भाषण और संभाषण की दिव्य क्षमता

भाषण और भावाभिव्यक्ति का समन्वय

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
दूसरों को किसी विचारधारा से प्रभावित करना उसी के लिए संभव है जो स्वयं उससे पूरी तरह प्रभावित हो। जिन भले या बुरे व्यक्तियों के अनेकों अनुयायी बन जाते हैं, उनमें से अधिकांश वे होते हैं जो स्वयं उस विचारों तथा कार्यों में पूरी तरह तन्मय हों। अभीष्ट विचारधारा में तन्मय होने से ही उस प्रकार की क्षमताएं विकसित होती हैं, उस प्रकार के काम बन पड़ते हैं, कामों में आने वाले अवरोधों से निपटने के उपाय सूझते हैं। तदनुसार उसे सफलता भी मिलती है। तन्मय व्यक्ति ही वस्तुतः प्रभावशाली होता है। आधे-अधूरेपन से सोचने करने वाला अन्यमनस्क व्यक्ति कुछ कहने लायक सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। यह सारे तथ्य भले ही लोगों ने पढ़े-सुने न हों, पर अन्तःचेतना हर किसी की पूरी तरह अनुभव करती है और उसी का अनुसरण करने की लोगों में इच्छा उत्पन्न होती है, जो तन्मयता की स्थिति प्राप्त करके अपनी आस्थाओं के प्रति गम्भीर होने का प्रमाण प्रस्तुत कर रहा हो। क्या कुमार्गगामी और क्या सन्मार्गगामी दोनों ही प्रकार के लोग प्रभावशाली पाये जाते हैं। वे अनेकों को प्रभावित करते और उन्हें अपना साथी, सहयोगी, अनुगामी बनाते देखे गये हैं। इस सफलता के पीछे उनके व्यक्तित्व की वही विशेषता छिपी रहती है जो विचार और कार्यों को जोड़ती और प्रतिभा बनकर सामने आती है। यह तन्मयता ही का चमत्कार है।

वक्ता को अपने प्रतिपादन में तन्मय होना चाहिए। स्कूली पाठ पढ़ाने की बात दूसरी है। यदि लोगों मन-मस्तिष्क को मोड़ना है और किसी दिशा विशेष में प्रेरित करना है तब तो नितान्त आवश्यक है कि मार्ग दर्शन करने वाला नेतृत्व की भूमिका निबाहने वाला—वक्ता यह सिद्ध करे कि वह निर्दिष्ट दिशा में चलने के लिए तत्पर है या नहीं? इसे सिद्ध करने का वास्तविक और प्रामाणिक मार्ग तो यही है कि वक्ता का पिछला एवं अब का क्रिया-कलाप उसी प्रकार का रहा हो। सफल मार्ग दर्शक वही हुए हैं जिनकी कथनी और करनी एक रही है। प्रामाणिकता ही सबसे अधिक प्रभावोत्पादक होती है और वह विचार तथा कार्यों का समन्वय करने वाली तन्मयता से ही उत्पन्न होती है। वक्ता का—मार्गदर्शक का स्तर ऐसा ही होना चाहिए।

उपस्थित जनता को यह जानने की सहज उत्सुकता रहती है कि वक्ता की तन्मयता जन्य प्रामाणिकता कितनी है। उपस्थित जनता में से अधिकांश लोग वक्ता के व्यक्तित्व और कर्तृत्व के बारे में अधिक नहीं जानते। इस अनजानेपन के कारण उनका सुनना एक कौतुहल मात्र रह जाता है। स्कूली अध्यापकों द्वारा छात्रों को दी गई जानकारी पाने जैसा लाभ तो उन्हें मिल जाता है, पर मस्तिष्क और हृदय की गहराई में प्रवेश कर सकने जितनी क्षमता उस वक्तृत्व में नहीं रहती चाहे उसकी कथन शैली कितनी ही आकर्षक क्यों न हो।

