बालक विष्णुगुप्त ने मां को रोते हुए देखा तो बहुत चिंतित हो उठा। विष्णुगुप्त के लिए इस संसार में अपना कोई था तो मां और उस वृद्धा के लिए कोई था जिसे वह अपने बुढ़ापे का सहारा कह सके तो विष्णु गुप्त। इसलिए बालक का चिंतित हो उठना स्वाभाविक था। उसने पूछा—‘‘मां! तुम क्यों रो रही हो।’’
‘‘रोऊं नहीं तो क्या करूं बेटा!’’—मां ने कहा—‘‘तुम्हारा भाग्य बहुत बड़ा है। भारतवर्ष के शासन की बागडोर तुम्हारे हाथों में आने वाली है।’’
इसमें रोने की क्या बात है। बल्कि यह तो एक मातृ हृदय के लिए बड़ी प्रसन्नता की बात हो सकती है। विष्णुगुप्त को मां के रोने का कोई कारण समझ में नहीं आया। तो पूछ ही लिया उसने—‘‘इसमें रोने की क्या बात है मां! तुम्हें तो खुश होना चाहिए।’’
‘‘रो इसलिए रही हूं बेटा कि’’-वृद्धा ने बड़े भोलेपन से दूरदर्शिता का परिचय देते हुए कहा—‘‘देखा गया है जो पुत्र बड़ा आदमी बन जाता है वह अपनों को भूल जाया करता है। मुझे चिंता लग रही है कि इस प्रकार तुम भी मुझे भूल जाओगे तो मैं कैसे जिंदा रहूंगी।’’
अब कारण समझ में आ गया। हालांकि यह प्रसंग हास्यास्पद है परंतु मां और पुत्र के प्रेम और श्रद्धा का जो परिचय इस घटना से मिलता है वह अन्यत्र कहीं दुर्लभ है। मां की बात को समझकर विष्णुगुप्त के बाल मस्तिष्क में एक प्रश्नचिह्न उभरा—किस आधार पर यह माना जा सकता है कि मैं आगे चलकर भारत का शासन सूत्र संभालूंगा और अपनी मां को भूल जाऊंगा। पूछा उसने-‘‘मां! तुमसे किसने कहा कि मैं राजा बनूंगा।’’
उसी तरह बिसुरते हुए वृद्धा बोली-‘‘तुम्हारे ये जो आगे के दो दांत हैं न, इन पर बने चिह्न तुम्हारे भविष्य के संबंध में यह बात कह रहे हैं।’’
विष्णुगुप्त वस्तु तथ्य से अवगत होकर तुरंत एक निर्णय पर पहुंचा और उठकर बाहर चला गया। कहीं से ढूंढ़कर एक पत्थर ले आया वह और मां के सामने बैठ गया। मां को कुछ समझ में नहीं आया कि वह क्या करने जा रहा है। वह कुछ समझ सके इसके पूर्व ही विष्णुगुप्त ने लाये पत्थर से अपने ही हाथों द्वारा दांतों पर प्रहार कर लिया। दो चार प्रहार में ही दांत टूट गए, खून बहने लगा आगे के दांतों से। फिर वह बोला-‘‘बस न मां! अब तो तुम्हारी चिंता दूर हो गयी।’’
छाती से लगा लिया वृद्धा ने अपने लाड़ले को और गद्गद् कंठ से कहने लगी—‘‘पगले, मैंने दांत तोड़ने के लिए कहा था क्या तुझसे। वह कुछ कह नहीं पा रही थी और न ही विष्णुगुप्त के मुंह से कोई शब्द निकल पा रहे थे। दोनों भावनात्मक अनुभूति के उस तल पर पहुंच गए थे जहां शरीर का कोई भी अंग अपनी बात कहने में असमर्थ हो जाता है और हृदय से हृदय ही बातें कर पाता है।’’
