ब्राह्मण पुष्य मित्र ने सुना—‘‘दिमित्र यवन अपनी विशाल वाहिनी लेकर पाटलिपुत्र की ओर चल पड़ा है। उसे यहां पहुंचने में एक सप्ताह से अधिक न लगेगा। दिमित्र सिकंदर के अधूरे सपने को पूरा करने आ रहा है और इधर पाटलिपुत्र को अरक्षित छोड़कर मौर्य सम्राट वृहद्रथ अपनी जान बचाकर भागने की चिंता में हैं।’’
पुष्य मित्र में आगे सुनने की हिम्मत न थी इतना ही उसके सोये क्षात्र धर्म को जगाने के लिए पर्याप्त था। उसने ब्राह्मण होते हुए भी आपातकालीन धर्म के रूप में क्षत्रिय धर्म स्वीकार करने का निश्चय किया। उसे यह स्वीकार न था कि यवन उसके देव मंदिरों को भ्रष्ट करें तथा मातृभूमि को अपने घोड़ों की टापों तले रोंदे और वह घर में बैठा हुआ अग्निहोत्र ही करता रहे।
उसने भूतपूर्व महामात्य शंकु से विचार-विमर्श किया। महामात्य ने स्वीकार किया—‘‘अब मौर्य साम्राज्य पतनोन्मुख हो चला है। सम्राट अशोक के बाद उनके पुत्रों ने विशाल साम्राज्य के चार भाग करके बांट लिए मैंने उस समय विरोध किया था तभी मुझे महामात्य पद से हटना पड़ा था। अब न तो उतनी सेना ही राज्य को पास है और न योग्य सेनापति ही है।’’
पुष्य मित्र ने कहा—‘‘यह आप जो कह रहे हैं ठीक है पर क्या हम अपनी आंखों के सामने इसे पद दलित होते देख सकेंगे। अभी तो समय है, कुछ कर भी सकते हैं। इसीलिए मैंने आपातकालीन धर्म के रूप में खड्ग पकड़ ली है। हमें मिलकर कुछ उपाय करना चाहिए।
शंकु सहमत हो गया। वृद्ध महामात्य तथा पुष्य मित्र ने अपनी योजना बनाली है। जहां अकर्मण्यता होगी वहीं पतन अपने पांव फैलाता है पर जहां कर्म करने को कोई संकल्प लेकर प्रस्तुत होता है, तो सहायक मिल ही जाते हैं। अकर्मण्य सम्राट वृहद्रथ से सेना भी प्रसन्न नहीं थी। महामात्य शंकु का कई गुल्म नायकों पर अब भी प्रभाव था उनकी एक गोष्ठी आयोजित की गई।
पुष्य मित्र ने उन्हें उद्बोधन दिया—‘‘मौर्य वाहिनी के वीरो! तुम्हें स्मरण होगा इसी पाटलिपुत्र के सम्राट ने सेल्यूकस का मानमर्दन करके उससे अपमानजनक संधि कराई थी। इन्हीं वीरों ने सारे भारत को सम्राट अशोक के नेतृत्व में एक सूत्र में पिरोया था।
तुम्हें पता होगा दिमित्र पाटलिपुत्र विजय करने आ रहा है और हमारे सम्राट को अपने विलास-कक्ष से बाहर निकलने का समय नहीं।
बोले! क्या तुम अपने जीते जी इस भूमि को पद दलित होने दोगे।
‘‘कदापि नहीं, कदापि नहीं।’’
‘‘मुझे तुमसे यही आशा थी।’’
इसी प्रकार का उद्बोधन नागरिकों को भी दिया गया।
‘‘पाटलिपुत्र के नागरिको! आपको ज्ञात होगा कि दिमित्र यवन पाटलिपुत्र पर आक्रमण करने आ रहा है। क्या आप इसके गौरव की रक्षा को तन, मन, धन देकर बचाने का प्रयास नहीं करेंगे! अवश्य करेंगे!! एक समवेत स्वर गूंजा। ‘‘कल सब सम्राट के सम्मुख उपस्थित होंगे वहां निर्णय होगा’’—पुष्यमित्र ने कहा।
दूसरे दिन। सम्राट के दर्शनों के लिए प्रजा एकत्रित हो चुकी थी पर उन्हें यवन दासियों से पांव दबवाने से फुर्सत नहीं थी। पुष्यमित्र ने परिचारिका को कहा—‘‘सम्राट से निवेदन करो प्रजा आपके दर्शन चाहती है।’’
बड़ी देर में सम्राट पधारे। ‘‘सम्राट वृहद्रथ की जय’’-प्रजा ने जयकार की।
‘‘आप लोगों को कोई कष्ट है? हम सम्राट हैं, कहो?’’
