उदारता और दूरदर्शिता

संकीर्णता मनोमालिन्य की उत्पादक है

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संकीर्णता मानव स्वभाव का बड़ा दोष है । मनुष्य एक सामाजिक जीव है और उसका जीवन तभी सफल माना जा सकता है जब बह दूसरे लोगों को अपना सहयोग और सहायता प्रदान करे, पर जो लोग स्वभाव की संकीर्णता के कारण यह विचार करते हैं कि हम उन्हीं लोगों की सहायता करें जिनसे हमको सहायता मिलती है, भूत में मिल चुकी है या भविष्य में मिलने की आशा है, तो उनसे भलाई की बहुत ही कम सम्भावना रखनी चाहिए । ऐसी सौदा करने की मनोवृत्ति कभी प्रशंसनीय नहीं कही जा सकती और उससे किसी का विशेष लाभ नहीं हो सकता ।

संकीर्ण स्वभाव वाले व्यक्ति प्राय: किसी की प्रशंसा करना या किया जाना भी सहन नहीं करते । वे सदैव अपने लाभ पर दृष्टि रखते हैं और दूसरी को जहाँ तक हो सके सहायता न देना उनका स्वभाव होता है । इतना ही नहीं वे प्राय: दूसरों के दोष भी तलाश किया करते हैं और उनकी आवश्यकता से अधिक कटु आलोचना करते हैं, जिससे बह व्यक्ति दूसरों की निगाहों से गिर जाय ।

दूसरों के दोष देखना कठिन बात नहीं है । सहज ही छोटी- मोटी भूलों को पकड़ कर किसी की भी आलोचना की जा सकती है। तिल का ताड़ बनाया जा सकता है । शब्दों की भी आवश्यकता नहीं । केवल भ्रू- भंगियों द्वारा नाक सिकोड़ कर अथवा मुँह बिचकाकर आप किसी भी व्यक्ति की आलोचना कर सकते हैं तथा उसकी भूलों को प्रकाश में ला सकते हैं, किन्तु आलोचना करने या गलती पकड़ने से क्या वह व्यक्ति आपसे सहमत हो सकता है ? '' तुम बहुत फुहड़ हो, कितनी गन्दी पड़ी है, अलमारी और फाइलों का यह हाल है ?, वास्तव में तुम क्लर्की के योग्य नहीं हो । '' यह हैं कुछ नपे- तुले शब्द जो एक अधिकारी अपने क्लर्क अथवा सेक्रेटरी से कहता है । ये वाक्य किसी भी भांति से एक छुरी से कम नहीं हैं । सीधे-सीधे श्रोता के आत्माभिमान पर चोट करता है । उसके अहं भाव निर्णय- बुद्धि तथा चतुरता पर प्रहार करता है । क्या इससे वह अपना मस्तिष्क बदल देगा ? कदापि नहीं ।  प्लेटो और कान्ट के महान तर्क शास्त्र का आश्रय लेकर भी उससे बहस की जाए, तो भी व्यर्थ होगा क्योंकि आलोचना के इस वाक्य ने उसकी भावनाओं को ठेस पहुँचाई है ।

दूसरों के दोष देखना और आलोचना करना एक दो धार वाली तलवार है जो आलोचक एवं आलोचक दोनों पर चोट करती है । शत्रुओं की संख्या में वृद्धि करने का इससे सरल मार्ग और कौन-सा हो सकता है ? एक विद्वान का अनुभव है कि '' 'मैं जब तक अपनी पत्नी के दोष ही देखता रहा, तब तक मेरा गृहस्थ जीवन कदापि शान्तिमय नहीं रहा । '' इस प्रकार की प्रवृत्ति उत्पन्न होने पर सामने वाले व्यक्ति के दोष ही नजर पड़ते हैं, गुण नहीं । गुण यदि उसमें हों भी तो इस भांति छिप जाते हैं जैसे तिनके की ओट पहाड़ छिप जाता है । पाश्चात्य सुप्रसिद्ध विचारक बेकन के अनुसार- पर छिद्रान्वेषण करना महा मानव रोग है । इससे मुक्त हो जाना चाहिए । मैथ्यू आर्नल्ड ने कहा था कि ''दूसरों के दोष देखना- भगवान के प्रति कृतघ्न होना है । ''

