उदारता और दूरदर्शिता

व्यवहार में उदारता

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उदारता का सबसे अधिक काम व्यवहार में पड़ता है । हमको प्रतिदिन जान, अनजान, मित्र, शत्रु, उदासीन, अमीर, गरीब, समान स्थिति वाले, अफसर, नौकर आदि के साथ व्यवहार करने की आवश्यकता पड़ती है । आजकल के बहुसंख्यक चतुर या दुनियादार लोगों का तो यह तरीका होता है कि जो अपने से बड़ा या शक्तिशाली है उसके साथ बड़ी शिष्टता, सभ्यता और उदारता का भाव प्रकट करेंगे और छोटे, निर्बल, अशिक्षित व्यक्तियों के साथ कठोरता, रौब- दाब और संकीर्णता का व्यवहार करेंगे । यह बहुत स्वार्थपूर्ण दृष्टिकोण है । इसमें उच्चता का कोई चिन्ह नहीं । जो आप से शक्तिशाली या ऊँचे दर्जे के हैं उनके प्रति उदारता का कार्य एक प्रकार का प्रदर्शन मात्र ही है । इसका एक मात्र उद्देश्य यही हो सकता है कि वे आप पर प्रसन्न बने रहें और आवश्यकता पड़ने पर किसी प्रकार की सुविधा प्रदान कर सकें । उदारता की वास्तविक पहचान तो छोटे, आश्रित और असमर्थ लोगों के प्रति किये गये व्यवहार में ही होती है । अगर उनसे आप मनुष्यता का , सहृदयता का, शिष्टता का व्यवहार करते हैं तो आप निस्सन्देह उदार माने जायेंगे । महान पुरुष वे ही होते हैं जो आवश्यकता पड़ने पर छोटे- छोटे व्यक्ति के साथ सहृदयता का व्यवहार करने में संकोच नहीं करते ।

स्वर्गीय महादेव गोविन्द रानाडे अपने समय के एक प्रसिद्ध महापुरुष थे, आपने बम्बई प्रान्त में समाज सुधार के लिए बड़ा काम किया था और अनेक दुर्दशाग्रस्त व्यक्तियों को सहायता देकर उद्धार किया था । वे हाईकोर्ट के जज थे और समाज में एक बड़े नेता की दृष्टि से देखे जाते थे । एक दिन तेज गर्मी के दिनों में वे सायंकाल के समय गाड़ी में बैठकर हवाखोरी को जा रहे थे । रास्ते के किनारे उन्होंने एक बहुत गरीब बुढ़िया को बैठे देखा, जो एक लकड़ी का बोझा उठा कर सर पर रखना चाहती थी, पर उतनी शक्ति न होने के कारण निरुपाय खड़ी थी । उसने कितने ही रास्ता चलने वालों से प्रार्थना की कि वे उस बोझ को उठाने में हाथ लगा दें, पर कोई उसकी दीन दशा पर ध्यान न दे रहा था । उस पर दृष्टि पड़ते ही रानाडे उसकी परिस्थिति को समझ गये । उन्होंने गाड़ी रुकवाई और उतर कर बुढ़िया के पास पहुँचे । बुढ़िया किसी बड़े सरकारी अफसर जैसे व्यक्ति को अपने सामने खड़ा देखकर डर गई, पर रानाडे ने सान्त्वना देकर उसके लकड़ी के गट्ठे को स्वयं अपने हाथों से उठाकर उसके सर पर रख दिया । बुढ़िया आशीष देती हुई अपने घर चली गयी ।

एक ऐसी ही घटना बंगाल के बहुत बड़े जमींदार कासिम बाजार के महाराज मणीन्द्रचन्द्र नन्दी के विषय में कही जाती है । एक दिन कलकत्ता जाने वाली गाड़ी जब गुस्करा स्टेशन पर ठहरी तो उसमें से अनेक यात्री उतरे । एक वृद्धा भी वहाँ उतर पड़ी । उसके पास एक गट्ठा था जो वजन में भारी था । उसने उसे बाहर लाने की बहुत कोशिश की पर न ला सकी । इधर गाड़ी चलने का समय हो गया और झुण्ड के झुण्ड यात्री गाड़ी में चढ़ने लगे । यह देखकर बुढ़िया   बड़ी घबड़ाई और अनेक यात्रियों से अपना गट्ठर बाहर निकाल देने की विनती करने लगी । पर उस भीड़- भाड़ और जल्दबाजी में किसी ने उसकी ओर ध्यान न दिया । सब अपने- अपने काम में व्यस्त थे और बार- बार कहने पर भी कोई बुढ़िया की बात नहीं सुन रहा था । हताश होकर बुढ़िया रोने लगी, पर वहाँ एक भी व्यक्ति ऐसा न निकला जो उस पर दया दिखाता । संयोगवश उसके रोने- कलपने को आवाज दूर से महाराज मणीन्द्र चन्द्र ने सुनी, जो उसी ट्रेन से फर्स्ट क्लास में बैठे कलकत्ता जा रहे थे । वे अपनी गाड़ी से उतर कर दौड़ कर तीसरे दर्जे की गाड़ी में आये, जहाँ वह बुढ़िया थी और जल्दी से उसका गट्ठर उतार कर उसके सिर पर रख दिया । उस समय गाड़ी छूटने ही वाली थी, गाड़ी छूटने की घण्टी पहले ही बज चुकी थी, बुढ़िया के कृतज्ञता प्रकट करने के पहिले ही वे दौड़कर फिर अपने फर्स्ट क्लास के डिब्बे में जा बैठे । बुढ़िया  आँखों से कृतज्ञता के आँसू बहाती और महाराज को अनेक आशीर्वाद देती हुई चली गई ।

यद्यपि ये बहुत छोटी घटनायें हैं, पर इनसे हमको उदारता के व्यवहार की शिक्षा मिलती है । किसी आपत्तिग्रस्त दीन व्यक्ति की सहायता कर देने से बड़े आदमी की कोई हानि नहीं होती, पर इससे समाज के व्यक्तियों को परस्पर में सद्व्यवहार और उदारता का बर्ताव करने की प्रेरणा मिलती है । ऐसी भावना का प्रसार होने से मनुष्यों की आध्यात्मिक  और मानसिक शक्तियाँ उन्नत होती हैं और वे परस्पर में मनुष्यता का व्यवहार करके प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होते हैं ।


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