काँच न हैं हम जो टूटेंगे
काँच न हैं हम जो टूटेंगे और बिखर जाएँगे।
जितनी अग्नि परीक्षा लोगे, और निखर जाएँगे।।
तुमने कहा अंग अवयव हैं हम गुरुदेव! तुम्हारे।
संग तुम्हारा मिला, भला क्यों ढूँढें और सहारे।।
पात कल्पतरु के पतझर में कैसे झर जाएँगे।।
हम हैं दूब जुड़ी हैं तुमसे गहरी जड़ें हमारी।
बार- बार हरियाए जब- जब मिली फुहार तुम्हारी।।
जेठ तपेगा जितना, उतने और सँवर जायेंगे।।
बार- बार चोट करी पर भीतर बहुत सहेजा।
यूँ संकेत दिया क्यों हमको गया धरा पर भेजा।।
दिशा प्राप्त कर पल- पल होते और प्रखर जायेंगे।।
हम सबके सम्मुख रखेंगे युगऋषि! रूप तुम्हारा।
जिसने गंगाजल पारस सा सबको सहज सँवारा।।
हम महकेंगे जहाँ तुम्हारे चन्दन स्वर जायेंगे।।
सभी व्यक्ति भीतर- बाहर से स्वयं सुधर जायेंगे।।