उत्तर भारत के सीमांत प्रदेश में जहां आजकल पाकिस्तान है-रावलपिंडी से भी आगे तब एक सुंदर नगर तक्षशिला बसा हुआ था। जहां कि यह घटना घटी वहीं रहते थे दोनों माता-पुत्र एक दूसरे की सेवा पालन करते हुए। विष्णुगुप्त के पिता चणक तो बेटे का जन्म होने के कुछ समय बाद ही चल बसे थे। अब उसके लिए बच रही थी अपनी वृद्धा मां। उस मां ने ही मेहनत-मजदूरी कर विष्णुगुप्त का पालन किया और बचपन से ही स्वावलंबन की शिक्षा दी। विष्णुगुप्त जैसे बड़ा होता गया, उसकी बौद्धिक चेतना विकसित होने लगी। वह मां के उपकारों का प्रतिदान तो क्या दे सकता था परंतु एक समझदार और सुशील पुत्र की भांति अपना कर्तव्य अवश्य करने लगा। वह अपने हाथों से भोजन बनाता, मां को खिला कर खुद खाता। उसके कपड़े धोता और बड़े उत्साह तथा प्रेम से अपनी मां की सेवा करता।
उन्हीं दिनों भारतवर्ष पर सिकंदर ने आक्रमण किया। समुद्र के तटवर्ती क्षेत्रों को जीतकर लूट मार मचा कर अपने देश लौट गया। तक्षशिला भी उसका निशाना बनने से नहीं बची। यवनों ने वहां भी विनाश लीला खेली परंतु ब्राह्मण युवक विष्णुगुप्त सब कुछ देख-जान कर भी शांत ही रहा। जी तो बहुत होता था कि यवनों को उनके किए का फल चखाया जाय परंतु बेबसी। अकेले ही उन लोगों का क्या बिगाड़ा जा सकता था। अधिक से अधिक पांच-दस यवन सैनिक मारे जा सकते थे और अंत तो अपना ही होता। दूरदर्शिता का तकाजा था कि जोश में होश न खोया जाये। जीते हुए प्रदेश वापस लेने तथा यवनों को भारतीय जनशक्ति का परिचय देने के लिए यह आवश्यक था कि बिखरे देश को संगठित किया जाय।
कुछ समय बाद वृद्धा माता असार संसार छोड़कर चल दी। विष्णुगुप्त को बड़ी वेदना तो पहुंची परंतु उसने निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति के लिए स्वयं को पूर्णतया स्वतंत्र और समर्थ पाया। उसके मन में आसिंधु हिमाचल तक एक संगठित राष्ट्र की स्थापना का संकल्प था। वह विष्णुगुप्त से चाणक्य बनकर अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए चल पड़ा। चाणक्य ने अपने सब ग्रंथ और पत्र इकट्ठे किये तथा एक मित्र के पास रख दिये उन सबको और तक्षशिला को प्रणाम किया।
बड़े-बड़े राजमार्ग तय करते हुए चाणक्य ने गांधार देश की राजधानी छोड़ दी। चारों ओर घना वन था। दूर-दूर तक कोई ग्राम न दिखाई देता। दिन-रात चलते रहे वे, जंगली खूंखार पशुओं के बीच भी। यों अब घर रुकने का भी कोई प्रयोजन नहीं था। वहां रहकर भी वे क्या करते इसलिए वे जगह-जगह घूमते रहे क्या किया जाना चाहिए इसकी धुन में लगे रहकर।
इसी प्रवासकाल में उन्होंने सुना कि पाटलिपुत्र राजा घनानंद बहुत बड़े सम्राट हैं। उसके पास पर्याप्त सेनायें हैं और साथ ही साथ वह वीर भी हैं। चाणक्य ने सोचा कि क्यों न भारत के गठन में घनानंद को माध्यम बनाया जाय। यह सोचकर उन्होंने पाटलिपुत्र की ओर प्रस्थान किया। लंबी यात्रायें कर चाणक्य मगध साम्राज्य की इस सुंदर राजधानी में पहुंचे। वहां जाकर देखा राजा घनानंद के चारों ओर चापलूस तथा चाटुकार ढंग के लोग ही जमा हैं। स्वयं राजा भी