भाषण और संभाषण की दिव्य क्षमता

वाणी की शक्ति एवं प्रखरता

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समर्थ गुरु रामदास का यह कथन सत्य है कि संसार भर में हमारे मित्र मौजूद हैं किन्तु उन्हें प्राप्त करने की कुंजी जिह्वा के ‘‘कपाट’’ में बन्द है।

मनुष्य की शिक्षा, सभ्यता, संस्कृति, बुद्धिमत्ता; चतुरता, विचारशीलता एवं दूरदर्शिता उसकी वाणी के माध्यम से ही दूसरों पर प्रकट होती रहती है। समाज में प्रतिष्ठा और प्रामाणिकता प्राप्त करने के लिए वाणी का परिष्कृत होना आवश्यक है। निन्दा करते रहने या कठिनाईयों के विरुद्ध खेद व्यक्ति करने से कुछ काम न बनेगा। हमें रचनात्मक उपाय खोजने पूछने और पड़ेंगे जो प्रधानतया सहयोग पर ही निर्भर हों। सहयोग उसी को मिलता है जो मुंह खोलकर अपनी पात्रता सिद्ध कर सकता है। बाइबिल में लिखा है—‘‘जरा परखो तो कि न्याययुक्त शब्दों में कितनी शक्ति भरी पड़ी है।’’

एमर्सन कहते थे—‘‘भाषण एक ऐसी शक्ति है। उसका प्रयोग अवांछनीयता से बिरत करने और श्रेष्ठता की ओर बढ़ने का प्रोत्साहन देने के लिए ही किया जाना चाहिये। प्लेटो ने लिखा है—‘‘मानवी मस्तिष्कों पर शासन कर सकने की क्षमता भाषण शक्ति में सन्निहित है।’’

किपलिंग की उक्ति है—‘‘शब्द मानव समाज द्वारा प्रयोग में लाया जाने वाला सर्वोत्तम रसायन है।’’

विचारों की शक्ति संसार में सर्वोपरि शक्ति है। उसी के सहारे नर पशु से भी गई बीती स्थिति में पड़ा हुआ व्यक्ति प्रगति की दिशा में अग्रसर होता है और विविध प्रकार की उपलब्धियों का अधिकारी बनता है। महामानवों की गरिमा—भौतिक क्षेत्र में बिखरा हुआ समृद्धि ज्ञान और विज्ञान द्वारा उत्पन्न सुख साधन-प्रगति के अनेकानेक सोपान-शान्ति और सुव्यवस्था के आचार विचार रूप वृक्ष पर लगे हुए फल हैं। मानवी प्रगति का मूल भूत आधार भी उसे कह सकते हैं। तत्वदर्शी विचारों की गरिमा का विवेचन करते हुए आश्चर्यचकित रह जाते हैं कि अदृश्य शक्ति के इस ऊबड़-खाबड़ संसार को किस प्रकार सुन्दर गुलदस्ते की तरह सुसज्जित कर दिया है।

एना हैप्सटन ने लिखा है—‘‘ईश्वर की इस दुनिया में तारागण चन्द्रमा, बादल, पर्वत, पुष्प और चित्र-विचित्र प्राणियों का सौन्दर्य पग-पग पर बिखरा पड़ा है। पर शब्दों के समान और कोई सुन्दर वस्तु इस लोक में है नहीं।’’

ई. डब्ल्यू. विक्कोक्स कहते हैं—‘‘मेरी धारणा है कि विचार अशरीरी नहीं—शरीरधारी हैं। उनमें बल भी है और पंख भी। वे संसार भर में भलाई और बुराई को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ढोते देखे जा सकते हैं।’’

पोप विक्टार कहा करते थे—‘‘काम इतने शक्तिशाली नहीं होते जितने विचार। किसी युग की सबसे बड़ी उपलब्धि का इतिहास उस समय में फैले हुए विचारों के आधार पर ही लिखा जाना चाहिए।’’

अलबर्ट स्वाइट्जर ने विचार-शक्ति को युद्ध से भी अधिक फलप्रद और शक्तिशाली सिद्ध करते हुए कहा है—‘‘आज परिष्कृत विचारों का नितान्त अभाव दीखता है। हमने ऐसे प्रश्नों पर युद्ध लड़ डाले जिनका हल युक्तिवाद के सहारे वार्तालाप से निकाला जा सकता था। विचारों की दृष्टि से जो नहीं जीत सका वह जीत जाने पर भी पराजित ही रहेगा।’’

