भारतीय इतिहास के कीर्ति स्तम्भ- 1

दक्षिण भारत के चाणक्य, विद्यारण्य

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सन् 712 ई. में अरबों ने भारत पर पहला आक्रमण किया। इस आक्रमण का नेतृत्व किया था मुहम्मद बिन कासिम ने और पहला आक्रमण का निशाना बनाया था सिंध को। मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध के शासक दाहिर को परास्त करने में सफलता प्राप्त की और वहां अपने साम्राज्य का झंडा रोपा। सिंध से देवल और मुलतान तक भी अरब साम्राज्य का विस्तार हुआ और यह सारा विस्तार तीन चार वर्षों के प्रयत्नों का ही परिणाम था। इससे आगे का अभियान जुनैद और तामिन नामक प्रतिनिधियों को सौंप कर कासिम वापस लौट गया। तब तक भारतीय जनता और राजाओं में भी स्थिति के प्रति जागरूकता और सतर्कता आ गयी थी परिणामस्वरूप एकता, शौर्य और साहस में अद्वितीय स्थान रखने वाली भारतीय जनता के सम्मुख जुनैद और तामिन तथा उनकी सेनाओं की एक न चल सकी। यद्यपि वे अपने अभियान को सफल बनाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाते रहे परंतु सफलता नहीं मिली।

अरब आक्रमण से भारतवर्ष लगभग तीन शताब्दियों तक एक प्रकार से असुरक्षित हो गया। परंतु इन तीन शताब्दियों के दौरान ही कुछ ऐसा राजनीतिक घटनाचक्र चला कि हमारे देश की राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ गयी। भारतीय राजा आपस में लड़ने लगे। दसवीं शताब्दी में पुनः एक बार जोरदार अरब आक्रमण हुआ और पंजाब हाथ से निकल गया। भारतीय रियासतों ने फिर भी इस घटना से कोई सबक नहीं लिया। वे आपस के झगड़ों में ही अपनी शक्ति नष्ट करते रहे। गुजरात के चालुक्य और अजमेर के चौहान, महोबा के चंदेल और कन्नौज के गाहडवाल, जिनके सम्मिलित प्रयासों ने आक्रामकों के दांत खट्टे किए थे आपस में ही लड़ने-भिड़ने और मरने-मारने लगे।

इस स्थिति का लाभ उठाकर महमूद गजनवी ने छब्बीस वर्षों के भीतर भारत पर सत्रह बार हमले किए। भारतीय सेनाओं ने आनंदपाल के नेतृत्व में महमूद का मुकाबला झेलम के किनारे किया परंतु बिखरी हुई शक्तियों का अस्थायी गठबंधन गजनवी का मुकाबला नहीं कर सका और विजय महमूद को ही मिली। महमूद गजनवी ने इस आक्रमण में विजयी होकर मथुरा, वृन्दावन, कन्नौज, कालिंजर के मंदिरों को लूटा। गुजरात के प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर को लूटने और सोमनाथ की मूर्ति का भंजन कर ‘बुत शिकन’ होने का धर्मांध श्रेय भी गजनवी ने ही प्राप्त किया। फिर भी मूलतः वह लुटेरा था उसकी रुचि साम्राज्य स्थापित करने की अपेक्षा हीरे-जवाहरातों से अपना कोश भरने में अधिक थी। अपने इस उद्देश्य में एक दृष्टि से सफल होकर वह वापस चला गया।

साम्राज्य स्थापना की इच्छा से मौहम्मद गौरी ने 1191 में भारत पर पहला आक्रमण किया। इस आक्रमण का सामना किया दिल्ली के प्रसिद्ध शूरवीर सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने। परंतु अपने स्वार्थों के लिए राष्ट्रीय हितों का खून करने वालों की भी कमी नहीं थी। व्यक्तिगत शत्रुता के कारण इसीलिए गौरी का स्वागत किया कन्नौज के जयचंद ने। जिसका नाम ही देशद्रोही प्रवृत्तियों का प्रतीक बन गया है और दिल्ली पर एक लंबे संघर्ष के बाद मौहम्मद गौरी ने विजय प्राप्त की और भारत की दासता का अंध युग आरंभ हुआ कतिपय देशद्रोही तत्वों के कारण।

