भारतीय इतिहास के कीर्ति स्तम्भ- 1

सम्राट समुद्रगुप्त, साम्राज्य जिनके लिए साधन था साध्य नहीं

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सन् 335 के आस-पास मगध के सिंहासन पर चंद्रगुप्त प्रथम का पुत्र समुद्रगुप्त बैठा तो उसने बिखरे भारत को पुनः एक सुदृढ़ साम्राज्य के रूप में गठित करने का प्रयास आरंभ कर दिया। शुंग वंश के पतन के बाद आर्यावर्त में कोई सुदृढ़ साम्राज्य नहीं बचा था जो विदेशी आक्रमणों से इस देश और इसकी महान संस्कृति की रक्षा कर सके। जिसकी उस समय बहुत अधिक आवश्यकता थी।

समुद्रगुप्त जानता था कि भारतवर्ष की समृद्धि की चर्चाएं सुन-सुन कर विदेशियों के मुंह में पानी भर आता था। किन्तु अभी तक किसी की दाल यहां गल नहीं सकी थी। सिकंदर के पूर्व ईरान के बादशाह दारा ने भारत विजय का सपना देखा था वह साकार नहीं हो सका। सिकंदर को भी पंच नद प्रदेश से ही वापस लौट जाना पड़ा था। उसके सेना पति सेल्यूकस को सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य से हार कर अपमानजनक संधि करनी पड़ी थी। उसी प्रकार यूनानी आक्रमणकारी डेमेट्रियस और मिएंडर को भी पुष्यमित्र शुंग ने आर्यावर्त की सीमा को बाहर खदेड़ दिया था। यह सब संभव हुआ था एक सुदृढ़ सुगठित साम्राज्य के द्वारा।

समुद्रगुप्त ने इसी उद्देश्य से विजय अभियान चलाया कि वह बिखरे हुए देश को पुनः एक सूत्र में बांध सके। इसमें उसकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा नहीं थी वरन् उस समय को देखते हुए किसी भी विवेकशील और समर्थ व्यक्ति के लिए यह कार्य एक युग धर्म था और साम्राज्य अपने आप में कोई बुरी चीज नहीं होती। यह तो एक व्यवस्था है। अशोक के हाथ में इस व्यवस्था का सूत्र आया तो उसने कितना काम कर दिखाया। समुद्रगुप्त का भी ऐसा ही उद्देश्य था देश और संस्कृति की रक्षा के अपने पुरुषार्थ का सदुपयोग करते हुए एक सुदृढ़ विशाल और न्याय परक साम्राज्य व्यवस्था का गठन करना।

गुप्त साम्राज्य की स्थापना उसके पिता चंद्रगुप्त ने की थी पर उसे विस्तार दिया था समुद्रगुप्त ने। समुद्रगुप्त को भारत का ‘नेपोलियन’ भी कहा जाता है अपने इस महान उद्योग के कारण। उसने कई छोटे-छोटे राज्यों पर अधिकार करके मगध के साम्राज्य का विस्तार सारे भारत में किया। इससे उसकी वीरता और युद्ध कौशल का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।

बाल्यकाल में ही उसमें नेतृत्व और प्रबंध कौशल के गुण विकसित होने लगे थे। अतः उसके पिता ने सबसे छोटा होने पर भी उसे ही युवराज मनोनीत किया। अपने पिता की मृत्यु होने पर जब उसके हाथ में सत्ता आयी तो उसने दिग्विजय के लिए प्रयाण कर दिया। नौ उत्तर भारत के और अठारह वन्य राज्यों पर मगध का प्रभुत्व स्थापित करने के बाद उसने दक्षिण के बारह राज्यों को जीता।

समुद्रगुप्त किसी भी राजा को हरा कर उसका राज्य नहीं छीनता था वरन् उसे अपना करद राज्य बना लिया करता था। अधिपति वही राजा रहता था। पराजित होने पर भी वह उनके साथ समानता का व्यवहार करता था और अपने उस उद्देश्य को स्पष्ट रूप से समझा देता था जिसके कारण उसे यह कटु दायित्व निर्वाह करना पड़ रहा था। अपनी इस उदार नीति के कारण वह पराजित राजाओं का हृदय भी जीत लिया करता था। दक्षिण के सभी राज्य उसके करद राज्य थे।

दिग्विजय करने के पश्चात उसने अश्वमेध यज्ञ करके भारतीय सभ्यता और संस्कृति के नियमों में बंधा रहकर शासन सम्हालने की शपथ ग्रहण की। संघर्ष के बाद सृजन और शांति के सद्प्रयासों का शुभारंभ भी इस यज्ञ के पश्चात आरंभ हो गया था। यज्ञ के अवसर पर लोक सेवा में रत समाज सेवियों को, गरीबों और असहायों को सम्राट समुद्रगुप्त ने मुक्त हस्त दान दिया।

