राजकवि चंद सरस्वती की साधना में तल्लीन थे। उनकी इस तल्लीनता को गुरु ‘राम’ के इन वचनों ने भंग किया—
‘‘कवि क्या छंदों के बंधों में ही उलझे रहोगे या लेखनी छोड़कर असिधारों की बात भी करोगे।’’
‘‘क्या हुआ गुरुदेव! कुछ खोल कर भी तो कहिए।’’
‘‘तुम्हें पता नहीं गजनी का सुल्तान फिर भारत विजय के स्वप्न देखने लगा है। वह अपनी विशाल वाहिनी लेकर प्रस्थान भी कर चुका है।’’
‘‘पता है। उस आंधी को रोकने का प्रबंध भी हो रहा है। आप चिंता न करें राय पिथौरा से चार-चार बार पराजित होने वाले शाहबुद्दीन को इस बात भी मुंह की खानी पड़ेगी।’’
‘‘लेकिन अबकी बार राय पिथोरा का शैन्य बल पहले का सा नहीं है। परमारों से युद्ध करने में हमारे बहुत से सैनिक काम आ चुके हैं। रही-सही शक्ति महारानी संयुक्ता के हरण में चली गयी। इस विवाह के पश्चात सम्राट पृथ्वीराज ने अपनी सैन्य व्यवस्था को सुदृढ़ करने की ओर भी ध्यान नहीं दिया है। वे तो नव-वधू के मोह पाश में बंधकर ही रह गए हैं।’’
‘‘आप ठीक कहते हैं गुरुदेव! सम्राट को अपनी वीरता पर आवश्यकता से अधिक ही गर्व हो चला है। पिछली विजयों ने तो उसे और भी बढ़ा दिया है किन्तु यह आक्रमण केवल दिल्ली पर ही तो नहीं हो रहा है। यह तो सारे आर्यावर्त पर हो रहा है। हमारी सभ्यता व संस्कृति पर हो रहा है। गौरी से अकेले राय पिथौरा ही लड़ने वाले नहीं हैं वरन् सारे उत्तरी भारत के राजा गण इस युद्ध में भाग लेने वाले हैं।’’
‘‘इस सबको एक सूत्र में बांधेगा कौन?’’
‘‘हम फिर किस लिए हैं। मैंने इस आशय के पत्र विश्वस्त दूतों के साथ सभी राजाओं के पास भिजवा दिए हैं कि यह समय आपसी बैर-भाव भुलाकर एक जुट होकर हमारे धर्म और संस्कृति पर आने वाली आंधी को रोकने में जुट जाना चाहिए नहीं तो ये बर्बर मलेच्छ हमारे देव मंदिरों को भग्न करके रहेंगे, हमारी श्यामल धरती को घोड़ों की टापों तले रौंद कर रख देंगे। हमारी मां-बहनों की लज्जा लूटेंगे। अतः समय रहते चेत जाना चाहिए।’’
‘‘यह तो तुमने बहुत अच्छा किया है कवि राजा।’’
‘‘यही नहीं कई राजाओं से तो उत्साहवर्द्धन समाचार भी प्राप्त हो गए हैं। ठेठ बंगाल के कई राजा अपनी सैन्य शक्ति के साथ इस युद्ध में भाग लेने के लिए प्रस्थान कर चुके हैं। मेवाड़ के रावल सार विक्रम अपने दस हजार रण बांकुर राजपूतों के साथ चित्तौड़गढ़ से दिल्ली के लिए प्रस्थान कर चुके हैं। ऐसे ही उत्साहवर्द्धक समाचार प्रतिदिन आ रहे हैं। गौरी के आर्यावर्त की सीमा में पांव रखने के पूर्व ही हम उसके आगे सुदृढ़ दीवार खड़ी कर देंगे, देश पर मर-मिटने वाले देशभक्तों की।’’
‘‘धन्य हो कवि! तुम निश्चय ही इस रत्न गर्भा धारित्री के लाड़ले सपूत रत्न हो।’’
‘‘ऐसा न कहें गुरुदेव! यह तो हमारा कर्तव्य है। यों दुर्भाग्य का रोना रोएं तो हजार विषय पड़े हैं। आज कैमास जैसे सुयोग्य मंत्री की कमी क्या नहीं खलती, जिसका महाराज ने जरा सी बात पर वध करवा दिया। कांगड़ा का सूबेदार हाहुली राय भी अपने अपमान को लेकर भरा बैठा है। सेनापति चामंड दाहिया अपने प्रिय सम्राट की आज्ञा शिरोधार्य कर लोह श्रृंखलाओं में जकड़ा बैठा है। वीरवर काका कन्य की आंखों पर पट्टियां बंधी हैं। किन्तु हमें निराशावादी नहीं बनना है। हम प्रयत्न करेंगे सब ठीक हो जायेगा। मैं कल ही हाहुली राय के पास स्वयं जाने वाला हूं। दल पंगुर जयचंद के पास भी मुझे ही जाना पड़ेगा उसे समझाने।’’
