द्रवित जब पीर से उर
द्रवित जब पीर से उर हो गया, पर पीर पहिचानी।
तपे सर्वार्थ भागीरथ, हिमालय हो गया पानी॥
सुनी पर पीर तो फिर उर, हिमालय का न रुक पाया।
हृदय भागीरथी संवेदना के, संग मचल आया॥
पिघल संवेदना से हो गया, उर मोम पाषाणी॥
कि निर्झर वेदना के हिम हृदय से फूट फिर निकले।
तृषा हरने हिमालय के हृदय के घाव फिर मचलें॥
हृदय से स्रोत फूटा मौन को फिर मिल गई वाणी॥
निनादित हो उठी गंगा पराये पाप धोने को।
अहर्निश बह चली वह वेदना से एक होने को॥
सभी अभिशाप ग्रस्तों की हुई वह सिद्ध वरदानी॥
तृषित सूखी धरा को स्नेह धारा से भिगो डाला।
तड़पती प्यास पर अपने हृदय का रस निचो डाला॥
पतित पावन हुई गंगा हुई सर्वार्थ कल्याणी॥
सगर सुत ताप से हो मुक्त प्रिय जीवन लगे जीने।
जहर सी हो गई थी जिन्दगी अमृत लगे पीने॥
तभी भागीरथी पुरुषार्थ की गरिमा गई जानी॥
पुनः युग हो गया शापित बिना श्रम और साहस के।
मनोबल गिर गया उसका, बिना संकल्प ढाढस के॥
चलो भागीरथी पुरुषार्थ की गंगा हमें लानी॥
पुनः लहरा उठे नूतन सृजन की सुरसरी जग में।
पुनः निर्माण के मंदिर बने भागीरथी मग में॥
पुनः भागीरथी के वंशजों ने ठान यह ठानी॥