भारत के विगत पंद्रह सौ वर्षों के इतिहास का एक मुख्य अंश विदेशियों के आक्रमण और भारतीयों द्वारा उनके समर्थ प्रतिरोध का इतिहास रहा है। यूनानियों के पश्चात और अंग्रेजों से पूर्व जितनी भी जातियां भारत पर चढ़ कर आयीं वे असभ्य, असंस्कृत और बर्बर थीं। यों स्वार्थपरता और हृदयहीनता में तो यूनानी व अंग्रेज भी कम नहीं थे पर उन्हें असभ्य नहीं कहा जा सकता। गुप्त काल के अंतिम यशस्वी सम्राट स्कंद गुप्त के समय में जिस बर्बर जाति ने भारत पर आक्रमण किया वह जाति बर्बरता में सर्वाधिक कुख्यात है। इस जाति का नाम था हूण।
मध्य एशिया से आने वाली यह बर्बर जाति एशिया के अनेकानेक देशों को टिड्डी दल की तरह चाटती हुई भारतवर्ष तक आ पहुंची थीं। यह शकों व कुषाणों से भी अधिक भयंकर थी। लाखों की संख्या में दल के दल हूण एशिया को रौंदते हुए चले आ रहे थे। एशिया ही नहीं इन्होंने यूरोप को भी रौंदा था। मध्य एशिया से इन लोगों ने दो दिशाओं में गमन किया था एक भारत की और तथा दूसरे यूरोप की ओर।
भारत में इस जाति को अपने पांव जमाने में सफलता नहीं मिल सकी। उन्हें उल्टे पांव भागना पड़ा अथवा बर्बरता त्यागकर सांस्कृतिक जीवन अपनाना पड़ा। सारे एशिया को रोंदने वाली इस बर्बर जाति को भारत से भगाने का श्रेय जिन दो पराक्रमी सम्राटों को है वे हैं सम्राट स्कंदगुप्त और यशोधर्मा।
सम्राट स्कंदगुप्त ने इस जाति की पहली बाढ़ को कुम्भा नदी के तीर पर ही रोक दिया। वर्षों तक वे वहीं अपनी सेना के साथ चट्टान की तरह अड़े रहे। हूणों को पराजित होकर भागना पड़ा।
कुछ समय बाद खिंखिल के नेतृत्व में ये लोग फिर आये। अब की बार भी रोक दिया। एक दो महीने नहीं पूरे सोलह वर्ष तक सम्राट स्कंदगुप्त अपनी सेना के साथ वहां डटे रहे। उनके जीते जी एक भी हूण भारत भूमि पर पांव नहीं रख सका। सोलह वर्ष तक सम्राट एक सामान्य सिपाही की तरह धरती पर सोते रहे। उन्हीं का सा साधारण भोजन करते रहे। ऐसा उदाहरण विश्व के इतिहास में अन्यत्र नहीं मिल सकेगा।
हूण टिड्डी दल की तरह दल बांध कर लाखों की संख्या में आते थे। लूटपाट, हत्या, मद्य, मांस भक्षण उनका स्वभाव था। पशुवत ही था उनका यह जीवन। हमारे देश का नाम सर्व प्रथम आर्यावर्त था। आर्य का अर्थ होता है श्रेष्ठ और सुसंस्कृत मनुष्य। हूण पूर्ण रूपेण अनार्य थे। आर्य देश पर चढ़ कर आने वाले इन अनार्यों को सम्राट स्कंदगुप्त के मरते ही भारत में घुस पड़ने का मार्ग मिल गया क्योंकि पीछे से मगध का साम्राज्य उन जैसे सुयोग्य शासक के हाथ में नहीं रहा।
वे लूटमार, अत्याचार, अनाचार, करते हुए आगे बढ़ते गए। तक्षशिला विश्वविद्यालय के विशाल पुस्तकालय को उन्होंने जलाकर खाक कर डाला। वे जंगली क्या समझते थे कि विद्या क्या है? ज्ञान क्या होता है? उनकी इस बर्बरता को रोकने की सामर्थ्य तत्कालीन मगध सम्राट में नहीं थी। भारतीय वीर रक्त का घूंट पीकर रह गए, पर क्या करते कोई नेता उठकर खड़ा नहीं हो रहा था। फिर भी एक वीर उठकर खड़ा हुआ। वसुंधरा भला कभी वीरों से खाली रही है। इस वीर का नाम था यशोधर्मा। ‘‘यथा नाम स्तथा गुणः’’ की उक्ति को सार्थक करने वाला।
मालव प्रदेश के एक छोटे से प्रदेश के अधिपति यशोधर्मा से यह देखा न गया कि उस देश में जहां कोई किसी की वस्तु की चोरी करना तो दूर छूना तक पाप मानता है, जहां घरों में ताले नहीं लगाये जाते, अपराध नाम मात्र को होते हैं, बर्बर और असभ्य हूण मनमाना अत्याचार करते रहे, हमारे देव मंदिरों और जनता को लूटते रहे, मातृशक्ति को अपमानित करते रहे तो यह जीवन फिर किस दिन काम आयेगा?