उन लोगों का साथ छोड़ना पसंद नहीं करता और सुरा-सुंदरी में मस्त रहता है। यही नहीं घनानंद से जब चाणक्य ने सम्पर्क स्थापित किया तो उनका बड़ा अपमान भी किया गया। इस अपमान से चाणक्य बौखला उठे और उन्होंने प्रतिज्ञा कर ली कि जब तक मैं नंदवंश की ईंट से ईंट न बजा दूंगा, चैन नहीं लूंगा। इसका एक कारण भी था। कोई शक्ति किसी सत्कार्य में सहायक नहीं बनती इसका मतलब यह नहीं कि वह निरपेक्ष सी रह जाती है। तटस्थ रहने पर उससे खतरा तो बना ही रहता है, अगर वह कुछ न भी करे तो उसका कुछ नहीं करना भी उस कार्य के मार्ग में रोड़ा आ जाता है।
चाणक्य पाटलिपुत्र से निराश होकर लौट रहे थे तब मार्ग में उन्हें एक प्रतिभाशाली बालक दिखाई दिया—चंद्रगुप्त। यह बालक, कहते हैं बिहार की ही किसी निर्वासित रानी का बेटा था। चाणक्य ने चंद्रगुप्त की माता से सम्पर्क साधा और उसे अपने साथ रखकर शस्त्र विद्या सिखाने के लिए राजी कर लिया।
चंद्रगुप्त की मां जब सहमत हो गयीं तो चाणक्य उस होनहार बालक को अपने साथ ले आये। उन्होंने विंध्याचल पर्वत पर रमणीक स्थान देखा तथा वहां अपना एक आश्रम स्थापित कर लिया। वहीं से कुछ आदिवासी बालकों को इकट्ठा कर लिया और क्षात्रधर्म की शिक्षा देने लगे। युद्ध विद्या, राजनीति, धर्मनीति आदि विषयों में चंद्रगुप्त को निष्णात कर चाणक्य ने अपने अभियान का एक चरण पूरा कर लिया। भारत के सबसे बड़े राज्य मगध को जीतना कोई आसान काम नहीं था। चाणक्य इस बात को भली भांति समझते थे। परन्तु वे यह भी जानते थे कि मगध राज्य में कुछ ऐसे तत्व सक्रिय हो गए हैं जो उसे निरंतर क्षीण बनाते जा रहे हैं।
एक-एक सिक्का इकट्ठा कर चाणक्य सेना संगठित करने लगे। उनकी सैनिक संख्या यद्यपि बहुत कम थी परंतु जो भी सैनिक थे वे वीर, दृढ़ और बहादुर। इस छोटी सी सेना को लेकर ही चंद्रगुप्त ने चाणक्य के मार्गदर्शन में मगध राज्य पर छुटपुट आक्रमण करना आरंभ किया। गांव पर गांव और नगर पर नगर छुटपुट आक्रमणों से जीतता हुए चाणक्य पाटलिपुत्र की ओर बढ़ने लगे।
मगध राज्य का महामंत्री राक्षस बड़ा ही चतुर और कुशल राजनीतिज्ञ था। घनानंद को अपने इस मंत्री पर गर्व था लेकिन चंद्रगुप्त और चाणक्य ने अपनी शक्ति धीरे-धीरे बढ़ा कर मगध को जीत ही लिया। चंद्रगुप्त की राज्याभिषेक कराकर चाणक्य अगली योजनाओं को मूर्तरूप देने में संलग्न हुए। उधर मगध का महत्वाकांक्षी सेनापति राक्षस हारे हुए राज्य पर पुनः अधिकार कर लेना चाहता था। राक्षस चंद्रगुप्त का शत्रु भले ही रहा हो परंतु था देशभक्त। भारत के सीमाप्रांत का राज था सेल्यूकस-सिकंदर का प्रतिनिधि। उन दिनों वह भारत विजय के स्वप्न देख रहा था। उसने अपने दूत को भेजा राक्षस के पास कि वह और सेल्यूकस दोनों मिलकर चंद्रगुप्त को परास्त करने का प्रयत्न करें।
