उदारता और दूरदर्शिता

विचारों में भी उदारता रखिए

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उदारता का संबंध केबल भौतिक पदार्थों तक ही सीमित नहीं है वरन् विचारों की उदारता का उससे कहीं अधिक है । संकीर्ण विचारों का मनुष्य यदि उदारता का व्यवहार करेगा भी तो उसके द्वारा बहुत थोड़े व्यक्ति लाभ उठा सकते हैं । ऐसा व्यक्ति परिवार, जाति, धर्म, देश आदि अनेकों सीमाओं से घिरा रहता है, जिनके कारण उसकी उदारता का श्रोत थोड़ी दूर जाकर सुख जाता है ।

अनेक व्यक्तियों की उदारता तो अपने परिवार के लोगों या रिश्तेदारों तक ही सीमित रहती है । वे अपने पास और दूर के असहाय सम्बन्धियों, उनके बाल-बच्चों की सहायता करना अपने लिए आवश्यक समझते हैं । इसका एक कारण यह भी होता है कि अगर उनके समर्थशाली होते हुए उनके सम्बन्धी बहुत बूरी हालत में फिरते नजर आवें, जगह- जगह सहायता को हाथ फैलाते रहें अथवा किसी प्रकार के खोटे काम करके जीवन-निर्वाह करें तो इसमें उनका भी अपयश होता हे । अन्य लोग चाहे जब उनको ताना दे बैठते हैं कि " तुम्हारे रिश्तेदार तो गली-गली, मारे- मारे फिरते हैं और तुम यहाँ लाटसाहबी दिखाते हो । '' पीठ पीछे तो ऐसे व्यक्तियों की आमतौर पर निन्दा होती ही है । इसलिए ऐसे लोगों की उदारता बहुत कुछ अपने स्वार्थ के कारण ही होती है और उसका समाज पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता ।

कुछ लोग अपनी जाति वालों की सहायता करना ही श्रेष्ठ कर्म समझते हैं । कुछ समय पहले यह मनोवृत्ति विशेष रूप से उत्पन्न हुई थी और इसके फलस्वरूप अग्रवाल, खण्डेलवाल, बाहरसैनी, कान्यकुब्ज, सर्यूपारीण, गौड़, सनाढ्य, खत्री, क्षत्री, राजपूत, कायस्थ, कुरमी, तेली, जायसवाल, भुर्जी, वैश्य, कुशवाहा, जाटव आदि सैकड़ों जातियों की तरफ से पृथक-पृथक शिक्षा-संस्थाओं, मन्दिरों, पुस्तकालयों, धर्मशालाओं आदि की स्थापना की गई थी । यह प्रवृत्ति साधारण दृष्टि से बुरी नहीं कही जा सकती, क्योंकि एक- एक समुदाय की उन्नति होने से उसका प्रभाव समस्त समाज पर पड़ता ही है । पर जो लोग उदारता की सीमा अपनी जाति तक ही मान लेते हैं उनका दृष्टिकोण प्रायः सीमित ही बना रहता है और राष्ट्रीय विकास के कार्यों में वे कभी समुचित भाग नहीं ले पाते । अनेक व्यक्ति तो ऐसे कार्य केवल किसी अन्य जाति की प्रतियोगिता के भाव से ही करते हैं और जब वैसी कोई परिस्थिति नहीं होती तो उनकी उद्योगशीलता का भी अन्त हो जाता है ।



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