उदारता और दूरदर्शिता

धार्मिक अनुदारता के दुष्परिणाम

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

यद्यपि धर्म का मुख्य गुण मनुष्य में उदारता और परोपकार की भावना को उत्पन्न करना ही माना गया है और हमारे धर्म में ' आत्मवत् सर्वभूतेषु '  का सिद्धांत समस्त शुभ कर्मों का सार तत्त्व बतलाया गया है, तो भी संसार की गति इस दृष्टि से उल्टी ही प्रतीत होती है । पिछले कई हजार वर्षों के इतिहास में धर्म के नाम पर जितने लड़ाई- झगड़े और रक्त रंजित युद्ध हुए, करोड़ों मनुष्यों पर अमानुषिक अत्याचार किये गये हैं,  उसकी कल्पना करने से भी ह्रदय काँप जाता है । भारतवर्ष में वैदिक और बौद्ध धर्म वालों पौराणिक लोगों और जैन गर्म वालों, शैवों और वैष्णवों के लड़ाई-झगड़े सैकड़ों वर्ष तक चलते रहे हैं। उनमें लाखों ही व्यक्ति मारे गये और इससे कहीं अधिक  संख्या में मनुष्यों को दुर्दशाग्रस्त होकर मारा-मारा फिरना पड़ा । अब से साठ-सत्तर वर्ष पहले भी सनातन धर्मियों और आर्य समाजियों में काफी कलह और मारपीट के दृश्य देखे गये थे । जब एक ही धर्म और देश के व्यक्तियों में थोड़े से सिद्धान्तों के अन्तर के कारण इस प्रकार के पाशविकता के भाव उत्पन्न हो सकते हैं तब विदेशी और सर्वथा भिन्न मजहब वालों के सम्बन्ध में जो कुछ न हो जाय सो थोड़ा है । मुसलमान और हिन्दुओं की प्राचीनकाल से आक्रमणकारी युद्धों की बात तो छोड़ दीजिए, अभी पिछले कुछ वर्षों में हिन्दु- मुसलमानों में जैसे भयंकर उपद्रव और पारस्परिक निन्दा, घृणा और द्वेष की घटनायें हो चुकी हैं, वे 'धर्म' के नाम पर किये जाने वाले पाप कर्मों के ज्वलंत उदाहरण हैं । उनसे स्पष्ट प्रकट होता है कि धार्मिक उदारता के अभाव से भले और श्रेष्ठ समझे जाने वाले मनुष्य भी अपनी मनुष्यता को खोकर किस प्रकार हिंसक वन्य जंतुओं के सदृश्य कार्य करने लगते हे ।

हम स्वीकार करते हैं कि भारत वर्ष धर्म प्रधान देश है,  किन्तु हमारा यह कथन कि भारत वर्ष में दूसरे देशों की अपेक्षा सदा ही धर्म पर अधिक जोर दिया गया है, विदेशियों को एक दम्भपूर्ण उक्ति सी प्रतीत हो सकती है । हम मानते हैं कि दूसरे देशों में किसी कारण से धर्म पर उतना जोर आज नहीं दिया जाता जितना कि भारत वर्ष में दिया जा रहा है, किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता कि अन्य देशों की प्रजा भारत वर्ष से कम धार्मिक है । सच तो यह है कि आज भी ईसाई देश में जो 'मिशनरी स्पिरिट' पाई जाती है, वह अन्य देशों या धर्मावलम्बियों में नहीं पाई जाती । इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि यूरोप में एक ऐसा युग था जब कि सहस्रों लोगों ने अग्नि में जीते जी जलाया जाना प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार किया किन्तु कैथोलिक से प्रोटेस्टेण्ट या प्रोटेस्टेण्ट से कैथोलिक होना स्वीकार नहीं किया । यद्यपि इन प्राण त्यागी महापुरुषों के सामने स्वधर्म को छोड़कर परधर्म स्वीकार करने का सवाल था किन्तु  इनके स्वधर्म और परधर्म में वैसा महदन्तर नहीं था जैसा कि उन धर्मों के बीच में पाया जाता है जिनका कि जन्म भिन्न- भिन्न परिस्थितियों, देशकाल या कारणों से होता है । इनमें वैसा ही अन्तर है जैसा कि शैवों और वैष्णवों में, या शिया और सुन्नियों में है । इतिहास से प्रकट है कि रोमन कैथोलिक या प्रोटेस्टेण्ट ने एक ही धर्म के अनुयायी होते हुए भी अपने- अपने मत के लिए उत्साहपूर्वक प्राण त्याग कर जो धर्मपरायणता प्रकट की, वह अन्य देशों में सामूहिक रूप में शायद ही कभी देखने में आई हो । अतएव यह कहना कि भारतवासी अन्य देशवासियों से अधिक धर्म प्राण हैं एक गर्वोक्ति सी प्रतीत होती है । ऐसी गर्वोक्तियां ही साम्प्रदायिक वैमनस्य और अन्तर्राष्ट्रीय मनोमालिन्य पैदा करती है ।