लेकिन राक्षस ने स्पष्ट कह दिया—‘‘कान खोलकर सुन लो। मैं चंद्रगुप्त और चाणक्य का नाश चाहता तो हूं परंतु करूंगा सब कुछ अपने बलबूते पर। किसी भी मूल्य पर मैं मातृभूमि से द्रोह नहीं करूंगा। प्रतिशोध के लिए मैं अपना देश विदेशियों के हाथ नहीं बेचूंगा।’’ उधर चाणक्य भी राक्षस की गतिविधियों पर नजर रखे हुए थे। जब उन्होंने यह घटना सुनी तो आंखों में आंसू बह उठे। राक्षस की देश भक्ति उन्हें प्रभावित कर गयी और उसकी प्रतिभा का उपयोग राष्ट्र निर्माण में करने का निश्चय किया। उसी दिन वे राक्षस के घर गए। राक्षस ने उनका यथोचित सत्कार किया। चाणक्य ने अपना परिचय देते हुए कहा—‘‘मैं चाणक्य हूं और आपके द्वार पर भिक्षा मांगने के लिए आया हूं।’’
महामंत्री बोले—‘‘क्यों हंसी करते हो ब्राह्मण देव! मैं अब किस योग्य हूं। मात्र एक हारा हुआ सैनिक ही तो हूं।’’
विभिन्न पहलुओं से उन्होंने राक्षस को अपना मिशन समझाया और कहा—‘‘हमारे देश को एक सिरे से दूसरे सिरे तक संगठित करने के लिए आप शासन की बागडोर संभालिए।’’ चाणक्य ने उनसे महामंत्री पद सम्हालने का आग्रह किया और अगले ही दिन इस पद पर जिम्मेदारी राक्षस को सौंपकर नगर से बाहर चले गए। जिस राज्य के निर्माण में उन्होंने सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी उसकी सुविधाओं का लाभ उठाने से पूर्व ही चाणक्य ने वह स्थान छोड़ दिया। यह उनकी अनन्य निस्पृहता का ही परिचायक था। चंद्रगुप्त को अपने निष्ठावान शिष्य को मगध का अधिपति बनाने के बाद ही चाणक्य का कार्य समाप्त नहीं हो गया वरन् असली काम तो अब आरंभ हुआ था भारत का एक संगठित राष्ट्र के रूप में राजनैतिक पुनर्निर्माण। और इसी ध्येय के लिए उन्होंने मगध राज्य के संचालन मार्गदर्शन का उत्तरदायित्व भू.पू. महामंत्री राक्षस को सौंपा था। ताकि वे स्वतंत्रतापूर्वक अपने ध्येय की पूर्ति में लग सकें।
आचार्य चाणक्य, महामंत्री राक्षस और सम्राट चंद्रगुप्त ने परस्पर विचार-विनिमय किया कि किस प्रकार भारत को एक सूत्र में बांधा जाये और महत्वपूर्ण निर्णय बिंदुओं पर पहुंच कर आचार्य चाणक्य देश भ्रमण के लिए निकल पड़े। पुंड्र पांचाल, हरिद्वार, बहदहद्द, कलिंग (उड़ीसा), कांपिल्य दक्षिणी उत्तरप्रदेश आदि देशों की यात्रा करते हुए उन्होंने अपना अभियान चलाया। राजसत्ता से परामर्श और जनसत्ता का जागरण ये दोनों ही पद्धतियां अपनाकर चाणक्य ने अपना मंतव्य पूरा किया। उधर यवन सम्राट् सेल्युकस सिंधु नदी के उस पार बैठा भारत विजय की योजनायें बना रहा था।
