गीत संजीवनी-8

प्रगति पन्थ पर एक साथ

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प्रगति पन्थ पर एक साथ सब, मिलकर कदम बढ़ाओ।
जियो और जीने दो का स्वर, घर- घर में पहुँचाओ॥

परवशता का अन्त हो चला, वैभव का युग बीता।
अब न छलेगा कोई रावण, सदाचार की सीता॥
दलित नहीं रह सकता कोई, साहस जाग रहा है।
समता का अधिकार सृष्टि का, कण- कण माँग रहा है।
लेने भर की बात न सोचो, कुछ देकर भी जाओ॥

तोड़ रहे सारे मनुष्य हैं, भेदभाव के धागे।
कन्धे से कन्धा पग से पग, मिला बढ़ रहे आगे॥
आज परिश्रम वेद बन गया, और कर्म ही गीता।
जन- जन शक्ति- पुराण बन गया, निर्बल का बल जीता॥
तुम भी कुछ आगे बढ़ने की, अब हिम्मत दिखलाओ॥

जाग उठा सोया जड़ चेतन, जाग उठी तरुणाई।
अन्धकार मिट चला गगन में, स्वर्ण लालिमा छाई॥
निर्माणों का सूर्य अँधेरी, रात चीरता आता।
जागो! जगती के निवासियों! नवयुग तुम्हें बुलाता॥
द्वार दया के खोलो, करुणा की सौगात लुटाओ॥

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