उदारता और दूरदर्शिता

परिस्थितियों को दोष देना व्यर्थ है

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बहुत से लोग परिस्थितियों की प्रतिकूलता का बहाना करके दूसरों को सेवा और सहायता के कामों से बचना चाहते हैं । हम यह नहीं कहते कि मनुष्य के मार्ग में कठिनाइयाँ नहीं आती, पर जिस व्यक्ति का स्वभाव उदारता और परोपकार का होगा, वह हर तरह की परिस्थिति में उसके लिए कोई न कोई मार्ग निकाल हो लेगा । यह तो सभी जानते हैं कि उदारता, सहायता, दान आदि की श्रेष्ठता का निर्णय कम या अधिक परिमाण से, नहीं होता वरन् उसकी भावना से होता है। एक करोड़पति के लाख रुपये के दान से एक गरीब मजदूर का दो आने का दान इसी दृष्टि से अधिक त्याग और महत्त्व को माना जाता है ।

मनुष्य को हर समय अनेक प्रकार को समस्याओं का सामना करना पड़ता है । जो व्यक्ति सफलतापूर्वक इन समस्याओं को हल कर लेता है, उसका जीवन सुखी रहता है, किन्तु जो सामने की समस्याओं से भागने का प्रयत्न करता हैं, वह सदा दुःखी रहता है । समस्याओं का हल अपने आप को समझने, अपनी शक्ति पहचानने और आत्म-संयम करने का साधन मात्र है । जिस मनुष्य में अपने विचारों पर नियंत्रण रखने और उन्हें सुव्यवस्थित करने की जितनी शक्ति होती है, वह अपनी परिस्थिति जन्य समस्याओं को हल करने में उतना ही समर्थ होता है । अपने विचारों को नियंत्रित न रखने से परिस्थितियाँ प्रतिकूल हो जाती हैं तथा साधारण समस्याएँ भी भयंकर दिखाई देने लगती हैं ।

जब मनुष्य में निकम्मापन आता है तो वह अपनी अकर्मण्यता का दोष वातावरण के सिर मढ़ने लगता है । इस प्रकार मिथ्या संतोष प्राप्त करता है, पर उससे उसका मानसिक क्लेश नष्ट नहीं होता, अपितु वह और भी बढ़ जाता है । जो लोग जीवन में बड़े ऊँचे आदर्श रखते हैं, वे अपने आदर्श जीवन के अनुसार आचरण न कर सकने के लिए प्राय: अपनी परिस्थितियों को ही कोसा करते हैं । इस प्रकार का दोषारोपण मनुष्य की दूसरों को सेवा न करने की इच्छा का ही परिणाम हैं । जब मनुष्य में स्वार्थ परायणता आती है तो उसके मन में भय और चिन्ताएँ आने लगती हैं । ये भय ओर चिन्ताएँ मानसिक शक्ति को नष्ट कर देती हैं । इस प्रकार मनुष्य में निराशा भर जाती है । वह किसी भी काम सफलता की संभावना नहीं देखता । वह अपने को शत्रुओं से घिरा पाता है । वह दूसरों की ह्रदय से सेवा करना नहीं चाहता, पर वह इस बात को स्वीकार न कर वातावरण में अपनी अकर्मण्यता का कारण खोजता है । पैसे की कमी, मित्रों की कमी, समाज की पूर्वास्था आदि बातें शुभ काम करने में रुकावट डालने लगती हैं । कभी-कभी कल्पित अथवा वास्तविक रोग काम में अड़चनें डालने लगते हैं ।

इस प्रकार के विचार सामान्य नवयुवकों के होते हैं, जो उन्हें निकम्मा बना देते है । ऐसे विचारों के कारण मनुष्य अपने आस-पास प्रतिकूल वातावरण पैदा कर लेता है । वह सोचता है कि वातावरण किसी भी प्रकार के विचारों तथा आचरण का कारण होता है । विचार और आचरण वातावरण में उपस्थित परिस्थितियों के परिणाम मात्र होते हैं । जो व्यक्ति अपने कर्तव्य से बचना चाहता है वह उक्त विचार को दृढ़ता से पकड़ लेता है । मानसिक तथा शारीरिक रोगी वातावरण को ही अपने रोग का कारण ठहराते हैं । मनुष्य को रोग नहीं होता तब भी वह रोग की कल्पना कर लेता है, जिससे वह अपने प्रमाद का कोई बहाना बताकर अपनी कर्तव्य बुद्धि को धोखा दे सके । जिस प्रकार हम दूसरों को धोखा देने की चेष्टा करते, हैं उसी प्रकार हम अपने आप को भी धोखा देते हैं । जब तक धोखा देने की मनोवृत्ति का अन्त नहीं होता, वह अपने आप में भले काम करने की शक्ति नहीं पाता । धोखा देने को मनोवृत्ति से मानसिक शक्ति का उदय न होकर विनाश ही होता, है ।

जब मनुष्य आध्यात्मिक रूप से विचार करने लगता है तो वह अपने आचरण और सफलता का कारण अपने विचारों को ही पाता है । मनुष्य के विचार उसके जीवन से सम्बन्ध रखने वाली सभी वस्तुओं के कारण होते हैं । जैसे हम होते हैं वैसा ही संसार होता है । हम संसार के पदार्थों को अपनी बुद्धि के अनुरूप ही पाते हैं । यह मनोविज्ञान का सामान्य सिद्धान्त है । हमारे सामने रक्खा हुआ पदार्थ भी हमारे संस्कारों, कल्पनाओं और विचारों के अनुसार दिखाई देता है । जिस प्रकार की भावनाएँ हमारे मन में रहती हैं, बाह्य पदार्थ वैसे ही रूप में दिखाई देने लगते हैं ।