इस कठिनाई का एक हल यह है कि भाषण आरम्भ होने से पहले मंच पर उपस्थित सभा-संचालक वक्ता के अब तक के जीवनक्रम पर थोड़ा बहुत प्रकाश डालकर जनता पर यह छाप डालते हैं कि वक्ता बकवादी नहीं वरन् प्रतिपादित किये जाने वाले विषय के प्रति स्वयं बहुत आस्थावान रहा है। इस परिचय से सुनने वालों में उस स्तर की श्रद्धा उत्पन्न होती है जिसके आधार पर वे भाषण को ध्यानपूर्वक सुने और उससे प्रभाव ग्रहण करें।

कठिनाई का दूसरा हल वक्ता को अपनी तन्मयता प्रदर्शित करने के लिए भाषण के साथ-साथ भाव विभोरता की स्थिति प्रस्तुत करना भी है। यह सहज स्वाभाविक हो तब तो कहना ही क्या—पर यदि वैसी बात नहीं है तो भी यह आवश्यक है कि इस प्रकार का अभिनय किया जाय और अंग संचालन के सहारे प्रकट होने वाले भाव विभोरता को कुशलतापूर्वक व्यक्त किया जाय।

कई बार यह प्रदर्शन कुछ अकुशल लोगों द्वारा ठीक तरह नहीं बन पड़ता और उसमें भोंड़ापन आ जाता है तो लोग उस नकलीपन को ताड़ जाते हैं। ऐसी दशा में उलटी प्रतिक्रिया होती है और वक्ता को उपहासास्पद बनना पड़ता है। उसे ढोंगी समझा जाने लगता है। ऐसे ही अवसरों का स्मरण करके लोग ‘नेता’ को ‘अभिनेता’ की संज्ञा देने लगते हैं और कहते हैं कि नेता उन्नति करते-करते ‘अभि’ की उपाधि और अर्जित कर लेते हैं और पूरे अभिनेता बन जाते हैं। अभिनेता अर्थात् नट, बहरूपिया—वस्तु स्थिति से भिन्न प्रकार का प्रदर्शन करने में कुशल अभ्यस्त। इस फूहड़ स्थिति तक पहुंचे बिना वक्ता को पहले से ही यह प्रवीणता प्राप्त करनी चाहिए कि भाषण के समय उसका समग्र व्यक्तित्व भावविभोर न सही कम तन्मय एवं तरंगित दिखाई पड़ता रहे।

अंग संचालन और मुद्राओं का प्रदर्शन इस प्रयोजन की पूर्ति करता है। भावों का प्रकटीकरण करने में हमारा चेहरा सब से अधिक भूमिका निवाहता है। आंखों, से, ओठों से, भवों से, गोलों की मांस पेशियों से, माथे पर पड़ने वाली सलवटों से गरदन के हिलाने से, कन्धों की हरकत से यह जाना जा सकता है कि कहने वाला व्यक्ति किस भाव-प्रभाव में बहता चला जा रहा है। स्पष्ट है कि जीवन्त विचार शरीर को हरकत में ले आते हैं उससे अनायास ही अपने ढंग की हरकतें होने लगती हैं। क्रोध के आवेश में आये हुए, शोक में भरे हुए, निराशा से खिन्न, हिम्मत हारे हुए, उदास, असह्य क्षति के कारण दुःखित, कातर, असहाय, भयभीत, आतुर आदि विपन्न मनःस्थितियों में निमग्न व्यक्तियों को कुछ कहना नहीं पड़ता, उनके मन में किस स्तर की संवेदनाएं उठ रही हैं इसका अधिकांश आभास दूसरों को अनायास ही लग जाता है। कारण तो पूछने बताने से प्रकट होता है पर मनःस्थिति का, दिशा का बहुत कुछ प्रकटीकरण मुख-मुद्रा देखकर ही हो जाता है। लाभ प्राप्त, सफलता से प्रसन्न, आशान्वित, सुखद कल्याण में निमग्न, आश्वस्त, आशान्वित, संतुष्ट, सम्पन्न, गौरवान्वित मनःस्थिति छिपाये नहीं छिपती। कुरूप या रुग्ण व्यक्ति भी यदि इस तरह की मनःस्थिति में हो तो भी उसके चेहरे पर उस तरह की मनःस्थिति में हो तो भी उसके चेहरे पर उस तरह की उल्लसित मुद्राएं नाचती दिखाई देंगी।