कांगड़ा के उपरिक हाहुली राय से मिलकर राजकवि चंद्र वरदायी को निराशा ही हाथ लगी। वह पहले से ही गौरी से मिल चुका था। यद्यपि उसने स्वयं अपने मुंह से ऐसी बात नहीं कही थी किन्तु अपने विश्वस्त सामंतों से उन्हें इस बात का पता चल गया था। उसने तो कवि को बंदी बना लिया था ताकि वह उसके इस देश द्रोह की सूचना अन्य नरेशों तक पहुंचा ही न सके किन्तु वे किसी प्रकार उसके जाल से निकलने में सफल हो गए थे।
पृथ्वीराज अपूर्व योद्धा व धनुर्धर होते हुए भी आवश्यकता से अधिक अभिमानी था। उसके इस अभिमान के कारण वह अपने सामंतों व सहयोगियों के महत्व को भुलाता जा रहा था। अपने को ही सब कुछ मान लेने के कारण वह कई भयंकर भूलें करता जा रहा था। कोई सहयोगी उसे इस संबंध में कुछ कहता तो वह उसके प्राणों का ग्राहक तक बन जाता था।
गौरी उसके राज्य पर आक्रमण करने के लिए चल पड़ा था फिर भी वह अपने मद में चूर राज्य कार्य की सुध भुला कर संयोगिता के विलास कक्ष में बंदी बना पड़ा था। किसी से मिलने की उसे चिंता नहीं थी। जो कोई मिलने आता उसके लिए बस यही एक आदेश था—‘‘नहीं मिल सकते।’’
यह तो उसका सौभाग्य था कि उसे चंद्र वरदायी जैसा सुयोग्य राज कवि, सखा तथा मिल मिला था, कैमास जैसा सुयोग्य व दूरदर्शी मंत्री मिला था, गुरु राम जैसा शुभचिंतक मार्गदर्शक तथा चामंड दाहिया व काका कन्य जैसे स्वामिभक्त योद्धा मिले थे। जिनके बल पर राय पिथौरा की सारे भरत में धाक थी। गजनी का सुल्तान उसके नाम से कांपता था।
कवि चंद्र कैमास की मृत्यु के उपरांत राज्य की सारी गतिविधियों का सूत्र संचालन कर रहे थे। वह परम उद्योगी देश भक्त पुरुष थे। सब कुछ वह निष्काम भाव से अपना कर्तव्य समझकर कर रहे थे। पृथ्वीराज से मिलने व गौरी के आक्रमण की सूचना देने के लिए वह तीन बार उसके पास गए किन्तु तीनों बार उसने अपने विलास कक्ष से बाहर निकलने का कष्ट भी नहीं किया। सेविका के हाथ कहला दिया—‘‘नहीं मिल सकते।’’
कांगड़ा से लौट कर भी चंद ने उससे मिलने का प्रयास किया पर वह सफल न हो सके। समय का मूल्य समझते हुए उन्होंने पृथ्वीराज तक अपनी बात पहुंचाने की अपेक्षा अपना दायित्व पूरा कर लेना ही उचित समझा। वह कन्नौज नरेश जयचंद के पास सहायता की भीख मांगने के लिए जा पहुंचे।
जयचंद तो पृथ्वीराज के नाम से ही चिढ़ा बैठा था। मौसेरा भाई होते हुए भी वह अपने मामा अनंगपाल के राज्य का उत्तराधिकारी स्वयं को मानते हुए पृथ्वीराज का बैरी बना हुआ था। अपनी पुत्री संयोगिता के स्वयंवर में पृथ्वीराज का अपमान करने के लिए उसने पृथ्वीराज की मूर्ति को द्वारपाल के स्थान पर प्रतिष्ठित किया। किन्तु छद्म वेश में पृथ्वीराज वहां उपस्थित था। संयोगिता ने उसके गले में जयमाला डाल दी और वह उसका हरण कर ले गया। इसी अपमान का बदला लेने के लिए उसने गौरी को निमंत्रण देकर बुलाया था।
इस दुर्बुद्धि को क्या कहा जाय? व्यक्तिगत अपमान के क्रोध में अंधा होकर उसने सारे देश पर संकट ला दिया था। अपने इस अविवेक के कारण आज भी उसका नाम घृणा के साथ लिया जाता है।
