भाषण और संभाषण की दिव्य क्षमता

भाषण का स्तर गिरने न दें

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विचारों की उपयोगिता का ध्यान रखना वक्ता का पवित्र कर्तव्य और महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व है। निस्सार निरर्थक बातें भी मनोरंजक बना कर लोगों को सुनाई जा सकती हैं और उस विनोद का रस लेने के लिए श्रोताओं को देर तक रोके रहा जा सकता है। बौद्धिक श्रम से बचने वाले अविकसित मस्तिष्क वालों के लिए तो प्रवचन भी एक मनोरंजन का स्थल ही होता है। वे तभी बैठते हैं जब हलकी-फुलकी—हंसाने गुदगुदाने वाली सामग्री मिलती रहे। कई वक्ता लोक रंजन में प्रवीणता प्राप्त करते हैं और जनता को देर तक रोके रहने को अपनी लोकप्रियता बताते हैं। सभा संयोजक भी अक्सर ऐसे ही लोगों को बुलाते हैं। आकर्षण का यह उथला तरीका वस्तुतः विचारशीलता का उपहास है। विदूषकों को बुलाकर—रीछ बन्दर नचाने अथवा बाजीगरी जैसा खेल दिखा कर बच्चों को इकट्ठा कर लेना और कुछ समय उन्हें हंसाते गुदगुदाते रहना बाल बुद्धि के सभा संयोजकों और घटिया वक्ताओं का ही काम है। समय बहुमूल्य है। सभा मंच व्यास पीठ की तरह पवित्र है वहां से मार्ग दर्शन और लोक शिक्षण ही होना चाहिए। लोकरंजन नहीं, लोक मंगल वक्ता का लक्ष्य होना चाहिए। उसे विदूषक को नहीं लोकनायक की भूमिका निवाहनी चाहिए और व्यास की श्रद्धास्पद पदवी की गरिमा नष्ट नहीं होने देना चाहिए।

भाषण में आवेश एवं उत्तेजना का दिखाया जाना वक्ता का अच्छा गुण नहीं है। कोई अत्यन्त ही महत्वपूर्ण बात हो तो अलग—अन्यथा सीधे, सरल, सौम्य और शालीन ढंग से प्रवाहपूर्ण, ओजस्वी और संतुलित शैली में ही बोलना चाहिए। बात-बात में उत्तेजित होना—आवेशग्रस्त होकर बोलना—विरोध-पक्ष के लिए अभद्र एवं अपमान जनक शब्दों का उपयोग करना, यह सिद्ध करता है, कि वक्ता शालीनता के स्तर से नीचे उतर आया है। जिनका विरोध करने के लिए आवेश प्रकट किया गया था, उन्हें निरस्त कर सकने या न कर सकने की बात तो बहुत पीछे की है—पर अपने प्रति सुनने वालों में अश्रद्धा पैदा हो जाना तो ऐसी क्षति है जो तुरन्त दिखाई देने लग जाती है। इससे बोलने वाला अपनी प्रभाव डालने की प्रामाणिकता ही खो बैठता है। व्यक्ति का-घटना या प्रवृत्ति का विरोध किया जा सकता है, किया जाना चाहिये, पर उसमें सफलता गाली देने से नहीं मिलेगी। बुराई के कारण लोगों को जो क्षति उठानी पड़ती है उत्पीड़न सहना पड़ता है, उसका करुणाजनक चित्र इस प्रकार खींचना चाहिए कि सताये गये पक्ष के प्रति गहरी घृणा उत्पन्न हो। यही तरीका है जिससे अपने पक्ष की रक्षा करते हुए प्रतिपक्ष को परास्त किया जा सकता है। अभद्र शब्दों का प्रयोग करने की, क्रोध करने की अपेक्षा यह कहीं अधिक कारगर उपाय है कि अवांछनीयता के द्वारा जो शोषण, उत्पीड़न होता है उसका रोमांचकारी चित्र खींचा जाय और उस अनाचार के प्रति जनता का रोष उभारा जाय।

भाषण में अत्युक्तियां नहीं होनी चाहिए। सामान्य बुद्धि वाले भी यथार्थता और बढ़-चढ़ कर हांकी गई गप्पों का अन्तर समझ लेते हैं। तिल को ताड़ बनाने वाले, दूसरों को अधिक प्रभावित करने के लिए किये गये अपने प्रयास में प्रायः असफल ही रहते हैं उन्हें झूठा और बेपर की उड़ाने वाला कहा जाने लगता है।