मनीषियों को अपनी ज्ञान-साधन अपने तक ही सीमित नहीं रखनी चाहिये, वरन् उसका लाभ दूसरों तक पहुंचाना चाहिये। उसी में उनके स्वाध्याय एवं मनन-चिन्तन की सार्थकता है। समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन तत्वदर्शी लोग इसी प्रकार कर सकते है कि जन मानस का स्तर निरन्तर ऊंचा उठाने का प्रयत्न करते रहें, उसे नीचा न गिरने दें साधु और ब्राह्मण—मनीषी और तत्वज्ञानी सदा से लोक उद्बोधन में निरत रहकर जनता जनार्दन का पालन करते रहे हैं। ऐसी ही उनके लिए शास्त्र की आज्ञा भी है।

तीक्ष्णीयांसः परशीरग्नस्तीक्ष्णतरा उत। इन्द्रस्य वज्र तीक्ष्णीयांसो योषकस्मि पुरोहितः।।
—अथर्व 3।19।4

‘‘पुरोहित ऐसे प्रवचन करे जिससे लोग क्रियाशील, तेजस्वी, विवेकवान् और उपकारी बनें। वे अधोगामी न होने पावें।’’

शचीभिर्नः शचीवसू दिवानलं दशस्यतम्। मा वां रातिरुपद सत्कदा चनास्मद्रतिः कदाचन।।
ऋग्वेद 1।139

‘‘अध्यापक तथा उपदेशक उत्तम धर्मनीति और सदाचार की लोगों को शिक्षा दिया करे ताकि किसी की उदारता नष्ट न हो।’’

इतिहास साक्षी है कि वक्तृत्व शक्ति के सहारे कितने ही मनस्वी लोगों ने जन साधारण में हलचलें उत्पन्न कीं और उनके माध्यम से क्रान्तिकारी परिणाम प्रस्तुत हुए। बुद्ध महावीर, शंकराचार्य, विवेकानंद, दयानन्द, गुरु रामदास, गुरु गोविंदसिंह, विनोबा आदि आचार्यों द्वारा धर्मक्षेत्र में और गान्धी नेहरू, पटेल, लाजपतराय, मालवीय, तिलक, सुभाष, आदि नेताओं ने राजनीति के क्षेत्र में हलचले उत्पन्न कीं और उनकी प्रतिक्रिया कैसे सुखद परिवर्तन सामने लाई, यह किसी से छिपा नहीं है। संसार के हर कोने में ऐसे लोग हुए हैं जिनने अपने क्षेत्रों की सामयिक समस्याओं का हल बनाने के लिये भाषण शक्ति द्वारा जन प्रवाह को अपने साथ-साथ बहाने में आश्चर्यजनक सफलता पाई। ऐसे लोगों में डिमास्थनीज, टूलियस, सिसरो, नेपोलियन, मार्टिन लूथर, लिंकन, वाशिंगटन, लेनिन, स्टालिन, हिटलर, मुसोलिनी, चर्चिल आदि के नाम गिनाये जा सकते हैं।

कई बार कुशल वक्ताओं द्वारा उत्पन्न की गई प्रभावोत्पादकता देखते ही बनती है। सुनने वालों का दिल उछलने लगता है। वे रोमांचित होते, जोश में आते दीखते हैं। भुजायें फड़कने लगती हैं और आंखों में उनकी भाव विभोरता का आवेश झांकता है। सुनने वालों को हंसना, रुलाना, उछालना, फड़काना, गरम या ठंडा करना कुशल वक्त की अपनी विशेषता होती है। जिसे यह रहस्य विदित होता है और उसका अभ्यास, अनुभव है, उसे जनता के मन-मस्तिष्कों पर शासन करते देखा जा सकता है। परिमार्जित वक्तृता में एक प्रकार की विद्युतधारा सनसनाती हुई रहती है। उच्चारण की गति, शब्दों का गठन, भावों का समन्वय घटनाक्रम का प्रस्तुतीकरण, तर्क और प्रमाणों का तारतम्य, भावनाओं का समावेश रहने से वक्ता का प्रतिपादन इतना हृदयस्पर्शी हो जाता है कि सुनने वालों को अपनी मनःस्थिति को उसी की अनुगामिनी बनाने के लिए विवश होना पड़ता है।

