भारतीय इतिहास में महाराज पुरु का बहुत सम्मान पूर्ण स्थान है। महाराज पुरु के सम्मान का कारण उनकी कोई दिग्विजय नहीं है। इतिहास में केवल एक यही ऐसा वीर पुरुष है, जिसने पराजित होने पर भी विजयी को पीछे हटने पर विवश कर दिया।
ईसा के पूर्व छठी शताब्दी में यूनान के सम्राट सिकंदर ने सिंहासनारूढ़ होते ही विश्व-विजय करने का विचार बनाया। यद्यपि सिकंदर के पास अपना देश था और उसके लिए आवश्यक न था कि वह किसी दूसरे देश पर आक्रमण करके उसे जीते, तथापि उसने अहंकार और लोभ के वशीभूत होकर विश्व-विजय की ठान ही ली।
सिकंदर ने प्रस्थान किया। नया उत्साह, नये साधन, महा विजेता एक विशाल वाहिनी लेकर चला, तो देश के देश उसे आत्म-समर्पण करने लगे। बिना लड़े अथवा थोड़ा लड़कर उसने यूनान से भारतीय सीमांत तक के सारे देश आन की आन में जीत लिए।
न जाने पराजित देशों के निवासी किस मिट्टी के बने थे कि दुश्मन से दो हाथ किए बिना ही अधीन बन गये। कर्तव्य तो उनका यह था कि जब उनके देश का एक-एक बच्चा कट-मर जाता, तब कहीं सिकंदर की सेना उस श्मशान से आगे बढ़ पाती, किंतु क्या कहा जाय, उन विचित्रों की मानसिक दुर्बलताओं को, जो वे भविष्य पर विचार किए बिना विलास और आलस्य की मृत्युदायिनी गोद में पड़े पलते रहे।
बिना किसी प्रयास के अनायास ही देश पर देश जीत लेने से सिकंदर के अहंकार का घट लवालव भर गया और उसे अपने विश्व-विजेता होने का भ्रामक स्वप्न उज्ज्वल से उज्ज्वलतर दिखाई देने लगा। वह आंधी की तरह बढ़ता आया और भारतीय सरहद पर अपना पड़ाव डाल दिया।
अपने जय अभियान के लिए यह महान यूनानी जितना लश्कर लेकर चला था, अब इस समय उसके पास उससे कहीं अधिक सेना हो गई थी। कारण स्पष्ट है कि जिन-जिन देशों को वह पराजित करता आया अथवा जिन-जिन देशों ने उसे आत्म-समर्पण किया, उनकी सेनाओं तथा साधनों को भी सिकंदर ने अपने लश्कर में शामिल कर लिया था। इस समय उसे अपनी शक्ति के अभिमान का भरपूर नशा था।
भारतीय सीमांत के समीप आते-आते सिकंदर को सिंध और झेलम के पानी से पैनी की गई तलवारों के जौहर आने-जाने वालों से सुनने को मिले थे। किंतु सिकंदर ने उन सत्य समाचारों को लोक-चर्चा से अधिक महत्व नहीं दिया। सिकंदर बढ़ता रहा और भारतीय वीरता के समाचार भी। किन्तु जब उस देशजयी को भारत की वीर गाथायें दोस्त और दुश्मन दोनों के मुंह से एक जैसी ही सुनने को मिलीं, तब उसके विजय-विश्वास में दरार पड़े बिना न रह सकीं और उसे आक्रमण करने से पूर्व विचार करने पर मजबूर होना पड़ा।
