तीस बरस की क्वाँरी कन्या
तीस बरस की क्वाँरी कन्या, उठती हूक नई।
इस दहेज के कारण भरी जवानी रूठ गई॥
इसके कारण बनना पड़ा पिता को बेईमान।
तब ही पूर्ण कर सका वह बेटे वालों की माँग॥
फिर भी मिटी न हविश लोभ की सीमा टूट गई॥
रोज- रोज माँग न पूरी कर पाये घर वाले।
तो दुःख ऐसे दिये बहू को सम्हले नहीं सम्हाले॥
जीवित हाय जलाया मानवता भी छूट गयी॥
युवकों उठो तुम्हीं मेटो इस समाज के कैन्सर को।
चाँदी पर मत बिको, न मरघट बनने दो निज घर को॥
मन का सुख घर की समृद्धि यह कुप्रथा लूट गयी॥
जीवन साथी चुनों गुणों के बल पर प्रतिभावान।
प्यास बुझाओ अमृत से मत करो हलाहल पान॥
नया खरीदो घट दहेज की गगरी फूट गयी॥