किसी व्यक्ति विशेष या वर्ग विशेष को दोषी ठहराने की अपेक्षा यह अच्छा है कि उस बुराई पर ही हमला किया जाय, जिसके कारण लोग अनाचारी बनते हैं और अव्यवस्था उत्पन्न करते हैं। पुलिस वाले रिश्वत लेते हैं और अपराधियों को प्रश्रय, प्रोत्साहन देते हैं। यह कहने की अपेक्षा यों कहना अच्छा है कि ‘‘रिश्वतखोरी की बुराई उन सरकारी अधिकारियों को भी अपने चंगुल में जकड़ लेती है, जिनके कन्धों पर अपराधों की रोकथाम का उत्तरदायित्व है। रिश्वत ऐसी बुराई है जिसका चस्का लगने पर रक्षक ही भक्षक बनने लगते हैं और जिनका दमन करना चाहिये उन्हीं को प्रश्रय देने लगते हैं।’’ इन दोनों कथनों में भारी अन्तर है। एक में पुलिस विभाग का ही भ्रष्टाचारी ठहराया गया था, जब कि उसमें सभी वैसे नहीं होते। इन बेईमानों के कारण उनके साथ भी अन्याय होता है जो भ्रष्ट नहीं है। किसी वर्ग विशेष को पूरी तरह दोषी ठहरा देना अनुचित है। उचित यही है कि उस बुराई पर हमला किया जाय जो अनेकों सरकारी और गैर सरकारी विभागों में गहराई तक जमे जमाये हुए हैं। यहां तक कि वोट देने वाले भी रिश्वत लेकर अपना मत देते देखे गये हैं। व्यापक बुराई के लिए उस दुष्प्रवृत्ति के प्रति ही घृणा पैदा की जानी चाहिए। एक छोटे वर्ग तक उसे सीमाबद्ध कर देने में औचित्य कम और आवेश अधिक है। वक्ता को दूरदर्शी और यथार्थवादी होना चाहिए। अनुचित कार्यों की भर्त्सना करते हुए कहीं ऐसा न हो जाय कि औचित्य की मर्यादा का अपनी ही ओर से उल्लंघन होने लगे। वक्ता को निष्पक्ष न्यायाधीश जैसी भूमिका निभानी चाहिए।

किसी वर्ग विशेष पर आक्षेप करना अनुचित है प्रत्येक वर्ग में भले और बुरे होते हैं। यदि पूरे वर्ग की निन्दा की जाय तो उसकी लपेट में ऐसे लोग भी आ जाते हैं जो उस वर्ग में होते हुए भी अनौचित्य से बचे हुए हैं। अपना काम ईमानदारी से करते हैं। पूरे वर्ग के लपेटने से इन ईमानदार लोगों को भी बदनाम होना पड़ता है और उनके साथ अन्याय होता है रिश्वतखोरी, बेईमानी, अनीति, ढोंग बाजी की भरपूर निन्दा की जा सकती है और जो भी वैसा करते हों उन्हें लताड़ा जा सकता है, पर किसी पूरे वर्ग को दोषी ठहरा देना अनुचित है। अनीति का विरोध करते हुए स्वयं अनीति बरतने लगना यह अनुचित है। रिश्वत के लिए पुलिस वाले बदनाम हैं झूंठी गवाही गढ़ने में वकील प्रवीण हैं दूध वाले पानी मिलाते हैं—साधु बाबा ढोंगी होते हैं आदि आक्षेप एक हद तक सही हैं। इन वर्गों में से ईमानदारी पूर्णतया समाप्त हो गई है और सभी लोग भ्रष्ट बन गये हैं ऐसा नहीं है। फिर पूरे वर्ग पर आक्षेप कैसे किया जा सकता है। यदि वक्ता ऐसा करता है तो उस वर्ग में से कोई व्यक्ति अपनी मानहानि का दावा अदालत में कर सकता है। और वक्ता को दण्ड दिला सकता है।