सिकंदर ने भारत की आंतरिक दशा का पता लगाने के लिए भेदिए भेजे जिन्होंने आकर समाचार दिया कि इसमें कोई संदेह नहीं कि वीरता भारतीयों की बपौती है, किंतु उनकी इस सारी विशेषताओं को एक नागिन घेरे हुए है, जिसे ‘फूट’ कहते हैं। इसी फूट रूपी नागिन के विष से भारतीयों की बुद्धि मूर्च्छित हो चुकी है, जिससे उनकी अनुशासनहीन शूरता और दंभपूर्ण स्वाभिमान अभिशाप बन चुका है। यदि सिकंदर भारत में प्रवेश चाहता है, तो उसे तलवार की अपेक्षा भारतीयों में फैली फूट की विष बेल से लाभ उठाना होगा।
साहस के पीछे हटते ही सिकंदर की भेद-नीति आगे बढ़ी। उसने और भी गहराई से पता लगाया कि इस समय भारत किसी एक छत्र सत्ता से अनुशासित नहीं है। अकेले पश्चिमोत्तर सीमांत, सिंध और पंजाब में ही सैकड़ों छोटे-छोटे राज्य हैं, जो सदियों से आपस में लड़ते-लड़ते जर्जर हो चुके हैं। इन प्रदेशों के सारे राजे एक दूसरे के प्राणांत शत्रु बने हुए हैं और एक दूसरे को हर मूल्य पर नीचा दिखाने के लिए कोई भी उपाय एवं अवसर का उपयोग करने को उद्यत बैठे हैं। भारत के सिंहद्वार के प्रहरी राजाओं के बीच शत्रुतापूर्ण अनैक्य के इन समाचारों ने सिकंदर के साहस को फिर बढ़ावा दिया और उसने अपना काम शुरू कर दिया।
राजनीति के चतुर खिलाड़ी सिकंदर ने शीघ्र ही उस तक्षक का पता लगा लिया, जो प्रोत्साहन पाकर भारत की स्वतंत्रता पर फन मार सकता है और वह था—तक्षशिला नरेश दंभी आम्भीक, जो अपने अकारण उपद्रव के कारण ‘महाराज पौरुष’ से बराबर हारकर विद्वेष विष से अंधा बन चुका था।
आम्भीक पुरु से लड़ने के लिए फिर सेना तैयार करने में जुटा हुआ था, जिसके लिए त्राहि त्राहि करती हुई प्रजा से बुरी तरह धन शोषण कर रहा था। सिकंदर ने अवसर का लाभ उठाया और लगभग पचास लाख रुपये की भेंट के साथ संदेश भेजा-यदि महाराज आम्भीक सिकंदर की मित्रता स्वीकार करें तो वह उन्हें पुरु को जीतने में मदद ही नहीं देगा, बल्कि पूरे भारत में उसकी दुंदुभी बजवा देगा। सिकंदर द्वारा भेजी हुई भेंट के साथ सम्मानपूर्ण संदेश पाकर द्वेषांध अम्भीक के होश हर्ष से बेहोश हो गए और वह देश के साथ विश्वासघात करके सिकंदर का स्वागत करने को तैयार हो गया। भारत के गौरवपूर्ण चंद-बिंब में एक कलंक बिंदु लग गया।
आम्भीक का निमंत्रण पाकर सिकंदर ने भारत पर आक्रमण किया। किन्तु भारत का भाग्य केवल आम्भीक पर ही तो निर्भर न था। जहां आम्भीक जैसे देशद्रोही थे, वहां अनेक देशभक्त राजा भी थे। उन्होंने सिकंदर का प्रतिरोध भी किया, किन्तु अलग-अलग अकेले, जिसके फलस्वरूप वे मिटते चले गए। जहां इन राजाओं में देशभक्ति की भावनाएं थीं, वहां एकता की बुद्धि का अभाव था। सिकंदर के विरोधी होने पर भी वे अपने आपसी विरोध को न भुला सके। किसी एक राष्ट्र के कर्णधारों में परस्पर प्रेम रहने से ही कल्याण की संभावनायें सुरक्षित रहा करती हैं, फिर भी यदि उनमें किसी कारण से मनोमालिन्य रहेगा, तब भी किसी संक्रामक समय में उन्हें आपसी भेदभाव मिटाकर एक संगठित शक्ति से ही संकट का सामना करना श्रेयस्कर होता है। अन्यथा आया हुआ संकट अलग-अलग सबको नष्ट कर देता है, यही बात सिकंदर के साथ लड़ाई में राजाओं के साथ हुई।
