भारत धन, धान्य और स्वर्ण से भरा-पूरा देश है। इस तथ्य से परिचित हो यहां की सुख, समृद्धि पर डाका डालने के लिए क्रमशः यूनानी, शक, हूण, पार्थियन, मुसलमान और अंग्रेज आए। सदियों तक भारत मां के लाड़ले सपूत अपने देश की, अपने धर्म की, अपनी संस्कृति और जातीय स्वाभिमान की रक्षा के लिए इन स्वार्थी बर्बरों से लोहा लेते रहे।
धन और धरती तो शूरों की होती है। नर-रत्न गर्भा मां भारती की कोख से ऐसे कितने ही सपूत उपजे थे जिन्होंने इसकी विदेशियों की रक्षा करने के लिए महान उद्योग और प्रबल पुरुषार्थ किया। विक्रमादित्य हेमू उन्हीं नर पुंगवों में से एक थे जिन्होंने समय की पुकार पर अपने धर्म, कर्तव्य को निभाया।
अपने को अमीर तैमूर का वंशज कहने वाला राज्य लिप्सु, धन लिप्सु बाबर भी भारत के वैभव की कहानियां सुनकर भारत आया। तैमूर स्वयं एक लुटेरा था उसका वंशज क्या उससे कम होता? दिल्ली पर उन दिनों सिकंदर लोदी नामक बादशाह राज्य करता था। यह बाबर के सामने टिक नहीं सका। पानीपत के मैदान में उसे करारी हार मिली। मेवाड़ पर उन दिनों प्रतापी हिन्दू राजा महाराणा सांगा राज्य करते थे। उन्होंने ठेठ फतेहपुर सीकरी के पास खानवा के मैदान में जाकर बाबर नामक आंधी को रोका। महाराण सांगा के आह्वान पर कितने ही राजपूत राजा एकत्र होकर राष्ट्र की रक्षा के लिए खानवा के मैदान में जा डटे। बाबर के पास नयी किस्म के अस्त्र-तोपें व बंदूकें, जो दूर से मार सकती थीं, होते हुए भी उसकी सेना राजपूतों के आगे टिक न सकीं और भाग खड़ी हुईं। भागती हुई सेना का पीछा करना भारतीय वीरों ने उचित नहीं समझा, वे विजयोत्सव मनाने लगे। किन्तु बाबर अपने सपनों को यों चूर-चूर नहीं होने देना चाहता था। वह अपने लुटेरे साथियों को पुनः संगठित कर असावधान राजपूतों पर चढ़ बैठा। वे बड़ी वीरता से लड़े पर व्यूह रचना टूट जाने से उनकी पराजय हुई। पर बाबर भी उससे आगे बढ़ने की हिम्मत न कर सका।
महाराणा सांगा युद्ध में बुरी तरह घायल हुए। वे स्वस्थ होकर इस पराजय के कलंक को धोने की तैयारी में लगे पर वे इस युद्ध के कुछ समय बाद ही दिवंगत हो गए। उनका पुत्र उदय सिंह उनकी तरह पराक्रमी नहीं निकला कि उस पराजय का बदला चुकाता।
ऐसे विकट समय में जब चारों ओर अंधकार छाया हुआ था कोई क्षत्रिय राजा ऐसा नजर नहीं आता था जो कि बाबर अथवा उसके वंश को पुनः पराजित करके उस अपमान का बदला चुकाता व पुनः हिन्दू राज्य की स्थापना करके सुशासन स्थापित करता। समय के इस धर्म को, चुनौती को जिस व्यक्ति ने स्वीकारा था वह था हेमू—हेमचंद्र, जिसकी सात पुश्त तो क्या पूरे वंश में किसी ने तलवार को हाथ नहीं लगाया था। वाणिक पुत्र हेमू के पुरखे वैश्य थे। व्यापार करना और धन की वृद्धि करना, हिसाब-किताब रखना यही थे उनके कर्म। युद्ध क्या होता है, विजय कैसे मिलती है और पराजय क्या होती है उन्हें पता ही न था। पर हेमू भला चुप कैसे बैठता।
उसके पुरखों ने काफी धन सम्पदा एकत्र कर रखी थी। वे दिल्ली सम्राट के मुख्य कोषाधिकारी हुआ करते थे। हेमू भी दिल्ली दरबार में प्रधानमंत्री रह चुके थे। उन्होंने मुगलों को भारत से मार भगाने का निश्चय कर लिया। अनेकों छोटे-छोटे हिन्दू राजाओं ने उनका परिचय था। संगठन की शक्ति से तो वे परिचित थे ही। अपनी सारी सम्पदा को उन्होंने देश की स्वाधीनता के लिए अर्पित करके अपनी एक सैना तैयार कर ली। छोटे-छोटे राजाओं को मिला अपने भगवा झंडे तले आकर विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंकने की तैयारी कर ली।