भाषण में भावों का उतार चढ़ाव तो होना चाहिए पर असंतुलित आवेश व्यक्त नहीं करना चाहिए। प्रतिपक्ष के लिए गाली गलौज पर उतर आना—अत्युक्तियों का उपयोग करना, घटना का एक पक्षीय पहलू रखना, अपने पक्ष को बढ़ा-चढ़ा कर कहना जैसी बातें इसलिए की जाती है कि जनमत तत्काल अपने पक्ष में हो जाएगा, पर वैसा होता नहीं। इस असंतुलन और पक्षपात को देखकर जनता उसकी प्रामाणिकता में संदेह करने लगती है। आवेशग्रस्त और पक्षपाती व्यक्ति अविश्वसनीय माने जाते हैं। उन्हें बहकाने वाला समझा जाता है। ऐसे लोगों के प्रामाणिक तथ्य भी संदिग्ध दृष्टि से ही देखे जाते हैं और सोचा जाता है कि उनमें भी अत्युक्ति तो नहीं बरती गई है। वक्ता को अपनी प्रामाणिकता के प्रति संदेह उत्पन्न न होने देने के लिए संतुलित रहना चाहिए। प्रतिपक्ष की मान्यताओं एवं गतिविधियों का तर्क संगत, सभ्य, शालीन शैली में निराकरण करना उत्तेजना प्रयोग की अपेक्षा कहीं अधिक स्थायी प्रभाव उत्पन्न करता है।

अप्रामाणिक आंकड़े प्रस्तुत करने की अपेक्षा यह अच्छा है कि उस बात को बिना आंकड़ों के कहा जाय। ‘‘भारत में हर दिन दस लाख या एक करोड़ बच्चे जन्म लेते हैं।’’ ऐसा कहने की अपेक्षा यदि तथ्य सही रूप से मालूम न हो तो इतना ही कहना काफी है कि अपने देश में बच्चों का होना इतनी तेजी से हो रहा है जिसके कारण समस्याएं और उलझनें बेहिसाब बढ़ने की संभावना है। किसी सड़क की लम्बाई मालूम न हो या बांध की लागत के सही अंक विदित न हों तो कुछ भी अंक प्रस्तुत करने लगना बुरा है। जो वास्तविकता को जानते हैं वे उस कथन को मूर्खता पूर्ण समझेंगे। पीछे वास्तविकता का पता लगाने पर अन्य लोग भी उस बात को गलत ठहरायेंगे। यह वक्ता पर गलत बयानी का आक्षेप है। जो बातें सही मालूम नहीं हैं उनके संबंध में गोल शब्दों का प्रयोग करते हुए अपना अभिमत व्यक्त करना चाहिए।

कटु वचन और परामर्शों ने संसार में जितनी विपत्ति उत्पन्न की है उतनी शायद सब बुराइयां मिल कर भी न कर सकी होंगी। बर्क ने यथार्थ ही कहा है—‘‘संसार को दुःखमय बनाने वाली विपत्तियां अधिकतर दुष्ट शब्दों के कारण ही उत्पन्न होती हैं।’’ जीसस क्राइस्ट का एक उपदेश है—‘‘सर्प-विष से भी अधिक जहरीले कटु वचनों के दांत अपने साथियों के हृदय में मत घुसाओ । वे उन्हें सहन न कर सकेंगे। विक्टर ह्यूगो ने एक जगह कहा है कड़वे शब्द इस बात की निशानी है कि वक्ता का तर्क-तरकस खाली हो चुका है। अब वह दिवालिया होकर गाली-गलौज का ओछा हथकंडा अपना रहा है।’’

जिह्वा यतो वृद्धि विनाशौ। —चाणक्य सूत्र

‘‘जीभ ही उन्नति कराती है और वही विनाश के गर्त में धकेलती है।’’

‘‘रे जिह्वे कुरु मर्यादां वचने भोजने तथा। वचने प्राण सन्देहों भोजने स्यादजीर्णता।।’’

‘‘हे जिह्वा! बोलने और खाने में मर्यादा बरत। अनुपयुक्त बोलने से प्राण संकट उत्पन्न होता और अमर्यादित खाने से पेट दुखता है।’’

