मनुष्य जीवन को सफल और उन्नत बनाने वाले अनेकों गुण होते
हैं- जैसे सचाई, न्यायप्रियता, धैर्य, दृढ़ता, साहस, दया, क्षमा, परोपकार
आदि । इनमें से कुछ गुण तो ऐसे होते हैं जिनसे वह व्यक्ति स्वयं ही लाभ
उठाता है और कुछ ऐसे भी होते हैं जिनके द्वारा अन्य लोगों का उपकार भी होता
है और अपनी भी आत्मोन्नति होती है । उदारता एक ऐसा ही महान गुण है ।
मनुष्य के व्यक्तित्व को आकर्षक बनाने वाली यदि कोई वस्तु है,
तो वह उदारता है । उदारता प्रेम का परिष्कृत रूप है । प्रेम में
कभी-कभी स्वार्थ भावना छिपी रहती है । कामातुर मनुष्य अपनी प्रेयसी
से प्रेम करता है, पर जब उसकी प्रेम-वासना की तृप्ति हो जाती है, तो
वह उसे भुला देता है । जिस स्त्री से कामी पुरुष अपने यौवन-काल
और आरोग्य अवस्था में प्रेम करता है, उसी को वृद्धावस्था में अथवा
रुग्णावस्था में तिरस्कार की दृष्टि से देखने लगता है । पिता का पुत्र के
प्रति प्रेम, मित्र का मित्र के प्रति प्रेम तथा देश भक्त का अपने
देशवासियों के प्रति प्रेम में स्वार्थ भाव भी रहता है । जब पिता का पुत्र
से, भाई का भाई से, मित्र का मित्र से, देश भक्त का देशवासियों से
किसी प्रकार का स्वार्थभाव नहीं होता, तो वे अपने प्रिय जनों से
उदासीन हो जाते हैं, पर जिस प्रेम का आधार उदारता होती है, वह इस
प्रकार नष्ट नहीं होता । उदार मनुष्य दूसरे से प्रेम अपने स्वार्थ-साधन
हेतु नहीं करता, वरन् उनके कल्याण और अपने स्वभाव के कारण करता
है । इससे उदारतायुक्त प्रेम सेवा का रूप धारण कर लेता है । इस
प्रकार का प्रेम दैवी रूप में प्रकाशित होता है ।
उदार मनुष्य दूसरे के दुःख से दुखी होता है । उसे अपने सुख-
दुःख की उतनी चिन्ता नहीं रहती, जितनी दूसरे के सुख-दुःख की रहती
है । भगवान बुद्ध अपने दुःख की निवृत्ति के हेतु संसार को त्याग जंगल
में नहीं गये थे, वरन् संसार के सभी प्राणियों को दुखों से मुक्त करने के
विचार से राज-प्रासाद त्याग कर वनवासी बने थे । ऐसे व्यक्ति ही
नर-श्रेष्ठ कहे जाते हैं ।
उदारता से मनुष्य की मानसिक शक्तियों का अद्भुत विकास होता
है । जो व्यक्ति अपने कमाये धन का जितना अधिक दान करता है, वह
अपने अन्दर और धन कमा सकने का उतना ही अधिक आत्म-विश्वास
उत्पन्न कर लेता है । सच्चे उदार व्यक्ति को अपनी उदारता के लिए
कभी अफसोस नहीं करना पड़ता । उदार व्यक्ति की आत्म-भर्त्सना
नहीं होती । सेवा-भाव से किया गया कोई भी कार्य मानसिक दृढ़ता ले
आता है । इसके कारण सभी प्रकार के वितर्क मन में उथल-पुथल पैदा
न करके शान्त हो जाते हैं । अनुदार व्यक्ति अनेक प्रकार का आगा-
पीछा सोचता है, उदार व्यक्ति इस प्रकार की बात नहीं सोचता । भलाई
का परिणाम भला ही होता है, चाहे वह किसी व्यक्ति के प्रति क्यों न
की जाय ? इससे एक ओर भले विचारों का संचार उदारता के पात्र के
मन में होता है और दूसरी ओर अपने विचार भी भले बनते हैं ।
प्रकृति का यह अटल नियम है कि कोई भी त्याग व्यर्थ नहीं जाता ।
जानबूझकर किया गया त्याग मूल आध्यात्मिक शक्ति के रूप में अपने ही
मन में संचित हो जाता है, वह शक्ति एक प्रामेसरी नोट के समान है,
जिसे कभी भी भुनाया जा सकता है । सभी लोगों को भविष्य का सदा
भय लगा रहता है, वे इस चिन्ता में डूबे रहते हैं कि जब वे कुछ काम न
कर सकेंगे तो अपने बाल-बच्चों को क्या खिलायेंगे अथवा अपनी
आजीविका किस प्रकार चलायेंगे ? कितने ही लोगों को अपनी शान
बनाये रखने की चिन्ताएँ सताती रहती हैं । पर उदार व्यक्ति को इस
प्रकार की कोई भी चिन्ता नहीं सताती । जब वह गरीब भी रहता है,
तब भी सुखी रहता है । उसे भावी कष्टों का भय रहता ही नहीं । संसार के
अनुदार व्यक्ति जितने काल्पनिक दुःखों से दुःखी रहते हैं, उतने वास्तविक
दुःखों से दुःखी नहीं होते । उदार पुरुष के मन में दे सब अशुभ विचार
नहीं आते, जो सामान्य लोगों को सदा पीड़ित किया करते हैं ।
यदि कोई मनुष्य अपने आप गरीबी का अनुभव करता है तो
इसकी चिन्ता से मुक्त होने का उपाय बन संचय करना समझा जाता है ।
धन संचय के प्रयत्न से धन का संचय तो हो जाता है, पर मनुष्य धन
की चिन्ता से मुक्त नहीं होता । वह धनवान होकर भी निर्धन बना रहता
है । जब धन संचित हो जाता है तो उसके मन में अनेक प्रकार के
अकारण भय होने लगते है । उसे भय हो जाता है कि कहीं उसके
सम्बन्धी मित्र, पड़ोसी आदि ही उसके थन को हड़प न लें और उसके
बाल-बच्चे उसके मरने के बाद भूखों न मरें । वह अपने अनेक कल्पित
शत्रु उत्पन्न कर लेता है, जिनसे रक्षा के वह अनेक प्रकार से उपाय सोचता
रहता है ।धन संचय में अधिक लगन हो जाने पर उसके स्वास्थ्य का
विनाश हो जाता है । उसकी सन्तान की शिक्षा भली प्रकार से नहीं होती
और वह निकम्मी और चरित्रहीन हो जाती है । इस प्रकार उसका धन
संचय का प्रयास एक ओर तो उसकी मृत्यु को समीप बुला लेता है और
दूसरी ओर धन के विनाश के कारण भी उपस्थित कर देता है । अतएव
धन संचय का प्रयत्न अन्त में सफल न होकर विफल ही होता है ।