इस लंबी भूमिका के प्रस्तुतीकरण का उद्देश्य राष्ट्रीय विपत्तियों के मूल में एकता का अभाव कहना ही है। मुगल साम्राज्य की स्थापना के बाद धीरे-धीरे अन्य राज्यों में भी उनका प्रभाव प्रबल होता गया। कोई विजेता राष्ट्र विजय के बाद विजित राष्ट्र की  सांस्कृतिक आधार शिलाओं पर चोट करता है ताकि भविष्य में उसके प्राणों में राष्ट्रीयता का बीज अंकुरित न होने पाये। भारतीय धर्म और भारतीय संस्कृति पर जब बर्बर आक्रमणों की शुरूआत हुई और उनकी भीषणता बढ़ती गयी तो ऐसे व्यक्तित्व की आवश्यकता प्रबल हुई जो अपनी मेधा, प्रतिभा के बल पर बिखरे मणि-माणिक्यों को एक सूत्र में आबद्ध कर सके और उस समय यह आवश्यकता पूरी भी की गई। चौदहवीं शताब्दी में दक्षिण भारत के दो भाइयों ने विजय नगर साम्राज्य की स्थापना की और इस राज्य की सीमा का विस्तार भी किया। यद्यपि इस प्रयास का श्रेय उनके संस्थापकों हरिहर और बुक्काराय को दिया जाता है परंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि इस प्रयास के मूल में चाणक्य की तरह एक अद्भुत व्यक्ति काम कर रहा था जिसका नाम था—विद्यारण्य।

विद्यारण्य बचपन का नाम था। उनके पिता विजय नगर राज्य के संस्थापक हरिहर-बुक्काराय के कुलगुरु थे। इसी कारण उन्हें हरिहर के राजवंश के निकट सम्पर्क में रहने का अवसर प्राप्त हुआ। विद्यारण्य ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता तथा राजवंश के कुलगुरु आचार्य सायण के सान्निध्य में सम्पन्न की और आगे चलकर अपने समय के विख्यात विद्वानों विद्यातीर्थ, भारतीतीर्थ और श्रीकंठ के सान्निध्य में चली। विद्यातीर्थ श्रृंगेरी मठ के शंकराचार्य थे, भारतीतीर्थ भी वेदांत के ही उपदेष्टा थे और श्रीकंठ से उन्होंने साहित्य तथा संस्कृति का ज्ञान अर्जित किया था।

कहा जा चुका है कि उस समय न केवल भारतीय राजनीति पर ही विदेशी शक्तियां हावी थीं वरन् धर्म और संस्कृति को भी पूरी तरह नष्ट करने का कुचक्र जोरों से चल रहा था। बालक माधव ने अपने बाल्यकाल से ही देश और समाज की इस पतनशील अवस्था को देखा था तथा जागरूक अंतस् में आक्रोश भी उत्पन्न होता अनुभव किया था। विद्यारण्य के एक जीवनीकार ने उस समय की स्थिति का उल्लेख करते हुए लिखा है—‘‘उस समय लोग चिदम्बरम् के पवित्र तीर्थ को छोड़कर भाग गए थे। मंदिरों के गर्भगृह और मंडलों में घास उग आयी थी। अग्रहारों से यज्ञ धूप की सुगंध के स्थान पर पकते मांस की गंध आने लगी थी। ताम्रपर्णी नदी का जल चंदन से मिश्रित होने के स्थान पर गोरक्त से मिश्रित होने लगा था। देवालयों और मंदिरों पर कर लग गए थे। अनेक मंदिर देखभाल न होने के कारण या तो स्वयं गिर गए थे अथवा गिरा दिए गए थे। हिन्दू राज्य छल-बल से समाप्त होते जा रहे थे।’’

जिन विभूतियों को माधव के शिक्षण और मार्गदर्शन का दायित्व प्राप्त था, वे भी किसी प्रकार इस दुःस्थिति को उलट देने के लिए लालायित थे, लालायित ही नहीं प्रयत्नशील भी थे। माधव ज्यों ज्यों बड़े होते गए वे अपने व्यक्तित्व निर्माताओं के प्रयासों के अनुरूप ढलने लगे। और जब गुरुगृह से लौटने लगे तो भारतीय परम्परा के अनुसार उन्होंने गुरुओं से पूछा—ब्राह्मण परम्परा के अनुसार मैं आपको दक्षिणा में क्या अर्पित करूं?

