सिद्धियों का मूल एकाग्रता

February 1954

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(श्री रामदास विष्णु पटेल, सावदा)

कर्मयोग, भक्तियोग, लययोग, नादयोग, ध्यान, धारणा, जपयोग इत्यादि जितने साधन हैं, वह सब अन्तःकरण की शुद्धता, पवित्रता तथा एकाग्रता के लिये हैं। चंचल मन से किया हुआ कोई भी साधन सिद्ध नहीं हो सकता।

‘रसस्य मनसश्चैव पञचलत्वं स्वभावतः।

रसबद्धो मनोबद्धं कि न सिध्यति भूतले॥’

(बरहोपनिद्)

पारद और मन यह स्वभावतः चंचल हैं, यदि पारद को और मन को बद्ध कर दिया जाय तो फिर त्रैलोक्य में अप्राप्य कुछ भी न रहेगा।

जिस प्रकार अस्थिर जल में अपना प्रतिबिम्ब साफ नहीं दीखता, उसी प्रकार जब तक चित्त चंचल है, तब तक अपना आत्मस्वरूप प्रकट नहीं होता। इसलिये मन को साधन द्वारा एकाग्र करने का अवश्य प्रयत्न करना चाहिए, जिससे अन्तःकरण की शुद्धि होती रहेगी और शुद्धता के साथ-साथ एकाग्रता भी बढ़ती जायेगी। संकल्प और विकल्प करते रहना यह तो मन का धर्म है, इसलिए साधन द्वारा धैर्यपूर्वक मन को साधनारुढ़ करके मन को शनैःशनैः जीतना चाहिए। मन पर नियंत्रण किये बिना साधन सफल नहीं होता और साधक निरुत्साह हो जाता है।

‘मनोहि विजितं येन जितं तेन जगत्रयं’

मनोविज्ञान शास्त्र का कथन है कि मन का नियंत्रण करने से एक महान सूक्ष्म बलवती शक्ति उत्पन्न होती है, जिसका परिचय होना अल्पज्ञ मनुष्यों को दुस्तर है, मनोनियम से कायिक, मानसिक और सामाजिक उन्नति होती है। कर्मयोग, भक्तियोग, लययोग, हठयोग, राजयोग तथा तपयोग इसमें सरल और साध्य केवल जपयोग है, मंत्र का जप मनोयोग के साथ करने से एकाग्रता साध्य होता है।

‘तज्जपस्तदर्थ भावनम्’

वृत्ति को अन्तर्मुखी करना साधक का ध्येय है। इसलिए अपने नेत्र को मिलित रख कर मंत्र के अक्षरों पर मन को दृढ़ आरुढ़ करना और ध्यान सहित जप करना इस प्रकार बिना नागा दृढ़ विश्वास तथा श्रद्धा पूर्वक करने से वृत्तियाँ जगत की और बाहर बिखरी हुए विचार अन्तर्मुख होने लगते हैं।

जिस प्रकार सूर्य की किरण सूत्र को जला नहीं सकती पर जब सूर्यकान्त काँच द्वारा किरणों को एकत्र कर दिया जाए तो प्रत्यक्ष अग्नि प्रकट हो जाती है और सूत्र को जलाकर भस्म कर देती है, इसी प्रकार-

‘यदा पंचवतिष्टन्ते ज्ञानानि मनसा सह’

जिस समय पंच कर्म इन्द्रियाँ, पंच ज्ञानेन्द्रियाँ अपने विषयों की ओर नहीं जाती है तब मन निश्चल हो जाता है। बाह्य सृष्टि और अपने स्व शरीर की विस्मृति होती रहे तब जानना चाहिये कि मन की एकाग्रता होनी प्रारंभ हो रही है। इस प्रकार एकाग्रता का साधन संयमपूर्वक करते रहने से साधक सिद्धि के सन्निकट पहुँचेगा। अन्तःकरण में पूर्ण उत्साह, मन की प्रसन्नता भी प्रतिदिन वृद्धिगत होने लगेगी और इष्ट मनोरथ भी अपने सफल होते रहेंगे।

मन में अनेक विलक्षण शक्तियाँ भरी हुई हैं। पर ये यत्र-तत्र बिखरी पड़ी रहती हैं जिससे उनका समुचित विकास नहीं हो पाता और मनुष्य उनके अद्भुत लाभों से वंचित रह जाता है। बारूद जमीन पर बिछाई जाय और उसमें आग लगाई जाय तो वह साधारण रीति से जल जाने के अतिरिक्त और कोई विशेष कार्य न करेगी पर यदि उसी बारूद का बन्दूक की नली में विधिपूर्वक प्रयोग किया जाय तो वह दूरस्थ लक्ष्य का भी बेधन कर सकती है। इसी प्रकार हमारी मानसिक शक्तियाँ यदि बिखरी रहेंगी तो उनसे कोई विशेष लाभ उठाना संभव न होगा। पर यदि एकाग्रता द्वारा उनको जगाया जाय, बलवान किया जाय तो एक-एक मानसिक शक्ति एक चमत्कार बनकर प्रकट हो सकती है।

अनेक सन्त महात्माओं में अनेक प्रकार की सिद्धियाँ होने के वर्णन सुने जाते हैं। उनके कार्य अनेक बार ऐसे होते हैं जिन्हें साधारण मनुष्य नहीं कर सकता। उनकी यह सिद्धियाँ आत्मिक एकाग्रता के ऊपर निर्भर रहती हैं। मनुष्य शरीर में अनन्त शक्ति केन्द्र छिपे पड़े हैं वे साधना की एकाग्रता द्वारा सक्रिय एवं प्रकट होते हैं। बहिर्मुखी लोग व्यर्थ की बातों में लगाकर अपने मन के लाभ से अपरिचित तथा वंचित रह जाते हैं। किन्तु जो लोग अन्तर्मुखी होकर अपने चित्त को जप, ध्यान आदि में एकाग्रता को बढ़ाते हैं वे अपनी अनेक आत्मिक शक्तियों का दर्शन करते हुए आत्म साक्षात्कार का परमानन्द प्राप्त करते हैं। निरन्तर आत्मा में दत्त चित्त होकर सरकस में काम करने वाले नट जिस पर अपने शरीर द्वारा आत्मिक एवं मानसिक शक्तियों पर चित्त एकाग्र करके साधना द्वारा अनेक सिद्धियों के स्वामी बन जाते हैं। सबसे बड़ी अपने आपको भवबन्धनों से मुक्त कर लेना तथा आत्मा का साक्षात्कार करके जीवन मुक्त बनना है। इस महासिद्धि के लिए भी चित्त की चंचलता को दूर करके एकाग्रता का अभ्यास बढ़ाना ही है।


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