वक्ता अपने प्रतिपादित विषय में तन्मय है या नहीं, इसका सहज प्रकटीकरण उसको मुद्राओं से होने लगता है। आंखें, होंठ, गाल, भवें मस्तक की त्वचा, गर्दन आदि का संचालन किस भावाभिव्यक्ति से किस प्रकार होता है, इसकी कोई पुस्तक नहीं छपी है और न किसी प्रशिक्षण में वैसा सिखाया जाता है। फिल्मों, नाटकों के अभिनेता और शिक्षकों से वैसा कुछ सीखते तो हैं, पर वह सब उथले दर्जे का होता है। चटकीले रंग के कपड़े बच्चों को शोभा देते हैं बड़ों के कपड़े रंगे भी हों तो उनका रंग हलका होना चाहिये। वक्ता को भावाभिव्यक्ति सीखने के लिए अभिनेताओं को मिलने वाला शिक्षण भी कुछ अधिक सहायक नहीं हो सकता। इस लिए इस दिशा में अपनी सहज बुद्धि से काम लेना पड़ता है। फिर हर आकृति और प्रकृति के—मनःस्थिति और परिस्थिति के व्यक्ति को भिन्न-भिन्न प्रकार से अपनी अभिव्यक्ति प्रकट करनी पड़ती है। जिस प्रकार हर मनुष्य की आकृति, आवाज आदि में भिन्नता होती है, उसी प्रकार उसकी भावाभिव्यक्ति, मुद्राएं भी भिन्न प्रकार की होती हैं। सब लोग एक ही ढंग से हंसें या रोयें, क्रोध या प्रसन्नता व्यक्त करें यह नहीं हो सकता। इसलिए प्रयत्न करने पर भी ऐसा कोई शास्त्र नहीं बन सकता। इस सन्दर्भ में फोटो छाप कर शायद हलकी-सी जानकारी दी जा सके, पर आज तो वैसा भी कुछ उपलब्ध नहीं है। अस्तु, हर वक्ता को शीशे के सहारे भिन्न-भिन्न मुद्राओं के अनुसार चेहरे पर उतार-चढ़ाव लाने—उनके कई प्रकार के प्रयोग करने का अभ्यास स्वयं ही एकान्त कमरे में बहुत दिनों तक करते रहना चाहिए। यदि कोई अत्यन्त विश्वस्त और भाव पारखी मित्र या स्वजन हो तो उसे भी इस प्रदर्शन में उपयुक्त सम्मति देते रहने के लिए साथ लिया जा सकता है, अन्यथा यह कार्य स्वयं ही करना चाहिए। प्रदर्शक और समीक्षक की—अध्यापक और सलाहकार की सारी भूमिका स्वयं ही निवाही जा सके तो उस समय में उपयुक्त मुद्राएं प्रदर्शित कर सकने में सफलता मिल सकती है।

चेहरे के बाद भाव प्रकटीकरण में हाथों कन्धों से लेकर कुहनियां कलाइयां और उंगलियां उन कार्य में बहुत सहायक होती हैं। निर्देश में उंगली का इशारा करके वैसा करने के लिए इशारा किया जाता है। समझाने को मुद्रा अध्यापकों द्वारा छात्रों के समझाने में हस्त संचालन को देख कर जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इनकारी में हाथ खोल कर उसे इस प्रकार हिलाना पड़ता है मानो अस्वीकृति प्रकट की जा रही हो। मुट्ठी बांधना दृढ़ निश्चय का चिन्ह है। भुजदण्डों का स्पर्श लड़ पड़ने की भावाभिव्यक्ति है। इसी प्रकार अन्यान्य भावों को भी कन्धों से लेकर उंगलियों तक तोड़-मरोड़ों से—उठाने गिराने, हिलाने से प्रकट किया जाता है। इसके लिए इस कला के निष्णात नेताओं-अभिनेताओं की मुद्राएं देख कर बहुत कुछ सीखा जा सकता है और नकलची बन्दर की तरह तो नहीं पर अपने ढंग से उसे अपने लिए उपयुक्त रीति से फिट करने का उपक्रम बनाया जा सकता है।

