति तो यज्ञ के गौण लाभ है। मुख्य लाभ तो यज्ञकर्ता के उसके समीपवर्ती लोगों के समस्त संसार के विचारों एवं भावनाओं से भरे हुए सूक्ष्म वातावरण की शुद्धि ही है।

अब लोग यज्ञों का महत्व भूल गये हैं। उनका नियमित विधान बहुत थोड़े ही विज्ञ पुरुष जानते हैं। आर्थिक स्थिति भी कई बार ऐसे पुण्य प्रयोजनों में बाधक होती है। इसलिए यज्ञ योग तो सदैव सबके लिए सुगम नहीं रहते। पर यज्ञ भावना को हर घड़ी जीवन में चरितार्थ करना हम सभी के लिए सुगम है। निर्धन एवं कार्य व्यस्त व्यक्ति भी जीवन को यज्ञमय बनाने का सतत प्रयत्न कर सकते हैं।

मन में सबके लिए सद्भावनाएं रखना, संयम पूर्ण सच्चरित्रता के साथ समय व्यतीत करना, दूसरों की जो भलाई बन सके उसके लिए प्रयत्नशील रहना, वाणी को केवल सत प्रयोजनों के लिए ही बोलना, न्याय पूर्ण कमाई पर ही गुजारा करना, भगवान का स्मरण करते रहना, अपने कर्त्तव्य धर्म पर आरुढ़ रहना, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में विचलित न होना, यही नियम है, जिनका पालन करने से जीवन यज्ञमय बन जाता है। इन व्रतों के धारण करने में साँसारिक दृष्टि से कुछ अभावग्रस्त जीवन रहता दीखता है। वह व्यक्ति विलासिता का उपभोग एवं तिजोरियाँ भरने में सफल नहीं हो पाता, पर इनका त्याग करने पर उसे जो आत्म शक्ति एवं सद्गति मिलती है, उसका मूल्य भौतिक सम्पदाओं की अपेक्षा असंख्य गुना अधिक है।

मनुष्य जन्म बार-बार नहीं मिलता। चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के बाद लाखों वर्षों के उपरान्त यह अवसर हाथ आता है। इसे भी कूकर, सूकर की भाँति भौतिक प्रयोजनों में नष्ट कर दिया जाय तो यह कोई बुद्धिमानी नहीं है। मनुष्य जीवन को सफल बना लेना ही सच्ची दूरदर्शिता और बुद्धिमता है। हमें इसके लिये प्रयत्नशील रहना चाहिये। जीवन को यज्ञ रूप बनाकर, यज्ञ भगवान की शरण में अपने को डालकर हम अवश्य ही अपने जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।


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