‘‘अपना जीवन’’-छः अक्षरों का उत्तर मिला। और उन्होंने जीवन अर्पित कर दिया जिसको दक्षिणा स्वरूप ग्रहण कर प्रसाद स्वरूप इस शर्त के साथ लौटा दिया कि राजनैतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से खंड खंड होते जा रहे भारत का पुनर्जागरण कर भारतीय धर्म और संस्कृति को पुनर्जीवन देना।

‘‘अपना जीवन’’-छः अक्षरों का उत्तर मिला। और उन्होंने जीवन अर्पित कर दिया जिसको दक्षिणा स्वरूप ग्रहण कर प्रसाद स्वरूप इस शर्त के साथ लौटा दिया कि राजनैतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से खंड खंड होते जा रहे भारत का पुनर्जागरण कर भारतीय धर्म और संस्कृति को पुनर्जीवन देना।

माधवाचार्य (बाद में विद्यारण्य) अपनी कुल परम्परा से हरिहर और बुक्काराय के वंश के कुलगुरु बने। इस सामंत पुत्रों से उनका निकट संबंध था। अतः उन्हीं की प्रेरणा और संरक्षण में संगमराज के पुत्र हरिहर प्रथम ने सन् 1336 ई. में विजय नगर राज्य की नींव डाली। दक्षिण भारत को दिल्ली का कमजोर मुगल शासन अपनी नियंत्रण व्यवस्था में रख पाने में असमर्थ हो रहा था। इसी कमजोरी का लाभ उठाकर चौदहवीं शताब्दी में अपने ढंग का यह पहला प्रयास हुआ विजय नगर के नाम से तुंगभद्रा नदी के तट पर एक सुंदर नगर बसाया गया, जिसकी रमणीकता का वर्णन करते हुए उस समय भारत आए एक फारस यात्री ने लिखा है—‘‘सम्पूर्ण विश्व में विजय नगर जैसा साम्राज्य न देखा है और न सुना है। उसके चारों ओर सात दीवारें हैं। बाहर की दीवार के चारों ओर लगभग 50 गज की चौड़ाई और लगभग 10।। फुट की ऊंचाई के पत्थर लगे हैं जिससे नगर की सुरक्षा होती है और प्रहरियों की निगाह बचा कर कोई भी नगर में प्रवेश नहीं कर सकता। नगर के भीतर विभिन्न वस्तुओं के बाजार अलग-अलग स्थित हैं। हीरे-जवाहरात आदि बहुमूल्य चीजें खुले बाजार में स्वतंत्रतापूर्वक बिकती हैं। देश में अच्छी खेती होती है और जमीन उपजाऊ है।’’ एक दूसरे इटालियन यात्री ने विजय नगर साम्राज्य को सर्वाधिक शक्तिशाली और सम्पन्न राज्य कहा है।

इन सफलताओं को प्राप्त करने में लंबा समय लगा। विजय नगर राज्य की स्थापना के बाद उसकी स्थिति को सुदृढ़ बनाना तथा उद्देश्य का अगला चरण पूरा करना था जिसे दृढ़ता पूर्वक अमल में लाना था। विद्यारण्य के छोटे भाई सायण विद्वान होने के साथ-साथ एक योग्य सेनापति भी थे। सायण के नायकत्व में विजय नगर साम्राज्य की सेनाओं ने आसपास फैले मुगल साम्राज्य पर आक्रमण आरंभ किया। उस समय दिल्ली में मुहम्मद बिन तुगलक का शासन था जो पूर्वापेक्षा काफी अशक्त और क्षीण हो गया था। विजय नगर की सेनाओं ने अपने राज्य के समीपवर्ती कई क्षेत्रों को विदेशी दासता के चंगुल से मुक्त किया। इस अभियान के संचालक और मार्गदर्शक विद्यारण्य ही थे जिनके संबंध में कहा जाता है कि जिस प्रकार चाणक्य ने बिना तलवार उठाये नंद साम्राज्य का अंत किया और भारत का राष्ट्रीय स्वरूप प्रतिष्ठित किया, उसी प्रकार दक्षिण भारत में विद्यारण्य ने भी बिना शस्त्र ग्रहण किए भारतीय संस्कृति की विजय पताका पुनर्जीवन का कार्य सम्पन्न किया।