सिंधुराज्य के निर्माता चाणक्य का एक लक्ष्य यह तो था ही कि जीती हुई जमीन वापस लेना है। संगठित प्रांतों की सेनाओं ने मिलकर सिंधु के पश्चिमी तट पर मोर्चा बंदी किये बैठी यवन सेनाओं पर अचानक आक्रमण कर दिया। इस विजय वाहिनी का नेतृत्व चंद्रगुप्त कर रहा था और मार्गदर्शन चाणक्य। यवन सेनायें तो समझ रही थीं कि जिस देश को कुछ समय पूर्व ही उन्होंने रोंदा है, वह ऐसा दुस्साहस क्या करेगी। वह असावधान ही थी परंतु जब उनके अधिपति सेल्यूकस को पता चला कि चंद्रगुप्त के नेतृत्व में भारतीय सेनायें आगे बढ़ रही हैं तो उसे बड़ी हंसी आयी। कुछ समझदार लोगों ने तो संधि के लिए कहा, परंतु मदोन्मत्त यवन सेनानायक को तो बदली परिस्थिति पर विश्वास ही नहीं था।
अंततः युद्ध हुआ और सेल्यूकस को अप्रत्याशित पराजय खानी पड़ी। पामीर से हेरात तक हिंदूकुश पर्वत का सारा राज्य, कंधार और अफगानिस्तान तथा बिलोचिस्तान का प्रदेश हार कर सेल्यूकस ने अपनी पुत्री हेलेन भी चंद्रगुप्त को ब्याह दी। अब हिमालय से कन्याकुमारी और ब्रह्मदेव से गांधार तक अखंड भारत की स्थापना हो चुकी थी। इतिहासकार विंसेंट एवस्मिथ ने लिखा है—चंद्रगुप्त के राज्य की सीमा इतनी दूर-दूर तक फैल गयी थी कि बाद में मुगल सम्राट और अंग्रेज भी लाख कोशिशें करने के बावजूद नहीं बना पाये थे।
पाटलिपुत्र पहुंचकर चाणक्य ने देश भर के राजाओं को निमंत्रण दिया और एक बड़ा समारोह आयोजित किया जिसमें चंद्रगुप्त को भारत का सम्राट बनाया गया। देश के सभी राज्यों के आंतरिक मामलों में तो पूरी स्वतंत्रता दी गयी परंतु उन्हें सर्वथा निरंकुश भी नहीं छोड़ गया। परस्पर के व्यवहार, सुरक्षा और अन्य मामलों में वे केंद्र के ही अधीन रहेंगे-ऐसी घोषणा की गयी।
अब भारतवर्ष और उसके निर्माता चाणक्य का यश दूर-दूर तक फैलने लगा। अन्य देशों के लोग उन्हें एक विशाल राष्ट्र के निर्माता के रूप में जानने लगे। एक दिन की बात है कोई विदेशी यात्री पाटलिपुत्र में आया और राजमार्ग पर घूमता हुआ नागरिकों से पूछने लगा—‘‘महर्षि चाणक्य किस भवन में रहते हैं।’’
लोगों ने कहा—‘‘भगवन! वे किसी भवन में नहीं रहते हैं। उनसे मिलना हो तो नगर के बाहर ऊपर की ओर एक झोंपड़ी है वहां जाओ।’’
पहले तो विश्वास नहीं हुआ उस विदेशी को कि इतने बड़े राष्ट्र का निर्माता शहर से बाहर किसी झोंपड़ी में रहता होगा। फिर भी वह गया बतायी दिशा में, उसे एक झोंपड़ी दिखाई दी—घास-फूस की। समीप जाने पर उसने देखा—शरीर पर एक वस्त्र लपेटे, दुर्बल और कृशकाय कोई वृद्ध पुरुष प्रभु के ध्यान में मग्न हैं। कहीं मैं गलत स्थान पर तो नहीं पहुंच गया हूं—यह सोचकर उसने डरते-डरते प्रवेश किया कुटिया में। जब उसे विश्वास हो गया कि यही हैं वह महापुरुष जिसने भारत राष्ट्र का निर्माण किया है तो अनायास ही उसके मुंह से निकल गया—‘‘जिस देश का सबसे बड़ा महान व्यक्ति इतनी सादगी और त्याग से भरा जीवन व्यतीत करता हो वह क्यों न उन्नति करेगा।
विदेशी की इस प्रतिक्रिया में ही तत्कालीन भारत के उत्कर्ष का राज छिपा हुआ है। सब सुविधाओं को विवेकपूर्वक छोड़ देना ही सर्वोच्च त्याग है और बिना त्याग बलिदान के कोई राष्ट्र जीवित नहीं रहता है।
(यु. नि. यो. सितंबर 1974 से संकलित)