महाभारत रचा देने का—दोनों पक्ष के अगणित योद्धाओं को मृत्यु-मुख में धकेल देने का उत्तरदायित्व द्रोपदी के उन कटु शब्दों पर है जो संख्या की दृष्टि से तो कम थे पर अपमानित करने की दृष्टि से विष बुझे तीर जैसे सिद्ध हुए। उसने कौरवों पर व्यंग्य करते हुए कहा कि ‘‘अन्धों के अन्धे ही होते हैं।’’ यों इस उच्चारण में अक्षर 9 ही होते हैं, पर वे कितने मर्मभेदी बने इसे हर कोई जानता है। अपमान से क्रुद्ध सर्प की तरह फुसकारते हुए कौरव द्रौपदी को, उसके परिवार को नीचा दिखाने को आतुर हो उठे। प्रतिशोध ने ही उन्हें अड़ियल बनाया। अन्यथा जहां तक कुछ भूमि का, धन का संबन्ध था, वह बात आसानी से समझौता स्तर पर पहुंच सकती थी। द्रोपदी को जुए में जीतकर उसे भरी सभा में नंगा करने से लेकर पाण्डवों के विनाश के लिए रची गई अनेक दुरभिसंधियों के पीछे प्रतिशोध की ही प्रधान भूमिका थी। उसी ने इतने बड़े जन समुदाय को—इतनी प्रतिभाओं को भूमिसात् करके रख दिया। महाभारत समाप्त होने के बाद मिली विजय और पराजय भी कोई उद्देश्य पूरा न कर सकी। पीछे परिस्थिति और भी उछलती चली गई। इस दुर्भाग्यपूर्ण प्रकरण के पीछे वे कटु शब्द ही अट्टहास करते दिखाई पड़ेंगे जो द्रोपदी के मुख से जाने या अनजाने निकल गये थे। शब्द की शक्ति प्रचंड है। उनका प्रयोग दुधारी तलवार जैसा है। उससे हित और अनहित इतना बड़ा हो सकता है जिसे अप्रत्याशित कहा जा सके। इसीलिए मनीषियों ने विचार पूर्वक मुंह खोलने और फूंक-फूंक कर वाणी का उपयोग करने का निर्देश दिया है। साथ ही चेतावनी दी है कि अवांछनीय सम्भाषण अत्यन्त दुखद हो सकता है। इसी प्रकार नीति ग्रन्थों में मधुर संभाषण को वशीकरण मंत्र जैसी आकर्षक उपमायें देकर उसके अभ्यस्त होने के लिए कहा गया है।

मर्मभेदी व्यंग्य आक्षेप, दोष रोपण कटु भाषण करना वक्ता का दोष है। उससे उसकी असहिष्णुता और उद्धत मनःस्थिति का परिचय मिलता है। लोग समझते हैं कि कटु वचनों का उपयोग करके अथवा प्रतिपक्ष की आवेशपूर्ण भर्त्सना करके सुनने वालों को आसानी से प्रति पक्ष का विरोधी बनाया जायगा। पर होता है उससे ठीक उलटा ही। दो व्यक्तियों की लड़ाई में एक अनाप-शनाप गाली बक रहा हो और दूसरा हाथ जोड़े सिर झुकाये खड़ा हो, तो देखने-सुनने वाले गाली देने वाले को ही दोषी ठहराते हैं भले ही मूल में उन नम्र खड़े व्यक्ति ने ही अक्षम्य अपराध क्यों न किया हो। कटु वचन गाली के बराबर है और उससे पहले हानि अपनी ही होती है। अपना स्तर तत्काल घट जाता है और प्रभाव तथा शक्ति बुरी तरह नष्ट हो जाती है।