विजय नगर ने दक्षिण भारत के समुद्री तट पर अधिकांश भाग में स्वदेशी शासन की स्थापना कर ली थी। कोंकण तट, मालावार का समुद्री तट और कावेरी नदी सहित होयरक्ल राज्य भी विजय नगर साम्राज्य के अंग बन गए। कहा जाता है कि इस विजय अभियान के लिए ग्यारह लाख देशभक्त युवकों को सेना में भर्ती किया गया था। साम्राज्य का विस्तार इतना अधिक हो गया था कि उसकी सीमा के भीतर 300 बंदरगाह आते थे।

हरिहर बुक्काराय के शासन काल में वहां हिन्दू संस्कृति का पुनरुत्थान भी हुआ। प्राचीन मंदिरों का जीर्णोद्धार किया गया और जिनमें पूजा-आरती का क्रम बंद हो गया, वहां का वातावरण पुनः घंटा, घड़ियालों से निनादित होने लगा। जो मंदिर और देवालय विदेशी आक्रमणकारियों ने तुड़वा दिए थे उन्हें फिर से बनवा कर तैयार किया गया। गुरुकुल परम्परा तथा आश्रम व्यवस्था पुनः प्रचलित हुई। इन सब प्रवृत्तियों के पीछे विद्यारण्य का दिशा निर्देशन तथा शासकों की निष्ठा भावना थी। वहां की स्थिति का उल्लेख इतिहासकारों ने कुछ इस प्रकार किया—‘‘विजय नगर राज्य की स्थापना विदेशी शासकों के अनाचार, अत्याचार तथा सांस्कृतिक ध्वंसलीला के विरुद्ध एक समर्थ प्रतिरोधक शक्ति के रूप में हुआ था। प्रजा और राजा दोनों ही धर्मरत थे। अधिकांश लोग वैष्णव मत को मानने वाले थे फिर भी राज्य व्यवस्था किसी भी धर्मनिष्ठा में कोई हस्तक्षेप नहीं करती थी। यहां तक कि विधर्मियों के प्रति भी उदार नीति बरती जाती थी। राज्य की ओर से सभी धर्मावलंबियों के लिए समान व्यवहार किया जाता था।

भारतीय संस्कृति के नवोन्निमेष अभियान के दो चरण थे। पहला—राजनीति में स्वदेशभक्ति की प्रतिष्ठा और दूसरा—धर्मतंत्र को स्वस्थ तथा परिष्कृत रूप देना। माधवाचार्य के रूप में अब तक प्रथम चरण के लिए कार्यरत रहते हुए आरंभ की गयी परम्पराओं को भली भांति प्रचलित और सुदृढ़ देख आश्वस्त होकर माधवाचार्य दूसरे चरण के लिए संन्यासी हो गए। भारतीय धर्म दर्शन को नयी सामयिक दृष्टि देने के लिए संन्यास जीवन में माधवाचार्य विद्यारण्य के नाम से दीक्षित हुए।

उनका संन्यास किसी जंगल में बैठकर मौन एकांत साधना या आत्मकल्याण और व्यक्तिगत मोक्ष की प्राप्ति के लिए नहीं था वरन् वे तो इस देश में जनकल्याण और शिक्षण का प्रयोजन पूरा करना चाहते थे। एक कुटिया में रहते हुए उन्होंने अपने तपोनिष्ठ जीवन द्वारा सर्वसाधारण को धर्म और अध्यात्म के व्यवहारिक स्वरूप को समझाना आरंभ किया। उनकी प्रतिष्ठा और पांडित्य, विद्वता ने उनके उद्देश्य को व्यापक बना दिया। लोग उनके पास व्यक्तिगत समस्याओं से लेकर सार्वजनिक गुत्थियों का हल पूछने तक आया करते और वे यथाशक्य उनकी आशा अपेक्षाओं को पूरा करते।

