गीत संजीवनी-4

इस दहेज ने ही फैलाया

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इस दहेज ने ही फैलाया

इस दहेज ने ही फैलाया, भारी अत्याचार है।
इस दानव को मार भगाओ, यह समाज का भार है॥

पुत्र जन्म लेते ही घर में, लहर खुशी की छा जाती॥
लेकिन कन्या इस धरती पर, एक समस्या बन जाती॥
कैसे हाथ करेंगे पीले, यदि अभाव घर में धन का।
घर- वर दोनों ठीक चाहिए, प्रश्न समूचे जीवन का॥
बात सैकड़ों की न कहीं भी, पहला अंक हजार है॥

शिक्षित और सुशील सुपुत्री, रूप गुणों की उजियारी।
किन्तु पिता के पास नहीं धन, इसीलिये बैठी क्वारी॥
चिन्ता ही दहेज की निशदिन, किये यहाँ हैरान बड़ा।
एक तरफ शादी का सौदा, एक तरफ ईमान खड़ा॥
परेशान होकर बहुतों ने, छोड़ दिया संसार है॥

नारी का क्या मूल्य न कोई- क्या वह पशु से दीन कहो।
नर की तुलना में क्यों इसको, माना इतना हीन कहो॥
लड़के वाला लेन- देन में, कितनी अकड़ दिखाता है।
नीलामी जैसी बोली वह, नेगों की लगवाता है॥
यह पुनीत सम्बन्ध नहीं है, निन्दनीय व्यवहार है॥

इस कुरीति ने दुष्कृत्यों की, बाढ़ भयंकर फैलायी।
घूस, मिलावट, चोर- बजारी बेईमानी सिखलायी॥
ओ समाज के ठेकेदारों, कुम्भकरण बन सोते हो।
अनाचार से आँख फेरकर, बीज पाप के बोते हो॥
पैसे को भगवान बनाकर, रचा क्रूर व्यवहार है॥

मुक्तक-


है दहेज भीषण असुर- करे विकट संहार।
इसने ही तो खा लिया,हृदयों का शुभ प्यार॥
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