भारतीय इतिहास के कीर्ति स्तम्भ- 1

निष्काम लोकसेवी, महाराजा हर्षवर्धन

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‘‘अब भी आप राज्यारोहण के लिए तैयार नहीं हैं।’’ बाल्य बंधु माधव गुप्त ने स्थानेश्वर नरेश प्रभाकर वर्धन के द्वितीय पुत्र शिलादित्य से पूछा।

‘‘माधव! अब तुम्हें कितनी बार कहूं कि मुझे राजा बनने में कोई अनुरक्ति नहीं है। मैं तो धर्म-प्रचार करके अपना यह जीवन सफल-सार्थक करना चाहता हूं। कितना अच्छा होता मैं किसी साधारण व्यक्ति के घर जन्म लेता तो आज की सी विषम परिस्थिति तो सामने नहीं आती।’’

‘‘राजकुमार! आप यह समझते हैं कि बौद्ध भिक्षु बन कर ही आज लोकसेवा कर सकेंगे, अपना जीवन सफल-सार्थक कर सकेंगे, राजा बनकर नहीं। मेरी दृष्टि में तो आपका यह सोचना ठीक नहीं। मनुष्य यदि अपना दृष्टिकोण सही रखे तो वह किसी भी काम को करता हुआ लोकसेवा कर सकता है। आप राज्याधिकार को अपनी महत्वाकांक्षा तृप्ति, सुखोपभोग, ऐश्वर्य लाभ के लिए नहीं अपने दायित्व के रूप में निष्काम भाव से भी तो ग्रहण कर सकते हैं। फिर आप जो कार्य बौद्ध भिक्षु बनकर कर सकते हैं उससे कहीं अधिक स्थानेश्वर सम्राट बनकर भी कर सकते हैं। ऋषि-मनीषियों का कथन है कि संसार से भागने की आवश्यकता नहीं है, अपनी दृष्टि को असंसारी बनाने की है।’’

अपने बाल्य बंधु का कथन उन्हें तथ्यपूर्ण लगा। वे उस पर गहराई से विचार करने लगे। माधव गुप्त ने देखा उसकी बातों का असर होने लगा है। अतः उसने अपनी बात आगे बढ़ायी—‘‘आज आपका व्यक्तित्व जवान है। आप शरीर से पुष्ट, बलवान, बौद्धिक दृष्टि से परिपक्व और ज्ञानवान हैं। आपको इस स्थिति तक पहुंचाने में आप के स्वर्गीय पिताजी परम भट्टारक महाराजा प्रभाकर वर्धन, आपके अग्रज महाराज राज्य वर्धन, भगिनी राज्यश्री आदि का स्नेह, सहयोग रहा है। स्वर्गीय महाराज की यश कीर्ति को अक्षुण्ण रखना, अपने अग्रज की मृत्यु का प्रतिकार लेना, भगिनी की असहायावस्था में सहायता करना भी तो आपका दायित्व है। और फिर स्थानेश्वर के राज्य सिंहासन पर बैठकर प्रजा को सुशासन देना, राष्ट्र की समृद्धि का उद्योग करना भी तो पुण्य कार्य ही है। उसे भी आप निष्काम भाव से करते रह सकते हैं।’’

शिलादित्य पर माधव गुप्त की बातों का प्रभाव पड़े बिना न रह सका। ठीक ही तो कह रहा है वह। व्यक्ति का दृष्टिकोण सेवा परक हो भोग परक नहीं। तो फिर वैभव उसे बांध कैसे पायेगा। वह तो उनसे निर्लिप्त रह कर अपने अभीष्ट को पूरा करता रहेगा। मैं भी स्थानेश्वर का राज्य सिंहासन प्रजा के सेवक के रूप में ही ग्रहण करूं तो अपने जीवनोद्देश्य से भटक नहीं सकता।