संलाप चर्चा द्वारा वाणी के माध्यम से लोक शिक्षण करने के साथ उन्होंने महत्वपूर्ण ग्रंथों का प्रणयन भी किया उनकी लिखी हुई पाराशर माधवीय में हिंदू धर्म के आचार पक्ष और विचार पक्ष का बड़ा सुंदर विवेचन है। दक्षिण भारत के विद्वान इस ग्रंथ को अब भी ‘मनु-स्मृति’ के समतुल्य महत्व देते हैं। इस ग्रंथ के अतिरिक्त उन्होंने ‘जीवन्मुक्ति’, ‘विवेक पंचदशी’  और ‘जैमिनीय न्यायमाला’ नामक ग्रंथ भी लिखे जिन्हें भी धर्मशास्त्रों के समान लोकप्रियता प्राप्त है।

विजय नगर साम्राज्य सम्पूर्ण रूप से भारतीय धर्म और संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए उदित हुआ था अतः वहां संस्कृति की सभी मौलिक धाराओं धर्म, साहित्य, कला, संगीत, स्थापत्य आदि को प्रोत्साहित किया गया। इस राज्य के आरंभ काल में वेदों पर भाष्य भी लिखे गए और दर्शन ग्रंथ भी प्रणीत हुए। इन कार्यों में विद्यारण्य ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। माधवाचार्य ने सन् 1377 में विद्यारण्य के नाम से संन्यास ग्रहण किया था और फिर वे आजीवन इसी प्रकार लोकसेवा साधना में लगे रहे।

यद्यपि उन्होंने अब धर्मतंत्र के माध्यम से ही लोक सेवा का मार्ग अपना लिया था फिर भी राज्यकार्यों में आवश्यक परामर्श व मार्गदर्शन देते रहते थे। हरिहर बुक्काराय तथा अन्य बाद के शासक उनके महिमामंडित व्यक्तित्व से लाभ उठाने के लिए प्रायः उनकी कुटिया पर आया करते थे और उनसे राजनीतिक समस्याओं पर समाधान चर्चा किया करते थे। विद्यारण्य उन्हें समुचित मार्ग निर्देशन देते और राज्य संचालन की गुत्थियां सुलझाने में सहायता करते। उनके रहते विजय नगर साम्राज्य के सभी शासकों ने विद्यारण्य को राजगुरु के रूप में प्रतिष्ठित रखा। हरिहर प्रथम ने उन्हें अपने से भी ऊंचा आसन और सम्मान दिया था तथा वैदिक मार्ग प्रतिष्ठाता के सम्मानित सम्बोधन से सम्बोधित किया।

तत्कालीन सामाजिक परिवर्तन में विद्यारण्य का एक प्रमुख योगदान यह रहा कि उन्होंने संन्यास का संबंध सूत्र सीधे समाज से भी जोड़ा। प्रायः साधु-संन्यासी उस समय भी समाज से निरपेक्ष और विमुख रहकर लोगों की कोरी भक्ति और पूजा-पाठ का उपदेश दिया करते थे। विद्यारण्य ने अपने समय के कई विख्यात और लोकाद्रत साधु-महंतों को लोक सेवा के रचनात्मक कार्यों में लगाया। उनके समय के प्रख्यात वैष्णव भक्ति के प्रचारक वेदांत देशिक को समग्र भारतीय धर्म और अध्यात्म के पुनरुत्थान में नियोजित करने की घटना तो ऐतिहासिक है।

विद्यारण्य ने अपने समय में वाणी और लेखनी द्वारा ही नहीं व्यक्तित्व और कृतित्व द्वारा भी लोक नेतृत्व का जो आदर्श उपस्थित किया है, वह भारत के प्रथम राष्ट्र निर्माता चाणक्य का स्मरण दिला देता है। विजय नगर साम्राज्य की इतिहास में जितनी प्रशंसा होती है उसके पीछे आधार रूप में विद्यारण्य का ही व्यक्तित्व विद्यमान है।
(यु.नि.यो. नवंबर 1976 से संकलित)
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