‘‘सम्राट, मैं पुष्य मित्र शुंग पाटलिपुत्र की प्रजा के सेवक के रूप में श्रीमान से निवेदन करना चाहता हूं कि पाटलिपुत्र के नागरिक अपने आप को अरक्षित अनुभव कर रहे हैं। श्रेष्ठिजन नगर छोड़कर जा रहे हैं। सारे नगर में भय की लहर छाई है।’’
‘‘इसका कारण?’’-सम्राट ने पूछा।
‘‘यवन दिमित्र का आक्रमण।’’
‘‘तो इसमें भय करने की क्या बात है। हम अहिंसा के पुजारी हैं, व्यर्थ का रक्तपात हमें पसंद नहीं। हम राज्य उन्हें दे देंगे।’’ सम्राट बोले।
‘‘प्रजा पूछती है कि क्या आज तक यही हमारी परम्परा रही है? यवन नगर को बिना लूटे छोड़ देंगे? हमारे देव मंदिरों को नहीं तोड़ेंगे?’’-पुष्य मित्र ने कहा।
‘‘तो मैं क्या करूं? प्रजा क्या चाहती है?’’
‘‘प्रजा युद्ध चाहती है सम्राट!’’
‘‘हमारी सेना पूरी यहां है नहीं, आने में काफी समय लगेगा, तब तक पाटलिपुत्र की रक्षा असंभव है।’’-सम्राट बोले।
‘‘प्रजा मान सहित मरना पसंद करती है सम्राट। प्रजा ही सेना की तरह लड़ेगी। मैं इसका सेनापतित्व करूंगा। यही प्रजा पाटलिपुत्र का गौरव अक्षुण्ण रखेगी’’-पुष्य मित्र ने कहा।
सम्राट का पतनोन्मुख जीवन उन्हें खोखला बना चुका था वे पुष्य मित्र के व्यक्तित्व के आगे ठहर न सके। ‘‘मैं तुम्हें सेनापति के समस्त अधिकार सौंपता हूं।
सम्राट ने कहा—‘‘सेनापति पुष्य मित्र की जाय’’ के जयघोष से पाटलिपुत्र में नव जीवन आ गया।
पुष्य मित्र ने बाहर गई सेना को बुलाने विश्वस्त सैनिक भेज दिए। सम्राट तथा उनका महामात्य महलों में ही नजरबंद कर दिए गए। सैनिकों को इकट्ठा करके नगर के प्राचीरों पर पहरा आरंभ करवा दिया।
धनिकों ने धन दिया, युवक सैनिक प्रशिक्षण पाने लगे महिलाओं ने रसद व गर्म पानी तथा पत्थरों की व्यवस्था जुटानी आरंभ कर दी। कल का अरक्षित पाटलिपुत्र आज गौरव से सिर उठाकर खड़ा हो गया।
यवन सेना ने आकर दुर्ग घेर लिया। दुर्ग के चारों ओर खाई में पानी भरा था। जो भी तैर कर प्राचीर पर चढ़ने का प्रयास करता, उस पर वह मार पड़ती कि भागता ही नजर आता। यवनों के तीर प्राचीर तक पहुंच नहीं पाते थे। प्राचीर पर से बरसाये तीर गजब ढा रहे थे।
यवनों की आधी सेना समाप्त हो गई। दिमित्र के सपने चूर-चूर होने लगे। उसने रात्रि में दूर एक नावों का बेड़ा बांधा, दिन में उसे गंगा के पानी में खाई तक ले आया। एक सैनिक को इसकी भनक पड़ गई। उसने पुष्य मित्र को इसकी सूचना दी। यदि वे इसमें सफल हो जाते तो फिर उनका प्राचीर पर चढ़ना सरल था।
उसने अपने पुत्र अग्नि मित्र के साथ पंद्रह गिने हुए सैनिक गुप्त रास्ते से खाई में प्रविष्ट करा दिए वे अंदर ही अंदर बेड़े तक जा पहुंचे और सब नावें बहा आए। इस जोखिम भरे काम को इन वीरों ने इस कुशलता से किया कि यवन जान भी न सके।
दूसरे दिन मगध की बाहर गई सेना वापस आ चुकी थी। यवन दो पाटों के बीच फंस गए। जब उनके योद्धा कट-कट कर गिरने लगे तो सेना में खलबली मच गई। दिमित्र सिर पर पांव रखकर भागता नजर आया।
पुष्य मित्र के परिश्रम और साहस से पाटलिपुत्र का सम्मान अक्षुण्ण रह गया। नागरिकों ने पुष्य मित्र को ही वहां का सम्राट चुन लिया। उसने अपने दायित्व को बड़ी कुशलता से निभाया।
पुष्य मित्र शुंग की भूमिका प्रस्तुत करने के लिए आज भी समय जागृत आत्माओं को युग धर्म पालन के लिए पुकार रहा है।
(यु.नि.यो. अगस्त 1972 से संकलित)