निरहंकारी और विनम्र व्यक्ति कटु वचन नहीं बोल सकते। मर्म भेदी शब्द तो उस उद्धत, अहंकारी के मुख से ही निकलते हैं जो दूसरों को तुच्छ समझता है और उनका तिरस्कार करने में नहीं चूकता। कटु वचन न बोल—मीठी बात कहे, यह अभ्यास का विषय नहीं आन्तरिक स्थिति पर निर्भर है। नम्रता अपनाई जाय, निरहंकार बना जाय, अहंमन्यता हटाई जाय और दूसरों का सम्मान करने की सज्जनता अपनाई जाय तो स्वतः ही कटुशब्दों का उच्चारण घटता चला जायगा। जहां स्नेह, सौजन्य होगा वहां असहिष्णुता दृष्टिगोचर न होगी, लोगों को स्वजन सुहृद की दृष्टि से देखा जाय, उनके कार्यों में दुष्टता नहीं भूल देखी जाय और उसके लिए दण्डित करने की नहीं सौम्य सुधार की बात सोची जाय तो जिनसे आये दिन झगड़ा होता रहता है उनसे भी साधारण वार्तालाप के सहारे तालमेल बिठाया और सद्भाव बनाये रखा जा सकेगा। आन्तरिक सद्भावना की वृद्धि और कटु-कर्कश भाषण की पुरानी आदत को निरत करने, की ठान ली जाय तो वाणी के उद्धत, असंयमी होने का दोष दूर हो सकता है। बोलने से पहले सोचना, थोड़ा, नम्र और सारगर्भित बोलना-सामने वाले के सम्मान और अपने सौजन्य की रक्षा करते हुए बोलना, यदि निरन्तर ध्यान में बना रहे तो वीणा सहज ही सुसंस्कृति होती चलेगी। वाणी को अमृत बरसाने वाली और दूसरों का हृदय जीतने वाली इसी मार्ग पर चलाते हुए बनाया जा सकता है। प्रभावशाली वक्ता बनने का ठोस उपाय यही है।

वक्ता का आवश्यक गुण नम्रता बताया गया है। वाणी को परिष्कृत और शैली को माधुर्य और सज्जनता से भरी रखने के लिए कहा गया है। मार्गदर्शक सदा ऐसा ही परामर्श देते रहे हैं—

‘‘हमारी जिह्वा में शहद जैसी मधुरता भरी हो। हम आदि से अन्त तक मधुर से ओत-प्रोत रहें।’’

—अथर्ववेद

‘‘हमारी वाणी पवित्र ओजमयी और मधुर हो।’’ —अथर्ववेद

‘‘वाणी को उच्छृंखल न होने दो। बोलते समय सतर्कता बरतो। इस तरह बोलो जैसे शालीन लोग बोला करते हैं।’’ —धम्मपद

भ्रष्ट वाणी तन को नष्ट करती है। कटुभाषी निकृष्ट है और शापग्रस्त। —गुरु ग्रन्थ साहब

दक्षः श्रियमधिगच्छति, पथ्याशी कल्पतां सुखमरोगी। उद्यमयुक्तों विद्वात्तां, धमार्थ यशांस्ति च विनीतः।। —हितोपदेश

‘‘निपुण व्यक्ति संपत्ति पाता है। पथ्य भोजन करने वाली नीरोग रहता है, उद्यमी विद्वान बनते हैं और विनम्र को धर्म, धन यश प्राप्त होता है।’’

शुक्रनीति में कहा गया है—‘‘नम्रता के तीन लक्षण हैं—कड़वी बात का मीठा उत्तर देना—क्रोध आने पर चुप रहना-अपराधी को दण्ड देते समय सहृदयता बरतना। ऐसी सूक्तियों की कमी नहीं जिनमें कुछ कहने से पूर्व वाणी को सुसंस्कृत बनाने का ध्यान रखने का परामर्श दिया है, यथा—

नमन्ति फलिना वृक्षा, नमन्ति विबुधा नराः।

‘‘फलवान वृक्ष नमते हैं और बुद्धिमान व्यक्ति भी नम्रता अपनाते हैं।’’

अप्रासंगिक, असंबद्ध बातें कह कर भाषण को दिशा विहीन, लक्ष्य रहित बना देना बहुत बुरा है। प्रायः तथाकथित सत्संगों में बेसिलसिले की असंबद्ध बातें होती रहती हैं, और किसी निष्कर्ष पर न पहुंचाकर ऐसे ही सुनने वालों को हवा में इधर-उधर उड़ते पन्नों की तरह उड़ाती रहती हैं। घर जाते समय वक्ता सोच नहीं पाता है कि उसने क्या कहा, क्या समझाया गया और किस निष्कर्ष पर पहुंचने की प्रेरणा दी गई। ऐसे बिखरे हुए भाषण चाहे जितने रोचक क्यों न हो लक्ष्य भ्रष्ट होने के दोषी कहलायेंगे। सुनने वालों को क्या प्रेरणा देनी है, उन्हें किस निष्कर्ष पर पहुंचाना है, यह ध्यान में रखते हुए अपने कथन का स्पष्ट लक्ष्य वक्ता के सामने रहना चाहिये और उसी दिशा में क्रमबद्ध रूप से ऐसे तथ्य प्रस्तुत करते रहना चाहिए जिससे सुनने वाला निर्धारित लक्ष्य तक पहुंच सके। ऐसे लक्ष्य युक्त और सीमित मर्यादा में अधिक गम्भीर विवेचन करने से ही वक्ता का गौरव बढ़ता है और सुनने वाले का समय सार्थक होता है। हंसी-मजाक की इधर-उधर की—बेसिलसिले की—किस्से कहानियां सुनाने से केवल विनोद, मनोरंजन हो सकता है। उससे भाषण की सार्थकता, वक्ता की गरिमा सिद्ध नहीं होती।