शिलादित्य हर्षवर्धन के नाम से स्थानेश्वर को राज्य सिंहासन पर बैठा। उन्होंने अपने ज्येष्ठ भ्राता राज्यवर्धन की धोखे से हत्या कर देने वाले मालवाधिपति देव गुप्त और गौड़ाधिपति शशांक नरेन्द्र गुप्त को पराजित किया। भगिनी राज्यश्री, जो कान्यकुब्ज के राजा गृहवर्मा को ब्याही गयी थी, मालवाधिपति देव गुप्त के आक्रमण और गृहवर्मा की हत्या के उपरांत विंद्याचल की ओर चली गयी थी। उसके राज्य की रक्षा और उसकी खोज के प्रयत्नों में निरत हर्ष के ज्येष्ठ भ्राता राज्यवर्धन भी धोखे से मारे जा चुके थे। कन्नौज का राज्य तो हर्ष ने आक्रमणकारियों से छीन लिया था पर राज्यश्री का कोई पता नहीं चल रहा था।

राज्यश्री की खोज के लिए हर्ष एक विशाल सेना लेकर विंद्याचल की उपत्यिकाओं में भटकते फिरे। बड़ी खोज के बाद उन्हें राज्यश्री मिली। वह अपनी दुःखद स्थिति से हार कर चितारोहण करने ही जा रही थी कि हर्ष वहां जा पहुंचे और उन्होंने अपनी बहन को बचा लिया। पति और भ्राता की हत्या और राज्य छिन जाने की वेदना ने उसे झिंझोड़ कर रख दिया था। वह विक्षिप्त सी हो गयी थी। अपने जीवन से निराश राज्यश्री को जीवन की वास्तविकता और महान उद्देश्य से परिचित कराने के लिए हर्ष को बहुत प्रयास करने पड़े। अपने इन प्रयासों में वे सफल भी हुए।

प्रायः देखा जाता है कि सफलता के पश्चात व्यक्ति अपने आदर्शों से गिर जाता है। किन्तु निरंतर आत्म-निरीक्षण करते रहने के कारण वे अपने आदर्शों से गिरे नहीं वरन् उन्होंने महाराज जनक की तरह अपने आपको राज्य और वैभव से निर्लिप्त ही रखा।

सामयिक परिस्थितियों से निपटने के बाद उन्होंने एक क्रांतिकारी निर्णय लिया—कान्यकुब्ज के राज सिंहासन पर अपनी बहन राज्यश्री को बिठाने का। राज्यश्री इसके लिए बड़ी कठिनाई से तैयार हुई थी। राज्यश्री को कान्यकुब्ज की साम्राज्ञी बनाकर वे स्वयं उसके मांडलिक बने। उनके द्वारा पराजित देवगुप्त व शशांक नरेन्द्र गुप्त आदि राजाओं को भी उन्होंने कान्यकुब्ज साम्राज्य के मांडलिक बनने पर विवश किया। ऐसा अब तक के इतिहास में नहीं हुआ था। नारी द्वारा इतने बड़े साम्राज्य का सूत्र-संचालन करना और कितने ही पुरुष राजाओं द्वारा उसका मांडलिक बनना, नारी और पुरुष की समानता सिद्ध करने का यह हर्ष का साहसिक कदम था, साथ ही उनकी निस्वार्थता का परिचायक भी था।

गुप्त साम्राज्य के पतन के पश्चात हर्ष वर्धन ने एक बार फिर हारे आर्यावर्त की एक सुदृढ़ साम्राज्य के रूप में गठित करने का भागीरथ प्रयास किया। उनका यह प्रयास भी एक नवीनता लिए हुए था। उन्होंने सभी राजाओं से अनुरोध किया कि वे आपस में लड़ना-झगड़ना छोड़कर परस्पर मित्र बन जायं। राज्यों के बीच परिवार भाव का विकास करके एक झंडे तले आ जायं। राज्यश्री को उन्होंने अपनी बहन के नाते नहीं मातृशक्ति के नाते उस संघ राज्य की अधिष्ठात्री बनाने की बात की। वे स्वयं भी उसके मांडलिक बने तथा अपनी तरह दूसरे राजाओं को भी कान्यकुब्ज साम्राज्य के मांडलिक बन जाने का अनुरोध किया। उनकी इस तथ्यपूर्ण बात को जिन राजाओं ने समझा वे तो स्वेच्छापूर्वक कान्यकुब्ज साम्राज्य के मांडलिक बन गए। किन्तु जो दुराग्रही थे उन्हें युद्ध द्वारा यह बात मनवानी पड़ी। इस प्रकार उन्होंने विश्रृंखलित आर्यावर्त को पुनः सुदृढ़ साम्राज्य के रूप में गठित किया। राज्यों को एक सूत्र में पिरोकर एक सुसंबद्ध माला का रूप दिया। उनका यह उद्योग इसीलिए था कि समर्थ भारत विदेशी आक्रमणकारियों की भ्रष्ट कामनाओं को भस्मीभूत कर सके। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद उनके इस उद्योग ने पुनः भारत को शक्तिशाली बनाया था। उनकी विशेषता यह थी कि उन्होंने यह सब सहयोग व सद्भावना के आधार पर ही करना चाहा था।