कवि चंद उससे व्यक्तिगत रूप से मिले, पृथ्वीराज के दूत के रूप में नहीं, उन्होंने उसे बहुतेरा समझाया कि दिल्ली की देहरी टूट जाने पर फिर मुस्लिम आक्रमण की आंधी को रोकना किसी के बस में नहीं होगा। यह पृथ्वीराज पर नहीं सारे भारत पर आक्रमण हो रहा है। राज्यों पर नहीं हमारे धर्म व संस्कृति पर आक्रमण हो रहा है। जिस प्रकार बंगाल और विंध्याचल प्रदेश तक के राजा अपने धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए एक होकर उस म्लेच्छ से लड़ने के लिए कटिबद्ध हो गए हैं, वैसे ही वह भी तैयार हो जाय।
कवि चंद्र की बातों का उस पर प्रभाव तो पड़ा किन्तु उसे भी पृथ्वीराज की तरह ही अपने सैन्यबल पर गर्व था। वह अकेला ही गौरी को दस बार हराने में अपने को सक्षम समझता था। अतः उसने युद्ध में पृथ्वीराज के साथ रहकर युद्ध करने से इंकार कर दिया।
समस्त उत्तरी भारत के राजाओं की अस्सी हजार से भी ऊपर सेना योगिनी पुर के पास शहाबुद्दीन का मुकाबला करने के लिए आ जुटी थीं। उनके प्रतिनिधि के रूप में चित्तौड़ के रावल समर विक्रम पृथ्वीराज के पास उसका सेनापतित्व ग्रहण करने का अनुरोध करने आ उपस्थित हुए। कवि चंद्रवरदायी ने उनका स्वागत किया। उन्होंने कवि से कहा—
‘‘सम्राट पृथ्वीराज के पास संदेश पहुंचा दीजिए कि योगिनीपुर के निकट अस्सी हजार सैनिकों की विशाल वाहिनी उनके नेतृत्व की प्रतीक्षा कर रही है।’’
‘‘यह संदेश हम दोनों को स्वयं उन तक पहुंचाना होगा।’’
वे समर विक्रम जी को साथ लेकर अंतःपुर की ड्योढी पर पहुंचे। भीतर खबर पहुंचायी। उत्तर मिला—‘‘अभी नहीं।’’
‘‘अभी नहीं तो कभी नहीं।’’—कवि ने यह कहते हुए एक दोहा उसके लिए लिख भेजा—
‘‘कग्गर अप्पह राज कर, मुंह जप्पह इंह बत्त ।
गौरी रत्तो तुअ धरनी, तू गौरी रस रत्त ।’’
(इस हास-विलास के लिए पूरा जीवन पड़ा है। गौरी की लोलुप दृष्टि तेरी मातृभूमि पर गढ़ी है और तू नारी के स्थूल सौंदर्य में मुग्ध हो अपने कर्तव्य से विमुख हो रहा है।)
पृथ्वीराज ने पत्र को पढ़ा तो लज्जा से उसका मुंह उतर गया। वह लपक कर बाहर आया। उसने दोनों से अपनी भूल की क्षमा मांगी और युद्ध की तैयारी में लग गया। चामंड की बेड़ियां कटवाने व काका कन्ह की आंखों की पट्टी खोल देने के आदेश देकर वह कवि चंद की ओर उन्मुख हुआ—
‘‘कवि राजा! तुमने निश्चय ही मुझे उबार लिया। मेरी इतनी उपेक्षा के बाद भी तुमने अपना उद्योग बंद नहीं किया। रावल जी ठेठ चित्तौड़ आए हैं अपने देश की रक्षा के लिए और मैं अभागा।’’
‘‘मैं ही नहीं उत्तरी भारत के कितने ही राजा अपनी सेनाओं सहित योगिनी पुर के निकट आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। अस्सी हजार के लगभग भारतीय वीर गौरी के दांत खट्टे करने के लिए वहां सन्नद्ध हैं। यह सब इन्हीं के प्रयासों का फल है।’’
‘‘अब तुम अपनी साहित्य साधना करो मित्र!’’
‘‘नहीं, मैं भी अपनी मातृभूमि का ऋण चुकाने आपके साथ युद्ध क्षेत्र में चल रहा हूं।’’
सम्राट पृथ्वीराज तथा महारावल समर विक्रम इस नर पुंगव को देखते ही रह गए जो इस नव जागरण का अकेला सूत्र संचालक था, जिसने निराशा में आशा के दीप जलाए थे।
(यु.नि.यो. जनवरी 1974 से संकलित)