भाषण में रोचकता का समावेश रखा जाय पर इसका अर्थ यह नहीं कि भाषण को मसखरी, दिल्लगीबाजी, गपशप मात्र बनाकर उसका स्तर ही समाप्त कर दिया जाय। भाषण मार्ग दर्शन एवं अभीष्ट चेतना उत्पन्न करने के लिए किये जाते हैं और वह प्रयोजन सिद्ध न हो सका तब तो सभी को मनोरंजक अभिनय-प्रहसन ही कहा जायगा। अप्रासंगिक दिल्लगीबाजी से सरसता उत्पन्न करना अवांछनीय है। दाल में नमक ठीक है पर नमक में दाल डाल दी जायगी तो उपयोगिता ही नष्ट हो जायगी। वक्ता का स्पष्टवादी होना आवश्यक है। लोगों को मन सुहाती बात न कहीं जा सके तो सुनने वाले नाराज होंगे इस भय से डर कर अपने मन की बात को छिपाना उचित नहीं। हर आदमी को अपनी आत्मा के सामने सच्चा होना चाहिए और विचारों के प्रति ईमानदार। हर बात हर समय कहने की आवश्यकता नहीं होती पर जब जहां जो बात स्पष्ट करनी आवश्यक है वहां उसे इसलिए नहीं दबाया छिपाया जाना चाहिए कि सुनने वाले उससे असहमत या रुष्ट होंगे। वक्ता का काम लोकरंजन नहीं लोकमंगल है। उसे लोगों की रुचि एवं मान्यताओं का समर्थक बन कर नहीं उन्हें मार्गदर्शन करने वाला होकर चलना चाहिए। इस प्रयोजन के लिए सचाई का प्रतिपादन कर सकने की स्पष्टता और निर्भीकता का होना आवश्यक है।

लोग अपनी रूढ़िवादिता को छोड़ने के लिए सहज ही तैयार नहीं होते। सच्ची सीख का सर्वत्र स्वागत ही नहीं होता वरन् आरम्भ में उसका विरोध निरादर भी होता है। सिसरो का कथन बहुत करके ठीक ही है कि—‘‘सच्ची सीख का कदाचित ही स्वागत होता है। जिनको उन विचारों की अत्यधिक आवश्यकता है, आश्चर्य है कि वे ही उनका सबसे अधिक निरादर करते हैं। सुधारकों को पग-पग पर ऐसी असहमति और अवज्ञा का सामना करना पड़ता है। इससे विचलित न होने के लिए परामर्श देते हुए सन्त बिनोवा कहते हैं कि जो सुधारक अपने संदेश के अस्वीकृत होने पर क्रोधित हो जाता है, उसे सावधानी, प्रतीक्षा और प्रार्थना की साधना करनी चाहिए।

सभा वा न प्रवेष्टव्या वक्तव्यं नासमंजसम्। —महाभारत

‘‘सभामंच पर या तो जाये ही नहीं यदि जाय तो अपना मन्तव्य स्पष्ट करे। उलझी-उलझी अण्ट-सण्ट बातें न कहे।’’ अप्रियस्य च पथ्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः। —पंच तन्त्र

‘‘परिणाम में हितकर किन्तु सुनने में अप्रिय लगने वाली बात को कहने और सुनने वाले कोई-कोई ही होते हैं।’’

अब्रुवन् विब्रुवन् वापि नरो भवति किल्वषी।

‘‘सभा में अनीति के विरुद्ध न बोलने अथवा अनीति बोलने से मनुष्य पापी बनता है।’’