दीपक लेकर ढूँढ़ने पर भी सम्भवतः कोई भी व्यक्ति ऐसा प्राप्त नहीं हो सकता जो सर्वांगपूर्ण हो, जिसमें कोई कमी न हो । ऐसा व्यक्ति अभी तक उत्पन्न ही नहीं हुआ, वह तो भविष्य में कभी होना है । तब तक किसी को गलत बताना, काट- छाँट करना कहाँ तक उचित है ? डाक्टर जौन्सन कहा करते थे, " श्रीमान ! स्वयं परमात्मा भी, आदमी के अन्तिम दिन के पूर्व उसके सम्बन्ध में कोई निर्णय नहीं देता । फिर हम और आप ही किसी को गलत कैसे कह दें ? '' हमारे ह्रदय में भी वही भाव होने चाहिए कि अपने परिचितों, प्रियजनों, मित्रों तथा अन्य लोगों को नग्नता और बुराइयों को व्यर्थ में ही न देखते फिरें । गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में हमारा स्वभाव कपास के समान निर्मल होना चाहिए-


साधु चरित शुभ सरिस कपासू ।
सरस विसद गुनमय फल जासू ।।
जो सहि दुख पर छिद्र दुरावा ।
बन्दनीय जेहि जग जसु पावा ।।

स्वयं कष्ट सहन कर ले किन्तु दूसरों के दोष छिपावे, यह सज्जनों का गुण माना गया है । मुस्लिम धर्मग्रन्थ की एक कथा है कि हजरत नूह एक दिन शराब पीकर उन्मत्त हो गये । उनके वस्त्र अस्त−व्यस्त हो गये और अन्ततः वे नंगे हो गये । उनके पुत्र शाम और जैपेथ उल्टे पैरों उन तक गये और उन्हें एक कपड़े से ढँक दिया । उन्होंने अपने प्रिय पिता का नंगापन नहीं देखा । हमारे ह्रदय में भी यही भाव होना चाहिए कि अपने प्रियजनों की नग्नता अर्थात् उनकी बुराइयों को व्यर्थ में ही न देखते फिरा करें ।

कष्ट सह कर भी दूसरों के दोष छिपाने और उनकी आलोचना न करने का महत्त्व बहुत पहले ही जान लिया गया था । ईसा मसीह से भी २२०० वर्ष पूर्व मिश्र के प्राचीन राजा अख्तुई ने कहा था- 'दूसरों की भूल मत पकड़ और यदि नजर पड़ ही जाय तो कह मत । '' क्राइस्ट ने भी यही कहा था कि- '' यदि तू चाहता है कि तेरे दोषों पर विचार न किया जाय, तो तू भी दूसरों के दोषों पर विचार न कर । ''

अधिकतर व्यक्ति शिकायत करते हैं कि अमुक मित्र ऐसा है, अमुक संबंधी ऐसा है, उनकी यह कमी है आदि- आदि । पर उस व्यक्ति के उन गुणों पर विचार ही नहीं करते जो कि अन्य व्यक्तियों में उपलब्ध नहीं हैं और जिनके कारण वह उन अनेक उलझनों से बचा हुआ है, जिनमें अन्य व्यक्ति परेशान हैं-

परदोष- दर्शन के पाप से मुक्ति पाने के लिए, गुण-चिन्तन का अभ्यास डालना चाहिए । प्रतिपक्षी  के गुणों का विचार करना चाहिए । चीनी कवि यू-उन-चान की कविता की कुछ पंक्तियों का अनुवाद हमारे इस कथन का समर्थक हैं-

"हे प्रभु ! मुझे शत्रु नहीं मित्र चाहिए
तदर्थ मुझे कुछ ऐसी शक्ति दे ।
कि मैं किसी की आलोचना न करूँ- गुणा गान करूँ । ''

बैंजामिन फ्रैंकलिन अपनी युवावस्था में बहुत नटखट थे ।। दूसरों की आलोचना करना, खिल्ली उड़ाना उनकी आदत बन चुकी थी । क्या पादरी, क्या राजनीतिज्ञ, सभी उनके माने हुए शत्रु बन चुके थे । बाद में इस व्यक्ति ने अपनी भूल सँभाली और अन्त में जब वह उन्नति करते- करते अमेरिकन राजदूत होकर फ्रांस में भेजे गये तो उनसे पूछा- 'आपने अपने शत्रुओं की संख्या कम करके मित्र कहाँ से बना लिए ? '' उन्होंने उत्तर दिया- '' अब मैं किसी की आलोचना नहीं करता और न किसी के दोष उभार कर रखता हूँ । हाँ- अलबत्ता-किसी का गुण मेरी दृष्टि में आ जाता है तो उसे अवश्य प्रकट कर देता हूँ । यही मेरी सफलता का रहस्य है । ''



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