नैपोलियन की वाणी में जादू था, वह जिससे बात करता उसी को अपना बना लेता था। उसके निर्देशों को टालने की कभी किसी की हिम्मत नहीं हुई। वह जब बोलता तो साथियों में जोश भर देता था और वे मन्त्र मुग्ध की तरह आदेशों का पालन करने के लिए प्राणपण से जुट जाते थे। हिटलर जब बोलता था तो जर्मन नागरिकों के खून को खौला देता था। लेनिन ने दबी-पिसी रूसी जनता को इतना उत्तेजित कर दिया कि उसने शक्तिशाली शासकों से टक्कर ली और उनका तख्ता पलट दिया। सुभाषचन्द्र बोस ने प्रवासी भारतियों को लेकर आजाद हिन्द फौज ही खड़ी कर दी। मार्टिन लूथर ने पोप शाही पोंगा पन्थी की गहरी जड़ों को खोखला करके रख दिया और योरोप भर में धार्मिक क्रान्ति का नया स्वरूप खड़ा कर दिया। गान्धी ने भारतीय जनता को स्वतन्त्रता संग्राम में मोर्चे पर खड़ा कर देने में जो सफलता पाई उसमें उनकी वक्तृत्व शक्ति का अद्भुत योगदान था।

अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का व्यक्तित्व आकर्षक न था। वे दुबले, लम्बे और कुरूप थे। घरबार की दृष्टि से भी वे निर्धनों में ही गिने जाते थे। पर उनकी भाषण प्रतिभा अनोखी थी। प्रधानतया इसी गुण के कारण इतने लोकप्रिय हो सके और उस देश के राष्ट्रपति चुने जा सके। जब तक उनके पास भाषण की पर्याप्त सामग्री एकत्रित न हो जाती तब तक वे कभी बोलना स्वीकार न करते।

भगवान बुद्ध ने दुष्प्रवृत्तियों की बाढ़ को रोकने के लिए पैनी वाक्शक्ति का उपयोग किया। उनके प्रवचन बड़े मर्मस्पर्शी होते थे। यही कारण था कि उनके जीवन काल में ही लाखों व्यक्ति भिक्षु और भिक्षुणी बन कर, धर्म चक्र प्रवर्तन में अपनी समस्त सामर्थ्य झोंक कर धर्म प्रचारक बन गये।

भारत के स्वतन्त्रता संग्राम को जन्म देने, आगे बढ़ाने और सफल बनाने में जिन नेताओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निबाही, वे सभी कुशल वक्ता थे, दादाभाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, रानाडे, गोखले, लोकमान्य तिलक, विपिन चन्द्रपाल, चितरंजन दास, महात्मा गांधी, पं. मोतीलाल नेहरू, सुभाषचन्द्र बोस, लाजपतराय, महामना मालवीय, रोजगोपालाचार्य जवाहरलाल नेहरू आदि के भाषण भारतीय जनता में प्राण फूंकते थे। उनकी भाषा बड़ी ओजस्वी और मर्मस्पर्शी होती थी। वक्तृत्व कला की दृष्टि से उनके भाषण बड़े प्रभावशाली, प्रवाहपूर्ण और प्रथम श्रेणी के माने जाते थे। उन लोगों की सफलता के कारण तलाश करने पर कुछ तथ्य स्पष्ट रूप से सामने आते हैं। पहला यह कि उनके सामने जो लक्ष्य था उसमें अनीति का विरोध करने के लिए प्राण होम देने के लिए आतुर साहस—सर्वतोभावेन मातृभूमि के लिए आत्मसमर्पण—लक्ष्य की ओर द्रुतगति से बढ़ चलने की तड़पन—स्वार्थसिद्धि से कोसों दूर त्याग बलिदान की प्रचण्ड निष्ठा—जैसे भावनात्मक कारण मुख्य थे।