नृत्य में भावाभिव्यक्ति अंग संचालन द्वारा ही प्रकट की जाती है। पैरों की थिरकन-कटि प्रदेश, वक्ष, गरदन, आंखें, होठ, हाथ, कलाइयां, उंगलियां, अंगों के मोड़-तोड़ जैसे किया कलाप मिल कर नृत्य प्रक्रिया सम्पन्न करते हैं। गायक के साथ अथवा बिना गायक के और मात्र थोड़े से वाद्य यन्त्रों के सहारे नृत्य सम्पन्न होता है। यह अंग संचालन ही नर्तक की अपनी कुशलता है। उसकी कला का स्तर इसी आधार पर प्रकट होता है। उसे सराहना अभिव्यक्ति को अंग संचालन के साथ ठीक तरह समन्वित कर सकने की सफलता के कारण ही मिलती है। यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि वक्ता को नर्तक की तरह मंच पर जाना चाहिए और वैसी ही उछल कूद मचानी चाहिए। ऐसा करना तो परले सिरे की मूर्खता का प्रदर्शन होगा। इन पंक्तियों में सिर्फ इतना कहा जा रहा है कि अभिनय कला के सहारे भावाभिव्यक्ति के तथ्यों को सूक्ष्म दृष्टि से देखा-समझा जाना चाहिए और फिर अपने स्तर, व्यक्तित्व, प्रतिपादन, वातावरण, श्रोताओं का रुझान आदि को देखते हुए अपनी स्वतन्त्र बुद्धि से, सहज चेतना से यह निश्चित करना चाहिए कि कहां, कब, किस प्रकार, कितना अंग संचालन जनमानस को प्रभावित करने के लिए उपयुक्त हो सकता है। इसमें सहज संतुलन बना लेना ही यहां बुद्धिमानी एवं सूक्ष्म दृष्टि का चिन्ह माना जायेगा।

मुद्राओं के अतिरिक्त वाणी में रस और अलंकारों का समन्वय करते हुए उसे प्रभावोत्पादक बनाया जाता है। सामान्य खाद्य पदार्थों को षट्रस व्यंजनों में बदलने को पाक-विद्या कहते हैं। नमक, शक्कर, खटाई, मिर्च, हींग, जीरा, घी आदि के सहारे स्वाद बदले जाते हैं और खाने वालों को मजा इसी रस-सज्जा के आधार पर आता है। कुशल रसोइया जानते हैं कि किस प्रकृति के लोगों को किस प्रकार के व्यंजन बनाकर प्रसन्न किया जा सकता है। दावतों में कई स्वादों के कई आकृतियों के, खाद्य पदार्थ होने से ही सराहा जाता है। तस्वीर बनाने वाले चित्रकार कई रंगों के कई सम्मिश्रण बना कर आकृतियों को नयनाभिराम बनाते और आकर्षण उत्पन्न करते हैं। यह रंगों का उतार-चढ़ाव ही चित्र में अंकित आकृतियों द्वारा भावाभिव्यक्ति करता है और उसी कसौटी पर चित्रकार—चित्रकार की कला का मूल्यांकन किया जाता है। ठीक यही क्रम वाणी के उतार-चढ़ाव द्वारा भाषण में भावाभिव्यक्ति का प्रकटीकरण करता है। दुःखद दुर्घटना का—आततायी द्वारा किये गये उत्पीड़न का—शत्रु से भिड़ जाने का—उपलब्धियों पर संतोष व्यक्त करने का—सहयोग, अनुदान का—क्षमा और करुणा का—अवांछनीयता के प्रति रोष प्रकट करने का—व्यंग्य विनोद का सही प्रकटीकरण वाणी के उतार-चढ़ावों के बिना हो ही नहीं सकता। वाद्य-यन्त्रों में स्वर सप्तक बने होते हैं। बजाते समय उनके उतार-चढ़ाव का—क्रम व्यतिक्रम का—आरोह-अवरोह का ध्यान रखते हुए ही स्वर लहरी निनादित होती है। वादकों की कलाकारिता इसी कुशलता पर निर्भर है कि वे यन्त्र में बने हुए सप्तकों को किस उतार चढ़ाव के साथ—किस क्रम-विन्यास के साथ बजा सकने में सफल हो सके। सुनने वालों को आनन्द इसी आधार पर आता है और वादक की कुशलता इसी कौशल के कारण मिलती है। अमुक वक्ता की वाणी से अमृत झरता है—अमुक के भाषणों में जादू है—अमुक की वक्तृता मन्त्र मुग्ध कर देती है, जैसी अभिमत बहुत करके इसी आधार पर सुने जाते हैं कि वह अपने कथन-प्रवाह में स्वरों का संतुलित उतार-चढ़ाव प्रस्तुत करके किस प्रकार श्रोताओं के मन को सरसता की अनुभूति करा सका। यह सोचना उचित नहीं कि लोगों का स्तर उथला होता है इसलिए वे केवल हंसी-मजाक, निन्दा-स्तुति, क्रोध-प्रतिशोध, छल-रहस्य, पाप-अपराध जैसे ओछे विषयों में ही रस नहीं लेते। वस्तुतः ऐसी बात है नहीं। आदर्शों की दिशा में दिये गये उद्बोधन यदि कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किये जा सकें तो कोई कारण नहीं कि उनका भाव-प्रवाह हृदय स्पर्शी, आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक न हो। न तप्त लोहो लोहेन संघीयते