यशोधर्मा ने छोटे-छोटे राजाओं, जो मगध सम्राट को कमजोर देख स्वतंत्र हो गए थे, से अनुरोध किया कि वे हूणों की भारत भूमि से बाहर खदेड़ने में उसकी सहायता करें। नेता के उठ खड़े होते ही सहायक तो अपने आप जुटने लगे। देखते ही देखते एक विशाल सेना खड़ी हो गयी। यशोधर्मा छोटे से प्रदेश का अधिपति होते हुए भी भावनाओं और विचारों से महान था। उसकी अपनी कोई व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा इस संगठन के पीछे नहीं थी फिर ऐसे व्यक्ति को सहायक क्यों न मिलते।
भारतीय राजाओं की इस संगठित वाहिनी का नेतृत्व यशोधर्मा को सौंपा गया। इस वीर ने हूण नेता मिहिर कुल को पराजित कर उसे इस स्वर्ण भूमि से बाहर करने की प्रतिज्ञा की। सिंहों की इस संगठित सेना ने हूणों को जा घेरा।
दशपुर (वर्तमान मंदसौर) नामक स्थान पर घमासान युद्ध हुआ। भारतीय वीर जो अब तक असंगठित होने के कारण हूणों की नृशंस विनाश लीला देख रहे थे अब उसका गिन-गिन कर बदला चुकाने लगे थे। इन काल बने वीरवेश धारी भारतीयों की असि धारा की चमक के आगे हूणों के भाले फीके पड़ गए। देखते ही देखते उनका नेता मिहिर कुल बंदी बना लिया गया। उसकी बंदर सेना भाग खड़ी हुई। वह यशोधर्मा के पांवों में गिर कर प्राणों की भीख मांगने लगा। मगध के बौद्ध सम्राट को दया आ गयी। उसने यशोधर्मा से उसे प्राण दान देने का अनुरोध किया। मिहिर कुल को प्राण दान मिला पर बिना शर्त के नहीं। वह शर्त थी भारतीय प्रदेश खाली करके जाने की।
मिहिर कुल को तब तक बंदी रखा गया जब तक हूण लोग भारत की सीमा से बाहर नहीं निकल जाते। मिहिरकुल ने अपने सरदारों को हूणों को भारत भारतवर्ष से बाहर निकल जाने के लिए प्रेरित करने भेजा। हूण पहले ही दशपुर के समरांगण में भारतीय वीरों और उनके नेता यशोधर्मा का महाकाल रूप देख चुके थे। अब उनका यहां टिक पाना संभव नहीं था। अतः उन्होंने अपनी राह लेना ही उचित समझा।
हूणों को पराजित करने के कारण यशोधर्मा की यश पताका सारे देश में फहराने लगी। उज्जैन में उनका भव्य स्वागत किया गया। भारतीय राजाओं ने उन्हें अपना सम्राट मानकर उन्हें सम्राट विक्रमादित्य के सिंहासन पर आसीन किया वे उनके मांडलिक बने। सम्राट पद पाने के बाद भी वे उसके मोह से रहित ही रहे। एक बार फिर उन्होंने अपनी सेना सजाई और हूणों को मारकर भारत से बाहर निकाला। मिहिर कुल को उन्होंने ठेठ सिंधु के तट पर जाकर छोड़ा।
पराजित हूण नेता की गर्दन नीची झुक गयी। इस बर्बर जाति को इस देश में अपनी बर्बरता दिखाने का अवसर नहीं मिला। वे यहां से उल्टे पांव ऐसे भागे कि फिर इधर मुड़कर देखने का प्रयास नहीं किया। वीरवर सम्राट यशोधर्मा का यह यशस्वी कार्य उन्हें प्रातः स्मरणीय बना गया। अपने पुरुषार्थ पराक्रम और शक्ति का व्यक्तित्व परिधि से बाहर निकल कर सर्वहित के लिए समर्पण करना व्यक्ति को इतिहास पुरुष बनाने में समर्थ होता है। देश प्रेम, स्वतंत्रता की रक्षा, संस्कृति और धर्म के क्षरण को रोकने के लिए जिन जिन महापुरुषों ने भी बलिदान किए हैं वे भले ही स्थूल जीवन का आनंद अधिक समय तक तो न ले सके पर काल पर विजय प्राप्त कर महामानव बनने का श्रेय उन्हें ही प्राप्त होता रहा है।
(यु.नि.यो. अक्टूबर 1975 से संकलित)