उदारता केवल रुपये पैसे द्वारा किसी की सहायता करने को ही नहीं कहते वरन् दूसरों के साथ ऐसा सद्व्यवहार करना, जिससे उनका आन्तरिक मन संतुष्ट और सुखी हो, एक बड़ी सराहनीय प्रवृत्ति है । संसार में दोषों की कमी नहीं है और अधिकांश मनुष्यों में गुणों की अपेक्षा दोषों, की संख्या ही अधिक देखने में आती है । यदि आप उदार प्रकृति के हैं और ऐसे लोगों के दोषों पर पर्दा डाल कर उनके गुणों को ही प्रोत्साहन देते हैं तो बहुत सम्भव है कि इससे उनका मानसिक सुधार हो जाय और उसके लिए वे सदैव कृतज्ञ रहें ।
दूसरों के दोष देखने की आदत बुरी है । दोष देखने की आदत पड़ जाने से सामने वाले व्यक्ति के दोष ही दोष दीखते हैं, उसमें अच्छे गुण भी हों पर वे तिल का ताड़ बनाने की इस बुरी आदत के कारण वैसे नहीं दीखते जैसे कि तिनके की आड़ में पहाड़ छुप जाता है । दूसरों के दोष देखना, छिद्रान्वेषण करना महान मानस रोग है। इससे मुक्त होना चाहिए ।
भगवती पार्वती के दो पुत्र थे । एक के छः मुख और बारह आँखें थीं और दूसरे के हाथी जैसी लम्बी नाक थी । पहिला दूसरे की नाक हाथ से नापने लगता और दूसरा पहिले की आँखें गिनने लगता । एक, दो तीन, चार, दस, ग्यारह, बारह बस फिर लड़ाई ठन जाती और वे आपस में खूब लड़ने लगते । माता पार्वती इनकी लड़ाई से परेशान हो गई । बरजती, पर वे न मानते । एक दिन उन्हें पकड़ कर शंकर जी के पास ले गईं और बोलीं कि महाराज । ये लड़के दिन भर लड़ते रहते हैं । इन्हें किसी तरह समझा दीजिए । ज्ञान-निदान शंकर जो उनके लड़ने का कारण समझ गये और उन्होंने उन्हें बड़े प्रेम से पास बैठाकर दूसरों के ऐब देखने को बुराई समझा दी । लड़कों ने लड़ना बन्द कर दिया । इसलिए किसी ने कहा है -
अगर है मन्जूर तुझको बेहतरी,
न देख ऐब दूसरों का तू कभी ।
कि बद (दोष) बीनी आदत है शैतान की,
इसी में बुराई की जड़ है छिपी ।।
महात्मा सूरदास का बहुत सुन्दर भजन है- "
हमारे अवगुण चित न धरौ ......" । इत्यादि । भगवान से की गई यह प्रार्थना हृदय को चुम्बक जैसे पकड़ लेती है । भगवान हमारे अपराधों को क्षमा करें, हमारे दोषों को न देखें, यह भाव हृदय में आते ही विचार आता है कि अपने अपराधों को क्षमा कराने वालों को दूसरों के अपराधों को स्वयं भी तो क्षमा करना चाहिए । हम जब स्वयं क्षमाशील होंगे तभी हमारे अपराध भी क्षमा हो सकेंगे । दूसरी के दोष देखना भगवान के प्रति कृतघ्न होना है । हम शिकायत करते रहते हैं कि हमारा अमुक संबंधी ऐसा है, वैसा है । हम अपने उस सम्बन्धी के उन विशेष गुणों का ख्याल ही नहीं करते जो अन्य लोगों में नहीं हैं हम बहुधा यह भूल जाते हैं कि हमें जो सम्बन्धी मिला है वह दूसरों के सम्बन्धियों की अपेक्षा अनेक बातों में बहुत अच्छा है और व्यर्थ में ही हम अपने उस सम्बन्धी के कारण अपने भाग्य को कोसते हैं । इसके अतिरिक्त हम इसलिए भी कृतघ्न हैं कि हम अपने सम्बन्धी की की हुई सेवाओं की सराहना नहीं करते । कृतज्ञता का सबक हमें भगवान राम से सीखना चाहिए । महर्षि वाल्मीकि राम के लिए कहते हैं -
न स्मरत्युपकाराणां शतमप्यात्मवत्तया ।
कथचिदुपकारेण कृतेनैकेन तुष्यति ।।
वे कौशल्यानन्दन ऐसे हैं कि किसी के द्वारा अपने प्रति किए गए सैकड़ों अपराधों का भो स्मरण नहीं करते किन्तु यदि कोई किसी भी प्रकार उनका कैसा भी उपकार कर दे तो उससे ही उन्हें संतोष हो जाता है । महाकवि राम के इसी गुण के कारण उन्हें बार - बार 'अनुसूय' कह कर स्मरण किया है । 'अनुसूय' अर्थात् असूया दोष रहित । किसी के गुणों में दोष देखना अथवा किसी के गुणों से जलना ही असूया है । भगवान राम न तो किसी के गुणों में दोष देखते थे और न किसी के गुणों से जलते थे । रामभक्त को ऐसा ही होना चाहिए । पर-दोष-दर्शन के दोष से मुक्ति पाने कि लिए हमें पर-गुण-चिन्तन की आदत डालनी चाहिए और प्रतिपक्षी के गुणों का विचार करना चाहिए ।