दैवी सम्पदा में सुख प्राप्ति

February 1954

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(पं. गौरी शंकर जी द्विवेदी, चंदवाड़)

वास्तविक भक्त में जो लक्षण होने चाहिए, अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण ने गीता अ. 16 में बताये हैं।

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नाति मानिता भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत

अ. 16।1।3

हे भारत, निर्भयता, अन्त करण की शुद्धि, भगवान के स्वरूप में निरन्तर दृढ़ स्थित (आस्तिकता), दान, इन्द्रिय संयम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, सरलता, अहिंसा, सत्य, क्रोध हीनता, त्याग, शाँति, निन्दा या चुगली न करना, सब प्राणियों पर दया, लोभ रहित होना, कोमलता, ईश्वर और शास्त्र विरुद्ध कर्मों में लज्जा, अचंचलता, तेज, क्षमा, धैर्य, शौच, अभिमान शून्यता, यह सब गुण दैवी सम्पदा को प्राप्त हुए पुरुष में रहते हैं, और यह दैवी सम्पत्ति भक्त में ही रहती है। इसलिए भक्त को देव कहते हैं।

विष्णुभक्तः स्मृतो देव आसुर स्तद्विपर्ययः॥

पद्य. पु.

इस जगत में दो प्रकार के जीव हैं। एक देव, दूसरा असुर, जो भक्त हैं वे देव हैं, जो भक्त नहीं हैं, वही असुर है।

दैवी सम्पत्ति के गुण वाला भक्त है, जहाँ भक्ति है, वहाँ दैवी सम्पदा का होना अनिवार्य है। कुछ लोग भूल से ऐसा कह दिया करते हैं, कि ‘भक्ति करो’ भक्त में सद्गुण न हो, तो न सही, मनुष्य चाहे जितने भी पाप करे, बस भक्त हो जाय। फिर कोई पराया नहीं, परन्तु उनका यह कहना वैसे ही युक्ति विरुद्ध है, जैसे कि यह कहा जाय, कि सूर्य उदय हो जावे, फिर वहाँ अंधकार भले ही बना रहे। जहाँ सूर्य उदय हो गया, वहाँ अंधकार रह भी कैसे सकता है। जहाँ भक्ति रूपी सूर्य का प्रकाश हुआ है, वहाँ दैवी सम्पत्ति अवश्य ही फैल जायेगी। यह बात किसी भी अंश में सत्य है, कि भगवत् प्राप्त महात्मा भक्त में पुरुषों के बाहरी आचरणों से उनकी परीक्षा नहीं होती, कुछ गुण ऐसे है जिनका उनमें रहना अत्यन्त ही आवश्यक है।

‘अहिंसा सत्य शौच दयास्तिक्यादि चारित्र्याणि परिपालनीया।’

भक्ति के साधक को अहिंसा, सत्य, शौच, दया, आस्तिकता आदि आचरणीय सदाचारों का भलीभाँति पालन करना चाहिए। जिस पुरुष में यह गुण न हो वह यदि कदाचित भक्त भी हो तो भी उससे करना ही चाहिए। अधिकाँश में इन गुणों से रहित भक्त तो होते ही नहीं। यह निश्चय रखना चाहिये, कि यदि भगवत् चिन्तन और दैवी सम्पत्ति बढ़ रही है, तो हमारी भक्ति मार्ग में उन्नति हो रही है। यदि जगत का चिन्तन है, और दैवी सम्पत्ति का अभाव है तो हमारी निश्चय ही अवनति हो रही है। दोनों का परस्पर में विरोध है, माना जाय कि हमारा मुख जगत की ओर, तो भगवान की ओर पीठ ही होगी, अगर भगवान की ओर मुख करें, तो पीठ जगत की ओर ही रहेगी। यह विलक्षण बात है।

भगवान का प्रेम पूर्वक चिन्तन भक्त का धर्म है और दैवी सम्पदा के गुण उसकी जीवन पद्धति है। वह सब कुछ छोड़ देता है, पर इन गुणों को कदापि नहीं छोड़ता, यह निश्चय है कि वह किसी प्रकार की भी, आसक्ति, ममता, कामना, अहंकार, मोहवश जीवन पद्धति को नहीं बदलता।

किसी कारण वश उसकी जीवन पद्धति में भगवत्प्रेम में विरोध दीखता है, वहीं अपने प्रभु की आज्ञा लेकर स्वधर्म की रक्षा हेतु नीति को छोड़ देता है। जैसे प्रह्लाद, विभीषण, भरत, बलि, वृज वनिता आदि उदाहरण मिलते हैं।

पिता तजे प्रह्लाद विभीषण बन्धु भरत महतारी,

बलि गुरु तजे गोप ब्रज वनितन भए सब मंगल कारी।

माता-पिता, भाई आदि की आज्ञा न मानते हुए भी सदाचार नीति का त्याग नहीं हुआ है। प्रेम धर्म निबाहने में भक्तों ने स्वयमेव कष्ट सहे हैं। भक्ति के साधक को बड़ी सावधानी के साथ शास्त्र विहित सद्गुणों, सदाचारों का यथावत पालन करना चाहिए। उन पाँच गुणों की व्याख्या निम्नांकित है।

अहिंसा 2. सत्यम् 3. शौच 4. दया 5. आस्तिकता।

अब इन पाँचों की विवेचना करते हैं-

अहिंसा अपने शरीर मन, वाणी द्वारा किसी भी जीव को कभी भी कष्ट नहीं पहुँचाना।

सत्य जो देखा सुना हो, उसे यथावत कह देना, वाणी द्वारा सत्य बात का उच्चारण अन्यथा मौन रहना, साथ ही शब्दों में कठोरता न हो एवं वचन हितकर हों, अथवा हृदयस्थ भावों को जिह्वा द्वारा कह देना सत्य है।

शौच- भीतरी, बाहरी। भीतरी पवित्रता-आँगर्गात्राणि शुद्धयन्ति मनः सत्येन शुश्चयति। मन की शुद्धि सत्य वाणी से होती है।

बाहरी-जलादि से, पवित्र भोजनादि अपने भीतर दभाँदिक दोषों को मन में न आने देना, सरलता, प्रेम, अद्वेष प्रसन्नता द्वारा मन को पवित्र बनाना।

दया कोई भी क्यों न हो, बिना किसी भेद भाव के दुखी दशा में दुखी होना और यथा साध्य दुख दूर होने में सहायता करना।

आस्तिकता, शास्त्र एवं भगवान पर विश्वास। जब भगवान में पूर्ण विश्वास हो गया, तो मन अपने आप भगवान की ओर लग जायेगा, भगवान की सत्ता सर्वत्र है, वे सभी के भंडार हैं, संसार में हो कुछ भी हम देखते हैं, या जहाँ तक हमारी कल्पना पहुँचती है, वे सब भगवान के एक क्षुद्र अंश में मौजूद हैं। अतः साधक को इन बातों को अपनाते हुए, अपने मार्ग में अग्रसर होना चाहिए। फिर आने वाली महान आपत्ति भी शाँति प्रदर्शक होगी।

सर्वदा सर्व भावेन निश्चिन्तितैर्भगवानेन भजनीयः।

सब समय सर्वभाव से भगवान का ही भजन करना चाहिए। यही है, सुख, शाँति का मूल मंत्र। यह भी निर्विवाद सत्य है कि बिना दैवी सम्पदा के कोई भी शाँति नहीं पा सका। शाँतिः


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