जीवन यज्ञ (Kavita)

February 1954

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क्या हुआ अब बुझ गया तो,

रात भर दीपक जला है! ग्रीष्म का विकराल आतप,

विषम झञ्झावात सहना । हिम पड़े या उपल बरसे ,

क्या सरल तब अडिग रहना?

पल्लवित, कुसुमित फलित तरु,

गा रहा कुछ, कौन जाने।

भर रहा सौरभ जगत में, फल काँटों में पला है।

है कठिन गिरि बन गहन को,

काट अपना पथ बनाना। दीपकों-से, दृढ़-चरण के, चिह्न अपने छोड़ जाना ॥

सफल जीवन-यज्ञ, जब जग, मोद-मय आमोदमय हो।

है मरण तो सरल कितना, कठिन जीवन की कला है।

क्या हुआ अब बुझ गया तो, रात भर दीपक जला है।

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