इधर सिकंदर विजयी हो रहा था और उधर दुष्ट आम्भीक की दुरभिसंधि से अनेक अन्य राजा देशद्रोही बनते जा रहे थे। काबुल का कोफ्रायस, पुष्कलावती का संजय, शशिगुप्त तथा अश्वजित आदि अनेक अभागे राजा सिकंदर की सहायता करते हुए उसकी विजयों में अपना भाग देखने लगे थे। जिसके फलस्वरूप पुरु को छोड़कर लगभग सारे राजा या तो हारकर मिट चुके थे अथवा देशद्रोह करके सिकंदर के झंडे के नीचे आ चुके थे।
अब भारत के प्रवेश द्वार पर, एकमात्र प्रहरी के रूप में केवल महाराज पुरु रह गए। अब प्रश्न यह उठता है कि महाराज पुरु महान देशभक्त होने पर भी अब तक के सिकंदरी युद्ध में तटस्थ रहकर लड़ाई क्यों देखते रहे? क्यों नहीं उन्होंने स्वतः ही नेतृत्व करके सारे राजाओं को संगठित करके सिकंदर का प्रतिरोध किया? महाराज पुरु ने प्रयत्न किया, किन्तु हीन राजमद के रोगी राजा पुरु की योजना में शामिल न हुए। कुछ तो स्वार्थ के वशीभूत होकर सिकंदर से मिल गए और कुछ ने पोरस का नेतृत्व स्वीकार करने की अपेक्षा सिकंदर से पृथक ही लड़कर मर जाना अच्छा समझा, ताकि श्रेय पुरु को न मिलकर उन्हें ही मिले। मनुष्य की यह संकीर्ण स्वार्थपरता सामूहिक जीवन के लिए सदा ही विघातक रही है।
सिकंदर कपिशा से तक्षशिला तक के बीच की अनेक स्वतंत्र जातियों की कटीली झाड़ियों से लहूलुहान होता हुआ तक्षशिला पहुंचा, जहां आम्भीक ने उसका बड़ा विशाल स्वागत किया। अभी तक सिकंदर कपिशा के आसपास ही रहा। अभिसार देश का महाराज पुरु का मित्र बना रहा। पर ज्यों ही सिकंदर तक्षशिला पहुंचा अभिसार नरेश को भीरुता का दौरा पड़ गया। कहना न होगा, जब कोई पापी किसी मर्यादा की रेखा उल्लंघन कर उदाहरण बन जाता है, तब अनेक को उसका उल्लंघन करने में अधिक संकोच नहीं रहता। तक्षशिला के राजा आम्भीक की देखा−देखी अभिसार नरेश भी सिकंदर से जा मिला, जिससे पोरस को बिल्कुल अकेला रह जाना पड़ा।
अभिसार नरेश से पोरस के साहस, वीरता तथा गौरवपूर्ण देशभक्ति के विषय में जानकर सिकंदर ने पुरु को इस आशय का संदेश भेजा कि यदि वह सिकंदर को बिना विरोध के आगे बढ़ जाने दे तो वह उसे अपना मिल मानकर सुरक्षित छोड़ देगा।
सिकंदर का यह मैत्री संदेश स्वाभिमानी पुरु के लिए युद्ध की खुली चुनौती थी। उसने सिकंदर को पंजाब में झेलम के किनारे ललकारा। घमासान युद्ध की संभावना से दोनों की सेनायें नदी के आर पार डट गई। झेलम के पूर्वी किनारे पर महाराज पुरु की थोड़ी सी सेना और उसके पश्चिमी तट पर देशद्रोही राजाओं की कुमुक के साथ सिकंदर का टिड्डी दल।