जिनके पीछे पानी का दबाव अधिक होता है वे नदियां एवं झरने बड़ी तेजी से बहते हैं, उनकी लहरें, हिलोरें तथा ध्वनियां बड़ी मनोहारिणी होती हैं। जिनके पीछे दबाव न हो, उनका पानी बहता तो है पर उनमें मन्दगति की निर्जीवता ही दिखाई देती है। यही बात भाषणों के सम्बन्ध में है। वक्ता की भावनाएं जितनी प्रचण्ड होंगी प्रतिपाद्य विषय में उसकी निष्ठा, लगन, तत्परता, तन्मयता, आकुलता का जितना गहरा पुट होगा, उतना ही ओज वाणी में भरा होगा। सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्र में स्वामी विवेकानन्द, रामतीर्थ, रामदास, गुरुगोविन्दसिंह, दयानन्द, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, राममोहन राय आदि के भाषण बड़े प्रभावशाली रहे हैं। सूर, तुलसी, कबीर, दादू, रैदास, चैतन्य आदि के भजन सुन कर लोग भाव विभोर हो उठते थे। उसमें उनका कंठ स्वर अथवा कविता का शब्द गठन उतना उच्च स्तरीय नहीं था जितना कि उनका तादात्म्य व्यक्तित्व। ऐसे लोगों की वाणी कदाचित् लड़खड़ाती भी हो और शब्दों का चयन उतना अच्छा न बन पड़े, तो भी लोग उस कमी पर ध्यान नहीं देते। गांधीजी के भाषण, भाषण-कला की दृष्टि से उतने अच्छे नहीं होते थे, फिर भी उनका व्यक्तित्व वाणी के साथ घुला होने के कारण उन्हें लोग न केवल श्रद्धापूर्वक सुनते थे, वरन् बहुत अधिक प्रेरणा भी ग्रहण करते थे।

वक्ता, लेखक, कवि, गायक, अभिनेता आदि कलाकार माने जाते हैं। उनकी अभिव्यक्तियां बहुत कुछ इस बात पर निर्भर रहती हैं, कि उन्हें स्वयं कैसी अनुभूतियां होती हैं। यदि उनका निज का अन्तःकरण नीरस और शुष्क हो—व्यवसाय बुद्धि से बेगार भुगतने के लिए वह सब कुछ कर रहे हों, तो उनका भाषण, लेखन, कविता गायन, अभिनय आदि स्पष्टतः नीरस दिखाई पड़ेंगे, भले ही उन पर मुलम्मा कैसा ही क्यों न चढ़ाया गया हो। विद्वान् सदा से यही कहते रहे हैं कि जब भीतर से भावनाएं फूटी पड़ रही हों तभी उनके प्रकटीकरण का साहस करना चाहिए। संसार के महामानव ओजस्वी वक्ता भी रहे हैं, इसे दो तरह कहा जा सकता है। वाक्शक्ति के कारण वे ऊंचे स्तर तक पहुंच सके अथवा उनका भावना प्रवाह ऊंचा होने के कारण वाणी में ओजस्विता उत्पन्न हुई। कहा किसी भी तरह जाय वस्तुतः दोनों परस्पर अविच्छिन्न और अन्योन्याश्रित हैं। दोनों तथ्य पूर्णतया परस्पर घनिष्ठता पूर्वक मिले हुए हैं।

वाणी की ओजस्विता और भावनाओं की प्रखरता दोनों को एक ही सिक्के के दो पहलू कहना चाहिए। सही तरीका यह है कि जिसके भीतर ज्ञान और भाव का निर्झर फूटता हो उसे अपनी अभिव्यक्ति करनी चाहिए। दूसरा तरीका आरम्भिक अभ्यास की दृष्टि से यह भी हो सकता है कि जब बोलना हो तब प्रतिपाद्य विषय में अपनी सघन श्रद्धा और तत्परता उत्पन्न करने का प्रयास करना चाहिए। स्वाभाविक न होने पर उसे लोग नाटकीय भी बताते हैं और उस आधार पर भी वाणी में प्रभाव उत्पन्न करते हैं। सोचने की बात है कि जब कृत्रिमता के बल पर लोग अपना काम चला लेते हैं और बहुत हद तक अभीष्ट सफलता प्राप्त कर लेते हैं तो वास्तविक होने पर कितना अधिक और अस्थाई प्रभाव उत्पन्न किया जा सकेगा। अभ्यास अनुभव, इच्छा एवं सतर्कता से कोई भी कला सीखी जा सकती है। धैर्यपूर्वक देर तक प्रयत्न करने और हर बार पिछली भूल का परिष्कार करते हुए नये सुधारों का समन्वय करने से प्रत्येक कलाकार प्रगति करता है। वक्तृत्व कला भी यही सब चाहती है। यह भी उन्हीं शाश्वत तथ्यों के आधार पर निखरती है जिनके सहारे अन्य कलाकार उच्च स्तरीय सफलता तक पहुंचते रहे हैं।
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