आपद्धर्म की तरह राज्याभिषेक करा लेने और राज्य का सूत्र संचालन करते हुए भी हर्ष त्यागी-विरागी ही बने रहे। जैसे कि उन्होंने अपने आप को बनाये रखना चाहा था। कहीं राज्य में मोह न उत्पन्न हो जाय इसलिए वे कान्यकुब्ज के सिंहासन पर आरूढ़ नहीं हुए। उन्होंने विवाह भी नहीं किया। आजन्म अविवाहित रहते हुए वे निष्काम भाव से राष्ट्र सेवा करते रहे। विवाह कर लेने और संतान हो जाने पर उनके उत्तराधिकारी अयोग्य होते हुए भी राज्य पर अपना अधिकार जता सकते थे अतः उन्होंने विवाह किया ही नहीं। वे राजाओं के सामने एक आदर्श उपस्थित करना चाहते थे कि राजा बनने का उद्देश्य राज्य भोगना नहीं एक सेवक की भांति उसका प्रबंध करना होना चाहिए।

अविवाहित होते हुए भी अपना स्नेह लुटाने के लिए उन्होंने एक अनाथ बालिका को अपनी पालित पुत्री बना लिया था। इस प्रकार मानव मन की सहज स्वाभाविक भूख संतान पाने, उसका पोषण-निर्माण करने की कामना को उन्होंने एक परमार्थिक दृष्टि दी थी। अविवाहित रहते हुए भी संतान का सुख पाया जा सकता है, यह उनके इस आचरण द्वारा स्पष्ट हो जाता है।

हर्ष वर्धन को तत्कालीन राजा लोग समझ नहीं पाये थे। यह भी हो सकता है कि समझकर भी अपने स्वार्थों से ऊपर नहीं उठ पाये थे। इसी कारण उन्हें समूचे आर्यावर्त को एक सुदृढ़ साम्राज्य के रूप में गठित करने में ही अपने जीवन के अधिकांश वर्ष लगा देने पड़े थे। जब अधिकांश राज्य स्वेच्छा से सुसंगठित होने को तैयार नहीं हुए तो उन्हें सैन्यबल व युद्ध में पराजित करके एक साम्राज्य के मांडलिक बनने को विवश करना पड़ा था। वे लोग स्वेच्छा से उनकी सुंदर और हितकारी योजना को स्वीकार कर लेते तो उस समय उस शक्ति को किसी ओर ही दिशा में लगाते जो युद्धों में खर्च हुई।

अधिकांश समय सुदृढ़ साम्राज्य के गठन में लगाते हुए भी उन्होंने बहुत से ऐसे काम किये जो राजाओं के लिए आदर्श कहे जा सकते हैं।

धन और धरती तो ईश्वर की है। उस पर सभी मनुष्यों का समान अधिकार है। राजा सामान्य मनुष्य से अधिक सुख, सम्पदा व ऐश्वर्य क्यों भोगे। राज्य के कोष में क्यों जनता के श्रम बिंदुओं द्वारा उपार्जित पूंजी जमा पड़ी रहे। अतः वे हर पांचवे वर्ष प्रयाग में एक विशाल सम्मेलन करते थे। इस सम्मेलन का स्वरूप धर्म सम्मेलन का था। इस अवसर पर वे सभी प्रचलित धर्मों को समभाव से सम्मानित किया करते थे। यों वे स्वयं बौद्ध धर्म के मानने वाले थे किन्तु अपने धर्म के प्रचार के प्रति ही वे आग्रही नहीं थे। वे बौद्ध, वैदिक, जैन तथा अन्य सभी धर्मों के देवताओं की प्रतिमाओं की इस अवसर पर पूजा किया करते थे। पांच वर्ष तक राज कोष में जो सम्पदा एकत्रित होती थी उसका जन हित में विनियोग करते थे। गरीबों, असहायों और कष्ट पीड़ितों को सहायता देने के साथ-साथ लोक सेवी संस्थाओं और शिक्षण संस्थाओं को मुक्त हस्त से दान दिया करते थे।