समुद्रगुप्त की दिग्विजय कोई व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से प्रेरित सनक नहीं थी। उसका उद्देश्य था नागरिकों को सुरक्षा और सुशासन देना, धर्म, संस्कृति साहित्य और कला की उन्नति करना। समुद्रगुप्त स्वयं कला प्रेमी था। वह वीणा वादन का सिद्ध हस्त कलाकार माना जाता था अपने समय में। उसकी सभा में साहित्यकारों और कलाकारों को अपूर्व सम्मान दिया जाता था।

गुप्त काल हमारी सभ्यता और संस्कृति का स्वर्ण काल कहा जाता है। इसका कारण गुप्त वंशीय सम्राटों की वह उच्च और सर्वजन हितकारी नीति थी जिसकी परम्परा सम्राट समुद्रगुप्त ने डाली थी। उस समय धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, नैतिक सभी पक्षों में आदर्श प्रगति हुई। उसका बहुत कुछ श्रेय उन राजाओं को दिया जा सकता है।

व्यक्ति का क्रिया-कलाप उसके साथ जुड़े हुए उद्देश्य से ही भला-बुरा ठहराया जा सकता है। यों तो राजा कई हुए हैं, कई वंशों की सल्तनतें रही हैं पर जो नैतिक और सामाजिक आदर्श व्यवस्था गुप्त काल में थी वह स्पृहणीय थी। कहना न होगा कि राजा भी धर्म परायणी, नीतिवादी, उदारशील और संस्कारवान होते थे। प्रजा भी उनका अनुकरण करके वैसी ही बनती थी। इसी कारण यह कहावत आज तक प्रचलित है—यथा राजा तथा प्रजा।

समुद्रगुप्त स्वयं वैदिक मत के मानने वाले थे पर धार्मिक संकीर्णता का लेश मात्र अंश भी उनके हृदय में नहीं था। वे सभी धर्मों का आदर करते थे। उन्होंने गया के बौद्धों के लिए बिहार बनवाया था। वसुबंधु नामक बौद्ध विद्वान को उनकी तरफ से राज्याश्रय मिला हुआ था। राज्य और राजा की तरफ से किसी भी धर्मावलंबी के साथ भेदभाव नहीं बरता जाता था। यह उनकी उदारता का ही परिचायक था।

महान विजेता और सेना नायक के रूप में तो वे प्रसिद्ध हैं ही उससे भी अधिक वे सुराज्य संस्थापक थे। विजय यात्रा और सैन्य संचालन कौशल तो उनके लिए साधन मात्र था, साध्य था एक ऐसे शासन की स्थापना करना जहां सभी को आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त हो सके और वे अपने इस उद्देश्य को पूर्ण करने में सफल हुए थे। चालीस वर्ष तक उन्होंने मगध के विशाल साम्राज्य का सूत्र संचालन धर्म और नीति से किया। यह उनकी महानता ही मानी जायगी। प्रभुता का नशा व्यक्ति को पथ भ्रष्ट करने से चूकता नहीं है। पर वे इस नशे के प्रभाव में आये ही नहीं वे स्वयं को प्रजा का, देश का एक सेवक भर समझते रहे।

आज जब सुनते हैं कि उस समय लोग अपने घरों में ताले नहीं लगाया करते थे, चोरी की वारदातें नहीं के बराबर होती थी। धार्मिक विद्वेष कहीं देखने को नहीं मिलता था। लोग अभक्ष्य भक्षण से अत्यधिक सावधान रहते थे। उस समय के लोग कितने सामाजिक थे इसका परिचय इसी बात से लग जाता है कि उस समय कोई भी प्याज और लहसुन भी व्यवहार में नहीं लाता था। इस प्रकार के गंधयुक्त पदार्थ कोई अपने घर में पकाए और उसकी गंध से दूसरों को असुविधा हो इसलिए कोई भी इनका प्रयोग नहीं करता था। मांस भक्षण सर्वथा त्याज्य समझा जाता था। यह सम्राट समुद्रगुप्त के काल में हुए सांस्कृतिक व नैतिक अभ्युदय का ही सुपरिणाम था।

सम्राट समुद्रगुप्त ने विदेशी सम्राटों से दौत्य संबंध स्थापित करके अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में शांति वह सह अस्तित्व स्थापित करने का प्रयास किया था। 375 ई. में इस महान विजेता, सेना नायक और सुशासक की मृत्यु हुई। एक तंत्र में भी यदि शासक उच्च दृष्टि रखे तो समाज कितना लाभान्वित होता है। लोकतंत्र में भी वैसी ही दृष्टि में रखी जाय तो जो क्या हो जाये।

(यु.नि.यो. अप्रैल 1977 से संकलित)

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