मुक्तक-
जर्जर हुई मनुजता को प्रभु, तुमने फिर दे दी तरुणाई।
पथ के कांटों, अवरोधों में, ज्ञान क्रान्ति की आग लगाई॥
राह बना उज्ज्वल भविष्य की, सबको पावन लक्ष्य दिखाया।
कोटि- कोटि प्राणों ने उस पर, चलकर जीवन धन्य बनाया॥
गुरु ने बाँह हमारी थामी
गुरु ने बाँह हमारी थामी, साथ चलाने, मंजिल पाने॥
राह कठिन थी बाधाएँ थी, पग- पग पर ही विपदाएँ थी।
हारे हुए की हिम्मत बढ़ाने॥
लोभ, मोह के मोड़ कई थे, भटकाने के ठौर कई थे।
इन सबसे ही पीछा छुड़ाने॥
बीच राह में ही लुट जाते, भोग वासना से पिट जाते।
पाप- पतन से हमें बचाने॥
बाँह हमारी छोड़ न देना, आश लगी है तोड़ न देना।
जन- मंगल मंजिल तक जाने॥