‘‘बिना गरम किये लोहा लोहे से नहीं जुड़ता।’’

भावनाओं की गर्मी पैदा करके मूर्छित लोकमानस को तपाया जाना चाहिए, ताकि उसे आदर्शों के साथ जोड़ा जा सकना संभव हो।

सुन्दर और सुडौल होने पर भी अन्यमनस्क मन से हाथ पैर नचाने वाला नर्तक दर्शकों के मन में गुदगुदी पैदा न कर सकेगा, मधुर स्वर होने पर भी गायक यदि लकड़ी की प्रतिमा की तरह जड़ बना बैठा रहे और ग्रामोफोन के रिकार्ड की तरह समाधिस्थ स्थिति में गाता चला जाय तो सुनने वालों में से किसी को संतोष न होगा। नर्तक को भाव-विभोर मनःस्थिति में नृत्य करना चाहिए और जिस गीत पर नृत्य हो रहा है उसके प्रत्येक चरण के साथ बदलते हुए भावों को प्रकट करने वाली मुख मुद्रा बनाये रहनी चाहिए। अंगों का संचालन तो उस सूक्ष्म भावानुभूति को अधिक स्थूल रूप में प्रकटीकरण के रूप में प्रस्तुत करने के लिए किये जाते हैं। चेहरे से, आंखों से भिन्न भाव टपक रहा हो और अंग शास्त्रीय नियम के अनुसार हिल-डुल रहे हों तो नृत्य एक प्रकार से निष्प्राण ही हो जायगा। आनन्द तो भाव और क्रिया दोनों के समन्वय से उत्पन्न होता है।

प्रभावोत्पादक गायन के बारे में भी यही बात है। गायक को अपने गीत में भावविभोर होना चाहिए। जिस स्थान पर जो संवेदनाएं हैं, उनसे गायक पूरी तरह प्रभावित हो रहा है, उस प्रवाह में बह रहा है इसे देखकर ही सुनने वाले की आत्मा उल्लसित होती है। स्वर का, गीत का, वाद्य का अपना-अपना स्थान है। गायन की आधी सफलता इन तीनों के मिलाने से बनती है और आधी सफलता इस बात पर निर्भर रहती है कि गायक अपने गीत में किस कदर भाव विभोर हो रहा था और उसकी वाणी, मुखाकृति, भाव-भंगिमा मुद्रा-विकास से संवेदनाओं का उभार कितनी मात्रा में प्रकट हो रहा था। यह तन्मयता नृत्य एवं गायन की ही नहीं भाषण की भी प्राण है। जो जड़वत् भाव शून्य मुद्रा में बैठा कहता चला जाता है वह और कुछ भले ही हो, भाव प्रवाह को सरस निर्झरिणी बहाने वाला और उपस्थित लोगों के अन्तःकरण को छूने वाला कलाकार तो निश्चित रूप से नहीं ही है।