प्रत्येक देश या धर्म का व्यक्ति अपने देश या धर्म की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करने के लिए स्वतंत्र है, पर जिस वक्त वह अपने देश- प्रेम या धर्म- प्रेम से उन्मत्त होकर अपने देश या धर्म को दूसरे देश या धर्म से अपेक्षाकृत श्रेष्ठ कहने में गर्व का अनुभव करने लगता है, वहीं वह दूसरों को मानो चुनौती देता है और अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिद्वन्दिताओं,  युद्ध या साम्प्रदायिक संघर्ष का बीज बोता है । अपने देश, धर्म जाति या कुल को दूसरों से मिलान कर अपेक्षाकृत श्रेष्ठ बताने की मदोन्मत्त भावना में हो अनेकों बुराइयों की जड़ छपी हुई है । हमें अपने देश, धर्म गुरु और माता- पिता को श्रेष्ठ समझ कर उनमें अपूर्व श्रद्धा रखनी चाहिए किन्तु हमारा यह दावा करना कि हमारे माता- पिता ही दुनियाँ के सब लोगों से श्रेष्ठ हैं ओर हमारा हिंदू धर्म सभी धर्मों से अच्छा है, क्या हमारा अन्य लोगों के साथ संघर्ष नहीं करावेगा ? हमारी तो ऐसी कुछ आदत पड़ी है कि जब तक हम किसी चीज को सबसे अच्छी न कह सकें अथवा जब तक हम अपनी ही वस्तु को सबसे अच्छी न कह लें, तब तक हमारा जी नहीं भरता और न उस वस्तु के प्रति हमारे ह्रदय में पूर्ण श्रद्धा ही उत्पन्न होती है । शायद इसी कारण उस धर्म के प्रति जिसे कि हम सबसे अच्छा नहीं समझते अथवा जिसे एक दम अपने धर्म से अपेक्षाकृत हीन समझते हैं, समुचित श्रद्धा नहीं रखना चाहते और न उसके प्रति दूसरों की पूर्ण श्रद्धा को ही सहन कर सकते हैं । शायद इसी कारण हम दूसरों को यवन या मलेच्छ कहते हैं ।

हमारा आशय यह नहीं है कि हमारे भाई अपने धर्म में हार्दिक श्रद्धा न रखें या पूर्ण उत्साह के साथ उसका गुणगान न करें या उसका प्रचार करने में किसी प्रकार की शिथिलता दिखलावें । पर ये सब काम हम दूसरे धर्म वालों को हीन समझे और उनकी निन्दा किए बिना भी कर सकते हैं । इतना ही नहीं हमारा तो विश्वास है कि जो व्यक्ति धर्म के वास्तविक मर्म को समझता होगा वह संसार के किसी भी छोटे या बड़े धर्म अथवा मजहब की बुराई न करेगा । इस संबंध में एक अन्य देशीय धर्म- ग्रन्थ में एक बड़ा अच्छा दृष्टांत दिया गया है-