यह अवसर एक प्रकार से सर्वस्व दान का अवसर होता था। वे अपने वस्त्राभूषण तक दान में दे दिया करते थे और फिर अपनी बहन राज्यश्री से मांग कर वस्त्र पहनते थे। राज्यश्री के साम्राज्य के प्रबंध संचालन में भी वे उसकी सहायता किया करते थे। धार्मिक सहिष्णुता और सर्वधर्म समन्वय का जो प्रयास हर्षवर्धन ने किया था उससे प्रजा पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा था।

उनके समय में चीन से ह्वेनसांग नामक एक यात्री भारत आया था। वह उनके इस शासन प्रबंध को देखकर बहुत प्रभावित हुआ था। उसने अपने यात्रा संस्मरणों में तत्कालीन जन जीवन की सुख, समृद्धि तथा सुंदर राज्य प्रबंध का वर्णन किया है। उसने लिखा है कि उस समय के सभी लोग सुखी, समृद्ध और संतुष्ट थे। पारस्परिक स्नेह, सद्भाव और सहयोग को व्यक्ति आवश्यक मानता था। कर बहुत कम थे। अपराध नहीं के बराबर होते थे। दंड व्यवस्था कठोर थी। राजा अपने को प्रजा का स्वामी नहीं सेवक मानता था।

हर्ष कुशल प्रशासक योद्धा व जनसेवी राजा ही नहीं अपितु लेखक भी थे। उसने नागा नंद, रत्नावली, प्रियदर्शिका आदि ग्रंथों की रचना की थी। ‘बाण भट्ट’ नामक महाकवि उसी के दरबार का रत्न था। ‘हर्ष चरित’ व ‘कादम्बरी’ उसकी प्रमुख रचनाएं हैं। धर्म प्रचार व शिक्षा प्रसार के लिए भी उन्होंने बहुत यत्न किया था, वे धर्म की मूल भावना तक पहुंचे थे। सब धर्मों के मूल तत्व एक हैं, उनके बाह्य स्वरूप में भले ही थोड़ा बहुत अंतर हो सकता है। अतः प्रत्येक धर्मावलंबी को इतर धर्मों के साथ सहिष्णुता बरतनी चाहिए। इस भावना को व्यवहार में लाने के लिए ही वे हर पांचवे वर्ष धर्म सम्मेलन का आयोजन करते थे।

हर्ष वर्धन का काल 591 ईस्वी से 648 ईस्वी तक का काल था। राजा प्रजा का सेवक होता है। उसकी अपनी सारी क्षमताएं, योग्यताएं, विभूतियां अपने लिए न होकर जनता के लिए होती हैं। उन्होंने यह आदर्श अपने जीवन में उतार कर बताए थे। राजा का पद वंश क्रमानुसार नहीं योग्यता और सेवा भावना के आधार पर मिले, इनके लिए उन्होंने विवाह तक नहीं किया। यदि उनके इन आदर्शों को तत्कालीन राजाओं ने अपने जीवन में उतारा होता तो आज हमारा इतिहास कुछ और होता। उनके ये आदर्श आज के राजनेताओं के लिए भी कम अनुकरणीय नहीं है।

वस्तुतः तो कोई भी पद अथवा अधिकार अपने लिए सुख-सुविधाएं बढ़ाने के लिए नहीं मिलता। उनके मिलने का तो एक ही कारण है कि हम उनके माध्यम से और अच्छी तरह जनसेवा कर सकें। सम्राट हर्ष वर्धन ने अपने जीवन और चरित्र के माध्यम से यह एक आदर्श हमारे सामने रखा। जिसे हमें भी अपने जीवन में उतारना चाहिए।

(यु.नि.यो. अक्टूबर 1974 से संकलित)

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