किसी व्यक्ति को भले अथवा बुरे मनुष्य उसके विचारों के अनुसार मिला करते हैं । जो व्यक्ति अपने आप से परेशान हैं बह परेशान करने वाले व्यक्तियों से स्वयं को घिरा पाता है । भले विचार वाले व्यक्ति को भले मनुष्य मिलते है, बुरे विचार वाले व्यक्ति को बुरे ।

वातावरण में परिवर्तन आध्यात्मिक आकर्षण के कारण भी होता है । जैसे मनुष्य के विचार होते हैं, उन्हीं के अनुसार दूसरे लोग अथवा परिस्थितियों उनके समक्ष आती हैं । कोई भी व्यक्ति हमारे पास इसलिए आता है कि हमारे भीतरी मन में उसके आने की आवश्यकता हैं । अपने स्वभाव को न जानने के कारण ही मनुष्य दूसरे लोगों के आचरण से परेशान रहता है, अथवा परिस्थितियों की प्रतिकूलताओं की शिकायत करता है । अपना ही स्वभाव प्रतिकूल परिस्थितियाँ उपस्थित करता है । इस प्रकार की परिस्थितियाँ हमारे आध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक होती हैं । अँग्रेजी में एक कहावत है - समान पंखों के पक्षी एक साथ उड़ते हैं । जो जैसा होता है, उसको वैसा ही व्यक्ति मिल जाता है । हम सदा अपने ही जैसे व्यक्तियों को अज्ञात जगत् में आकर्षित करते हैं और दूर-दूर से हमारे जैसे व्यक्ति संपर्क में आ जाते हैं । सभी व्यक्तियों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर उनके विचार ही ले जाते हैं । विचार के आ जाने पर एक जगह से दूसरी जगह जाने का कारण मिल जाता है । विचार की उत्पत्ति आन्तरिक प्रेरणा से होती है ।

सभी घटनाओं के दो कारण होते हैं- एक भीतरी और दूसरा बाहरी । हम जिन कारणों को घटना का कारण सोचते हैं वे प्राय: उनके बाहरी कारण मात्र होते हैं । ये कारण घटना के उतने महत्त्वपूर्ण कारण नहीं होते जितने आन्तरिक कारण हैं । आन्तरिक कारणों पर हमारा ध्यान प्राय: नहीं जाता । उसके लिए शान्त विचारों की आवश्यकता होती है । अपने वैयक्तिक स्वार्थ से ऊपर उठने पर ही मनुष्य को आन्तरिक तथा वास्तविक कारण का पता चलता हैं । घटना का आन्तरिक कारण सूक्ष्म विचार होता है । जिस मनुष्य को जिस बात का भय होता है उसके जीवन में वह बात घटित हो जाती है, वह चाहे उसके प्रति कितना ही सतर्क क्यों न रहे ? उस घटना को उसका विचार ही घटित करता है । इसी प्रकार संदेह-रहित शुभ विचार भी फलित होता है । हम जिस प्रकार के लोगों को चाहते हैं वे अनायास हमारे प्रति आकर्षित होते हैं। हमारा विचार देश और काल के प्रतिबन्ध को नहीं मानता । विचार की कोई सीमा नहीं है और उसकी गति का कोई माप नहीं । एक क्षण में विचार सारी सृष्टि की परिक्रमा कर सकता है । उसकी शक्ति भी अमोघ है । अतएव जिस व्यक्ति को हम चाहते हैं उसके आन्तरिक मन में अज्ञात प्रेरणा हमारी ओर को ही हो जाती है, पर यहाँ यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि यह चाह ऊपरी चाह न हो, भीतरी मन की चाह हो । भीतरी मन जिन बातों को चाहता है वे ही बातें हमारे जीवन में घटित होती हैं ।

जो मनुष्य समाज की सेवा करना चाहता है उसे सभी प्रकार की परिस्थितियाँ अनुकूल दिखाई देती हैं । प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी हमारे अनुकूल हो जाती हैं । जो व्यक्ति परिस्थितियों से नहीं डरता उससे परिस्थितियाँ डरती हैं और उसके अनुकूल हो जाती हैं । समाज की सेवा कोई दूर की वस्तु नहीं है । वह सब जगह हमारे समक्ष रहती हैं । समाज व्यक्तियों का बना है । समाज के एक भी व्यक्ति को प्रसन्न चित्त करना समाज के अन्य व्यक्तियों के प्रति भारी सेवा है । प्रसन्न चित्त व्यक्ति को देखकर दूसरे लोग भी प्रसन्न होते हैं । रोते हुए व्यक्ति रोते हुओं की ही संख्या बढ़ाते हैं । वे अपना रोग दूसरे लोगों में भी फैलाते हैं । जो अपने आप सुखी है वे दूसरे व्यक्तियों को भी सुखी बनाते हैं । जो अपने आप दुखी हैं वे दूसरों को भी दुखी कर देते हैं । अतएव संसार के एक भी मनुष्य को प्रसन्न बनाना उसकी भारी सेवा है । मन की प्रसन्नता धन की, सम्पत्ति की वृद्धि से नहीं आती वरन् आशावाद की वृद्धि और स्वार्थपरता के त्याग से आती है ।



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