वाणी के साथ भावाभिव्यक्तियों का समावेश—संगीत कला, पाक विद्या, चित्रकारिता आदि जैसी एक विशिष्ट कलाकारिता है। यह सहज भी है और कठिन भी। सहज इसलिए कि यदि मनुष्य वस्तुतः वैसी ही मनःस्थिति में हो तो अनायास ही स्वर में वे उतार चढ़ाव आते रहेंगे, जो श्रोताओं की अन्तःचेतना में उसी प्रकार की हलचलें उत्पन्न कर सकें। कुशल वक्ता अपनी नाव में बिठा कर उपस्थित जनता को अपनी प्रवाह दिशा में ले जाता है। उसकी अनुभूति में एकता—समस्वरता स्थापित हो जाती है और सुनने वाले वही सोचने को विवश हो जाते हैं जैसा कि भाषण कर्ता सोचता है। यह सफलता विषय की गरिमा का ही नहीं, वक्ता की भावाभिव्यक्ति और कलाकारिता की भी है। वह मुखाकृति, अंग संचालन मुद्राभिनय के आधार पर अपने भाषण को प्राणवान बनाता है। यह सब वे जंजीरें हैं जिनमें कसी हुई सुनने वालों की विचार शक्ति और भावस्थिति खिंचती चली जाती है। कुशल वक्ता अपने श्रोताओं को वहां तक पहुंचा देता है जहां तक पहुंचाने का उसका मनोरथ था। अपने जमाने को बदल देने में—परिस्थितियों को उलट देने में—अप्रत्याशित सफलताएं लोकनायकों ने अपनी वक्तृत्व शक्ति के आधार पर पाई हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने उन विशेषताओं को प्राप्त किया था जिनकी चर्चा उपयुक्त पंक्तियों में की गई है।

शब्दों की अपनी शक्ति है, पर उनका गठन क्रम सुव्यवस्थित प्रवाहपूर्ण और लालित्य युक्त होना चाहिए। औंधे-सीधे, उपयुक्त शब्दों को जोड़-गांठकर आधी अधूरी अभिव्यक्ति ही प्रकट की जा सकती है। कई बार इस प्रकार के कथन उलटी उलझन उत्पन्न कर देते हैं और सुनने वालों को उलझन में डाल देते हैं। वे वक्ता का सही प्रयोजन समझने तक में गड़बड़ा जाते हैं। ऐसी स्थिति उत्पन्न न होने पाये इसके लिए शब्दों पर अधिकार होना चाहिए। विषय के अनुरूप उनका गठन और प्रवाह रहना चाहिए। पुस्तक लेखन में जिस प्रकार अमुक लेखकों की शैली बहुत हृदयग्राही होती है और उनकी लिखी वस्तुओं को पढ़ने के लिए लोग लालायित रहते हैं, ठीक उसी प्रकार की स्थिति वक्ताओं की होती है। लेखकों की तरह वे भी अपने शब्द विन्यास में विशाल अध्ययन—प्रवाह क्रम की छाप छोड़ते हैं। यह सब विस्तृत अध्ययन, सूक्ष्म दृष्टि, पैनी पकड़ और उपयुक्त अभ्यास का प्रतिफल है। वक्तृता एक पूरी योग साधना है, उसे प्रखर बनाने के लिए उपरोक्त साधन जुटाने ही पड़ते हैं कठिन लगे तो उनसे बच निकलने और सहज कुशलता प्राप्त कर लेने का कोई उपाय नहीं है। यह सब अनिवार्य एवं आवश्यक माना जाना चाहिए और कोई अन्य सफल कलाकारी की तरह वक्तृत्व कला में निष्णात होने के लिए भी अत्यन्त तत्परतापूर्वक एकाकी अभ्यास की अनवरत साधना करना चाहिए। अपने कौशल को अधिकाधिक निखारने के लिए निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए।