अरब जाति के प्रसिद्ध धर्म गुरु हजरत इब्राहीम का यह नियम था कि बिना किसी अतिथि को भोजन कराये स्वयं भोजन न करते थे । एक दिन वर्षा ऋतु में वर्षा की झड़ी की अधिकता से एक भी अतिथि उनके घर नहीं आया और वे सारे दिन भूखे रहे । अन्त में सन्ध्या के समय अतिथि को खोजकर लाने के लिए अपने नौकरों को जगह- जगह भेजा और स्वयं भी इधर- उधर घूमने लगे । उन्होंने देखा कि सामने एक अत्यन्त वृद्ध पुरुष,जिसकी दाढ़ी- मूँछ के बाल बिलकुल सफ़ेद थे, वृष्टि के कारण काँपता हुआ खड़ा है । वे उसके पास जाकर कहने लगे- ' महाशय ! आप कृपा करके आज मेरे घर आतिथ्य ग्रहण करें । '' वृद्ध प्रसन्नतापूर्वक उनका निमंत्रण स्वीकार कर उनके घर गया । नौकरों ने बड़े आदर से उसे बैठने को आसन दिया । जब वह हाथ-पाँव धोकर आसन पर बैठा तय वे उसके आगे भोजन सामग्री परोसने लगे । हजरत इब्राहीम भी उसके सामने आ खड़े हुए ।। जब सब सामग्री परोसी जा चुकी तो वह वृद्ध भोजन करने लगा ।। उसे ईश्वर को बिना धन्यवाद दिये, बिना ईश्वर का नाम स्मरण किए भोजन करते देखकर इब्राहीम को बहुत बुरा लगा और वे कहने लगे- ' तुम्हारा यह कैसा आचरण है । जिसकी कृपा से तुमको यह मधुर अन्न खाने को मिल रहा है उन्हें बिना धन्यवाद दिये ही तुम खाने लगे । तुम में वृद्ध कीं-सी समझ नहीं दीख पड़ती ।

इसके उत्तर में वृद्ध ने का- '' मैं प्राचीन मूर्ति पूजक सम्प्रदाय का हूँ । '' उनका ऐसा उत्तर सुन कर इब्राहीम का क्रोध भड़क उठा और उन्होंने वृद्ध को घर से निकाल दिया । तब  इब्राहीम के ह्रदय में देववाणी हुई कि 'हे इब्राहीम ! मैंने जिसको यत्न पूर्वक अन्न देकर इतनी बड़ी उम्र तक बचा रखा, उसे तुम घड़ी भर भी अपने यहाँ न ठहरा सके और तुमने उसके साथ इतनी घृणा की । वह मूर्तिपूजक था या नास्तिक था, पर तुमने अपने दान के नियम को क्यों भंग किया ?
 
इस दृष्टांत से मालूम होता है कि धार्मिक अनुदारता कितनी हानिकारक बात है, जो एक महापुरुष कहे जाने वाले को भी मति- भ्रम में डाल देती है । अगर हम अपने सम्प्रदाय अथवा मजहब के अनुयायी के साथ ही मनुष्योचित व्यवहार कर सकते हैं और उससे बाहर के सब लोगों को नीच या पापी मान कर घृणा की दृष्टि से देखते हैं, उनके साथ उदारता का व्यवहार करना आवश्यक नहीं समझते, तो वास्तव में अभी हम धार्मिकता या आध्यात्मिकता से बहुत दूर हैं । हम यह नहीं कहते कि आप ईसाई, यहूदी, मुसलमानी, पारसी, बौद्ध आदि अन्य धर्मों को सत्य मानिए या अपने धर्म के बराबर का भी समझिये ।। हिन्दू धर्म को आध्यात्मिकता की दृष्टि से बहुत से लोगों ने अन्य धर्मों से बढ़ा-चढ़ा स्वीकार किया है; पर यदि हम इस आधार पर दूसरे लोगों को अधर्मी या पापी कहते हैं, तो हम भी एक बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं । भिन्न- भिन्न धर्म अलग- अलग देशों के निवासियों की स्थिति और आवश्यकता के अनुसार रचे गये हैं । सब लोग एक दम धर्म के सबसे बड़े दर्जे के नियमों का पालन नहीं कर सकते । जिन लोगों के आध्यात्मिक संस्कार अभी अधिक परिष्कृत नहीं हुए हैं, उनको उनकी योग्यतानुसार ही धार्मिक नियमों का पालन करना बताया जाता है, पर इस कारण उनको अपने से पृथक समझना और उदारता के व्यवहार के अयोग्य मानना कभी उचित नहीं कहा जा सकता ।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118