बरसात के दिन थे, झेलम बाढ़ पर थी, सिकंदर का साहस नदी पार करने को न पड़ा। लगभग एक सप्ताह बाद एक दिन जब घनघोर वर्षा हो रही थी और पुरु की सेना बराबर पड़ी हुई थी झेलम से लगभग आठ मील उत्तर में बढ़कर सिकंदर की सेना ने नदी पार करके पुरु की सेना पर आक्रमण कर दिया। सिकंदर के टिड्डी दल ने यद्यपि पुरु की थोड़ी सी सेना पर धोखे से आक्रमण किया था, तथापि पुरु के वीर सैनिकों की तलवारों ने उस अंधेरी में बिजली की तरह कौंध कर उसे पीछे हटा दिया।
इस आकस्मिक युद्ध में चार सैनिकों के साथ पुरु का पुत्र मारा गया, किन्तु खेत पुरु के हाथ ही रहा। सिकंदर ने पीछे हटकर फिर सेना बढ़ाई और और इधर पुरु ने बेटे का शोक किए बिना ही व्यूह रचना कर दी। हाथियों को आगे रखकर की गई व्यूह रचना के कारण महाराज पुरु की सीमित सेना भी सिकंदर की सेना को अजेय दुर्धर्ष दिखाई देने लगी। सिकंदर के बार-बार प्रेरणा एवं प्रोत्साहन देने से वह बढ़ी और टक्कर होते ही भाग खड़ी हुई। वह क्षण निकट ही था कि महाराज पुरु की विजय हो कि तब तक एक भारी विस्फोट होने से पुरु की सेना के हाथी भड़क गए और वे अपने सैनिकों को ही कुचलते हुए पीछे की ओर भाग खड़े हुए। पुरु का अजेय व्यूह अपने ही साधनों से नष्ट हो गया। सारी सेना तितर-बितर हो गई। अब क्या था? सिकंदर ने अवसर से लाभ उठाया और संपूर्ण शक्ति के साथ पुरु की अस्त-व्यस्त सेना पर धावा बोल दिया। शत्रु की ओर से असावधान, अपनी सेना की संभाल करे हुए पुरु शत्रुओं के तीरों से घायल होकर गिर पड़े।
अचेतनावस्था में गिरफ्तारी के बाद जब महाराज पुरु को होश आया, तब वे सिकंदर के सामने थे। सिकंदर ने हंसते हुए बड़े गर्व के साथ कहा-‘‘पोरस! बतलाओ कि अब तुम्हारे साथ किस प्रकार का व्यवहार किया जाय?’’
सिकंदर को विश्वास था कि इस समय असहाय होने पर पुरु गिड़गिड़ाकर यही कहेगा कि अब तो मैं आपका बंदी हूं, जिस प्रकार का व्यवहार चाहिए, करिये और सिकंदर उसे प्राणदान देकर आभार स्वरूप भारत-विजय करने में उसकी वीरता एवं रण-कुशलता का मन माना उपयोग करेगा, किन्तु उसका उत्तर सुनकर वह विश्व-विजय का स्वप्नदर्शी ग्रीक आकाश से जमीन पर गिर पड़ा।
महाराज पुरु ने स्वाभिमान पूर्वक सिर ऊंचा करके उत्तर दिया—‘‘सिकंदर, वह व्यवहार जो एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है।’’
सिकंदर निर्भीक पुरु का यह वीरोचित उत्तर सुनकर इतना प्रसन्न एवं प्रभावित हुआ कि उठकर उसके गले से लग गया।
भारतीयों की वीरता और महाराज पुरु की विकट मार से सिकंदर की सेना की हिम्मत हवा हो चुकी थी। सिकंदर अच्छी तरह जानता था कि यदि वह आगे बढ़ने का आदेश देगा तो उसकी भयभीत सेना अवश्य विद्रोह कर देगी, इसलिए वह महाराज पुरु पर ऐहसान रखता हुआ चुपचाप भारतीय सीमाओं से बाहर चला गया।
(यु.नि.यो. अक्टूबर 1975 से संकलित)