विदेशी आक्रमणकारी बाबर अधिक समय तक जीवित नहीं रहा। उसकी मृत्यु के उपरांत उसके पुत्रों में राज्य प्राप्ति के लिए संघर्ष चला। चलता क्यों नहीं स्वार्थी और लुटेरों के वंशजों से और आशा ही क्या की जा सकती थी। भाइयों की हत्या करके और पिता को बंदी गृह में डालकर राज्य करने की परम्पराएं इसी वंश में चलती रही थीं। बाबर का पुत्र हुमायूं उसकी तरह वीर नहीं था। उसके भाई कामरान ने उससे विद्रोह किया। गृह कलह के कारण उसे ईरान भाग जाना पड़ा।
इस स्थिति को अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उपयुक्त जान हेमू ने अपनी शक्ति और संगठन की गतिविधियां और तेज कर दीं। देखते ही देखते उसके पास एक विशाल सेना संगठित हो गयी। हेमू ने अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को पूरी करने के लिए वैश्य धर्म से क्षत्रिय धर्म अंगीकार कर सैन्य संगठित नहीं की थी वरन् मुगलों को भारत से बाहर निकालने के ध्येय की पूर्ति के लिए ऐसा किया था। अतः उन्हें सहयोगियों की कमी नहीं रही।
अवसर हाथ लगते ही उन्होंने दिल्ली पर धावा बोल दिया। उनकी विजय हुई। दिल्ली का सिंहासन पुनः भारतीय राजा के हाथ में आ गया। उस पर भगवा रंग की धर्म ध्वजा फहराने लगी। यह वह समय था जब शेरशाह सूरी का पतन हो चुका था। हुमायूं की मृत्यु हो चुकी थी। उसका पुत्र अकबर बैरमखां के संरक्षण में बड़ा हो रहा था।
दिल्ली को हस्तगत कर लेने पर हिन्दू राजाओं ने अपने इस वीर नायक को ही सम्राट माल लिया। वे उसके मांडलिक बने। हेमू को ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि से विभूषित किया गया। दिल्ली से आगरा तक का प्रदेश अब उनके अधिकार में आ चुका था। वहां से मुगल सेना भाग खड़ी हुई थी।
हेमू ने सिंहासन पर बैठकर राज्य को सुव्यवस्थित किया। थोड़े वर्षों के ही सही पर इस सुशासन में प्रजा ने अनुभव किया कि विदेशी शासकों से यह स्वदेशी शासन हजार गुना अच्छा था। हमारे देश का इतिहास व्यक्तिगत महानता की दृष्टि से तो बड़ा ऊंचा ठहरता है पर जहां राष्ट्रीयता की भावना और जनसामान्य की बात है इस दृष्टि से भारत वासी कमजोर ही रहे हैं। राणा सांगा के बाद जिस प्रकार हेमू ने राजाओं को संगठित कर एक स्वदेशी शक्ति कठिन की वह उनकी मृत्यु के बाद स्थिर न रह सकी।
‘विक्रमादित्य’ हेमू ने अपने छोटे से जीवन काल में पंद्रह से अधिक लड़ाइयां लड़ीं। उन्होंने निर्णायक युद्ध पानीपत के मैदान में अकबर से लड़ा। अकबर बड़ी विकट स्थितियों में पलकर बड़ा हुआ था। उसे पढ़ने का अवसर भी नहीं मिला था। इसका कारण हेमू द्वारा मुगलों का दिल्ली से आधिपत्य समाप्त कर देना था। सच पूछा जाय तो ये विदेशी बर्बर राज्य लिप्सु अपनी वीरता के बल पर भारतीयों से नहीं जीते थे वरन् इनकी बर्बरता व धोखेबाजी से ही उन्होंने वीर भारतीयों पर अल्पकाल के लिए आधिपत्य भर जमाने में सफलता प्राप्त की थी। पानीपत के युद्ध में विक्रमादित्य हेमू काम आए। सेनापति के मरते ही सेना में भगदड़ मच गयी इस कारण अकबर जीत गया और वह दिल्ली का बादशाह बना।
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*समाप्त*