उदारता और दूरदर्शिता

गरीब व्यक्ति भी उदार हो सकते हैं

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जो व्यक्ति गरीबी का अनुभव करता है उसके लिए अपनी गरीबी को मानसिक स्थिति के विनाश का उपाय अपने से अधिक गरीब लोगों की दशा पर चिन्तन करना और उनके प्रति करुणा भाव का अभ्यास करना ही है । अपने से अधिक गरीब लोगों की पन के द्वारा सेवा करने से अपनी गरीबी का भाव नष्ट हो जाता है । फिर मनुष्य अपने अभाव को न कोसकर अपने आपको भाग्यवान मानने लगता है । उसकी भविष्य की व्यर्थ चिन्ताएँ नष्ट हो जाती हैं । उसमें आत्म-विश्वास बढ़ जाता है । इस आत्म-विश्वास के कारण उसकी मानसिक शक्ति भी बढ़ जाती है । मनुष्य के संकल्प की सफलता उसकी मानसिक शक्ति के ऊपर निर्भर करती है । अतएव जो व्यक्ति उदार विचार रखता है, उसके संकल्प सफल होते हैं । उसका मन प्रसन्न रहता है । वह सभी प्रकार की परिस्थितियों में शान्त रहता है । उसका स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है और वह जिस काम को हाथ में लेता है, उसको पूरा करने में समर्थ होता है । उसकी अकारण मृत्यु भी नहीं होती । दीर्घ जीवी होने के कारण उसकी सन्तान दूसरों की आश्रित नहीं बनती।

जिस व्यक्ति के विचार उदार होते हैं और जो सदा अपने आपको दूसरों की सेवा में लगाये रहता है, उसके आस-पास के लोगों के विचार भी उदार हो जाते हैं । स्वार्थी मनुष्य की संतान निकम्मी ही नहीं वरन् क्रूर भी होती है । ऐसी सन्तान माता-पिता को ही कष्ट देती है । प्रतिकूल उदार मनुष्य की सन्तान सदा माता-पिता को प्रसन्न रखने के काम करती है । जब उदारता के विचार मनुष्य के स्वभाव बन जाते हैं अर्थात् वे उसके चेतन मन को ही नहीं वरन् अचेतन मन को भी प्रभावित कर देते हैं, तो वे अपना प्रभाव छोटे बच्चों और दूसरे सम्बन्धियों पर भी डालते हैं । इस प्रकार हम अपने आस-पास उदारता का वातावरण बना लेते हैं और इससे हमारे मन में, अद्भुत मानसिक शक्ति का विकास होता है ।

विद्या के विषय में कहा जाता है कि वह जितनी हों अधिक दूसरों को दी जाती है, उतनी ही अधिक बढ़ती है । देने से किसी वस्तु का बढ़ना यह विद्या के विषय में ही सत्य है । युधिष्ठिर महाराज ने राजसूय यज्ञ में विदाई और दान का भार दुर्योधन को दिया था और कृष्ण ने स्वयं लोगों के स्वागत का भार लिया था । कहा जाता है कि दुर्योधन को यह कार्य इसलिए सौंपा गया था जिससे कि वह मनमाना धन सभी को दे, पर जितना धन वह विदाई से दूसरों को देता था, उससे चौगुना धन तुरन्त युधिष्ठिर के खजाने में आ जाता था । श्रीकृष्ण सभी अतिथियों का स्वागत करते समय उनके चरण पखारते थे । इसके परिणामस्वरूप उन्होंने अपना सम्मान खोया नहीं वरन् और भी बढ़ा लिया । जब राजसभा हुई तो एक शिशुपाल को छोड़ सभी राजाओं ने श्रीकृष्ण को ही सर्वोच्च आसन के लिए प्रस्तावित किया । जो अपने मन को जितना दूसरों के हित में लगाता है, वह उसे उतना ही अधिक पाता है और जो अपने मान-अपमान की परवाह नहीं करता वही संसार में सबसे अधिक सम्मानित होता है। ।

स्वार्थ भाव मन में क्षोभ उत्पन्न करता और उदारता का भाव शील उत्पन्न करता है । यदि हम अपने जीवन की सफलता को आन्तरिक मानसिक अनुभूतियों से मापें तो हम उदार व्यक्ति के जीवन को ही सफल पायेंगे । मनुष्य की स्थायी सम्पत्ति धन, रूप अथवा यश नहीं है ये सभी नश्वर हैं । उसकी स्थायी सम्पत्ति उसके विचार ही हैं । जिस व्यक्ति के मन में जितने अधिक शान्ति, सन्तोष और साम्यवाद लाने वाले विचार आते हैं वह उतना ही अधिक धनी है । उदार विचार मनुष्य की वह सम्पत्ति हैं, जो उसके लिए आपत्ति काल में सहायक होती है । अपने उदार विचारों के कारण उसके लिए आपत्तिकाल आपत्ति के रूप में आता ही नहीं, वह सभी परिस्थितियों को अपने अनुकूल देखने लगता है ।

उदार मनुष्य के मन में भले विचार अपने आप ही उत्पन्न होते हैं । इन भले विचारों के कारण सभी प्रकार की निराशायें नष्ट हो जाती हैं और उदार मनुष्य सदा उत्साहपूर्ण रहता है । उदार मनुष्य आशावादी होता है । निराशावाद और अनुदारता का जिस प्रकार सहयोग है, उसी प्रकार उदारता का सहयोग आशावाद और उत्साह से है । जब मनुष्य अपने आप में किसी प्रकार की निराशा की वृद्धि होता देखे तो उसे समझना चाहिए कि कहीं न कहीं उसके विचारों में उदारता की कमी हो गई है, अतएव इसके प्रतिकार स्वरूप उसे उदार विचारों का अभ्यास करना चाहिए । अपने समीप रहने वाले व्यक्तियों से ही इसका प्रारम्भ करे तो वह देखेगा कि थोड़े ही काल में उसके आस-पास दूसरे ही प्रकार का वातावरण उत्पन्न हो गया है । उसके मन में फिर आशावादी विचार आने लगेंगे । जैसे-जैसे उसकी उदारता का अभ्यास बढ़ेगा, उसका उत्साह भी उसी प्रकार बढ़ता जायगा । इससे यह प्रमाणित होता है कि मनुष्य उदारता से कुछ खोता नहीं कुछ न कुछ प्राप्त ही करता है ।

कितने ही लोग कहा करते हैं कि दूसरे लोग हमारी उदारता से लाभ उठाते हैं । वास्तव में वह उदारता, उदारता हो नहीं जिसके पीछे पश्चात्ताप करना पडे़ । स्वार्थवश दिखाई गई उदारता के पीछे ही इस प्रकार का पश्चात्ताप होता हैं । सच्चे हृदय से दिखाई गई उदारता कभी भी पश्चात्ताप का कारण नहीं होती उसका परिणाम सदा भला ही होता है। यदि कोई व्यक्ति हमारे उदार स्वभाव से लाभ उठाकर हमें ठगता है तो इससे हमारी नहीं उस ठगने वाले की हानि है ।


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