दूसरों की बहुत बात करते
दूसरों की बहुत बात करते रहे, बात अपनी कभी की गई ही नहीं।
चादरें दूसरों की उधेड़ते रहे, खुद की उधड़ी हुई सी गई ही नहीं॥
बिन बनाये हुए न्याय घर बन गये-
दोष की दृष्टि से दोष देखा करे।
काँच के वस्त्र पहिने हुए जो दिखा-
पत्थरों को उसी ओर फेंका करे॥
दृष्टि का दोष इतना भयंकर हुआ, सूर्य से रोशनी ली गई ही नहीं॥
दोष अपने अगर देख लेते स्वयं-
तो परिवार की राह बनती सहज।
व्यक्ति निर्माण का कार्य करते स्वयं-
प्रेरणास्रोत की राह खुलती सहज॥
आचरण को स्वयं के उदाहरण बना,कारगर प्रेरणा दी गई ही नहीं॥
व्यक्ति निर्माण की साधना चल पड़े-
तो स्वयं ही जमाना सुधर जायेगा।
व्यक्ति, परिवार यदि यूँ बदलने लगे-
तो सुनिश्चित है युग भी बदल जायेगा॥
श्रेष्ठ सब क्रान्तियों में विचार क्रान्ति है,बात गंभीर तब ली गई ही नहीं॥
अब मनुजता मनुज से दुःखी हो रही-
यह मनुज के लिए शर्म की बात है।
क्षुद्र से स्वार्थ वश निज अहं तृप्ति को-
अब मनुज पर मनुज कर रहा घात है॥
किस तरह मुक्त हो मानवी पीर से, मानवों पीर यदि पी गई ही नहीं॥