यह सब सीखने और अभ्यास में उतारने की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि वस्तुतः वक्ता का व्यक्तित्व उस उच्च स्थिति का होता नहीं है कि यह सब कुछ सहज स्वाभाविक रूप से अनायास ही होता रहे। जिसका प्रिय जन मर गया है उसे रोने की कला सिखाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। विछोह जन्य कष्ट की अनुभूति उसी आंखों से आंसू बहाने और चेहरे पर विषाद की भरी पूरी अभिव्यक्ति प्रस्तुत कर रही होगी। जिसे कोई आशातीत सफलता मिली है उसे प्रसन्नता व्यक्त करने की मुद्राएं सिखाना निरर्थक है। बस सब तो वह सहज प्रकट कर रहा होगा। रोना और हंसना तो तब सीखना-सिखाना पड़ेगा जब वस्तुतः वैसा प्रसंग न होने पर भी दूसरों के सामने उस तरह का भाव प्रकट करना पड़े। महामानवों की भावाभिव्यक्तियां बालकों जैसे अकृत्रिम—सहज स्वाभाविक होती हैं। उन्हें इस संदर्भ में कुछ सीखना-सिखाना नहीं पड़ता। जो भीतर है वही बाहर निकलता चला आता है। असली ज्वालामुखी सहज ही आग और धुंआ उगलते रहते हैं। फिल्म खींचने के लिए नकली ज्वालामुखी बनाना हो तो ही यह सतर्कता बरतनी पड़ती है कि कृत्रिम को अकृत्रिम दिखाने में जिस चतुरता की आवश्यकता है, उसमें चूक न होने पाये।

जो हो भावाभिव्यक्तियों का प्रकटीकरण प्रत्येक दशा में आवश्यक है। वस्तुस्थिति सहज हो या कृत्रिम, सुनने वालों को प्रभावित करने के लिए यह जानकारियां प्रत्येक वक्ता को रखनी ही चाहिए। हीरा असली हो या नकली उसके पहल बनाना, घिसना और कोण बनाना तो दोनों ही स्थितियों में आवश्यक है। असली सोना-चांदी होने पर भी उसके आभूषण बनाने में लगभग वही सब करना पड़ता है जो नकली धातु के जेवर बनाने में। तीव्र बुद्धि और मन्द बुद्धि दोनों को ही शिक्षित बनने के लिए पाठ्य पुस्तकें तो वही पढ़नी पड़ती हैं। अन्तर इतना ही है कि स्वस्थ शरीर पर कैसे भी कपड़े फबते हैं और उनका सहज-सौन्दर्य स्वयमेव निखरता रहता है। दुर्बल व्यक्ति को सुन्दर बनाने के लिए कुछ अधिक परिश्रम करना पड़ता है। इतने पर भी नंगे फिरने से तो न स्वस्थ व्यक्ति का काम चलता है न अस्वस्थ का। सुयोग्य, कर्मनिष्ठ व्यक्ति भी यदि भाषण कला के नियमों और रहस्यों से अपरिचित, अनभ्यस्त होंगे तो उन्हें अभीष्ट प्रभावोत्पादन में सफलता न मिलेगी। इसके विपरीत इस कौशल में निपुण व्यक्ति कम से कम तत्काल तो बहुत कुछ प्रयोजन सिद्ध कर ही लेंगे।

यहां यह कहा जा रहा है कि वक्ता को अपने प्रतिपाद्य विषय में वस्तुतः प्रामाणिक होना चाहिए। उससे उसकी अभिव्यक्तियां सहज, स्वाभाविक होंगी और थोड़ी सी खराद कर देने पर वे असली हीरे की तरह जगमगाने लगेंगी। इस दिशा में जितनी कमी होगी उतनी ही कृत्रिमता, सतर्कता, चिरकालीन अभ्यास की आवश्यकता पड़ेगी। वक्तृत्व कला की सफलता में भावाभिव्यक्तियों की उपयोगिता का ध्यान रखना और अभ्यास करना तो हर हालत में आवश्यक ही माना जायगा।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118