भाषण के आरम्भ में शिष्टाचार व्यक्त करने की एक शालीन परम्परा है। यदि उसे कृत्रिम न बना दिया जाय तो वह सभा संयोजकों और श्रोताओं के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के साथ जुड़ी हुई आत्मीयता और विनयशीलता को भी व्यक्त करती है।

‘‘मुझे जैसे सामान्य व्यक्ति को अपने सम्मुख विचार व्यक्त करने का अवसर देकर आप लोगों ने मुझे जो सौभाग्य प्रदान किया है, उसके लिए हृदय से कृतज्ञ हूं। आप जैसे संभ्रान्त लोगों का मार्ग दर्शन करना मेरे जैसे व्यक्ति के लिए कठिन है। फिर भी आज्ञा का पालन न करूं तो यह मेरी धृष्टता होगी।’’ इसी प्रकार—‘‘आप लोगों के बीच उपस्थित होने और अपने कुछ निवेदन प्रस्तुत करने की इच्छा बहुत समय से थी। वैसा अवसर देकर आप लोगों ने मुझे जो सौभाग्य प्रदान किया है उसके लिए सच्चे मन से आभारी हूं।’’

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के मैनचेस्टर कॉलेज में एक बार ‘‘सर्व धर्म सम्मेलन’’ आयोजित किया गया और उसमें सर्वपल्ली राधाकृष्णन भी आमन्त्रित थे। उन्होंने अपना भाषण आरम्भ करते हुए संयोजक संस्था की सराहना करते हुए कहा—‘‘तुलनात्मक दृष्टि से धर्म-विज्ञान पर विचार करने के लिए आप की संस्था ने जो परम्परा प्रारम्भ की है उससे मानवीय विवेक को नई दिशा मिली है। आपकी प्रकाशित पुस्तक ‘‘सैक्रेड बुक्स आफ दी ईस्ट’’ ने न जाने कितने लोगों को अभिनव चिन्तन की ओर प्रेरणा दी है। उसी सन्दर्भ में आपके द्वारा आयोजित यह सम्मेलन इस चेतना को और भी आगे बढ़ाता है। अपने महान प्रयत्नों में आपने एक नगण्य समर्थक, सहयोगी मुझे भी मान लिया और कुछ विचार व्यक्त करने का अवसर प्रदान किया। इसे मैं अपना सौभाग्य ही मानूंगा और आप लोगों के प्रति गहरा आभार प्रदर्शित करना चाहूंगा।’’

संयोजकों और उपस्थित लोगों की सदाशयता की चर्चा यदि भाषण के आरम्भ में करदी जाय तो वातावरण में अधिक अनुकूलता आ जाती है।

दैनिक समाचार पत्रों में बहुधा कुछ समाचार लम्बे और विस्तार पूर्वक छपते हैं। सम्पादक उन्हें आरम्भ करने से पूर्व दो-तीन लाइनों में कुछ बड़े अक्षरों में उसे समाचार का सारांश जोड़ देते हैं। जिससे पढ़ने वालों को उस विवरण का पूर्वाभास हो जाता है और वह अपनी रुचि के अनुरूप ध्यान पूर्वक पढ़ता है। यह तरीका भाषण के लिए भी उपयुक्त है। प्रवचन की उद्देश्य एवं सारांश क्या है, यह बताते हुए अपना प्रतिपादन आगे बढ़ाया जाय तो सुनने वालों का मस्तिष्क यह आभास प्राप्त कर लेता है कि उसे क्या सुनने को मिलेगा। यदि ऐसा न किया जायगा तो सुनने वालों का मस्तिष्क उलझन में पड़ा रहेगा और इस निर्णय पर न पहुंच सकेगा कि उसे क्या बताया जा रहा है। तथा किसी को ‘स्वाधीनता दिवस’ पर बोलने को कहा जाय और वह आरम्भ में महात्मा गान्धी की चर्चा को विस्तार पूर्वक कहते हुए भाषण करने लगे तो सुनने वाले यह अनुमान लगा सकते हैं कि भाषण गांधी जी के जीवन प्रसंगों पर होने जा रहा है। पीछे जब महात्मा गांधी और स्वतन्त्रता की और फिर ‘स्वाधीनता दिवस’ की चर्चा होने लगेगी तब वह समझ पायेगा कि भाषण गांधीजी के जीवन चरित्र पर नहीं ‘स्वतन्त्रता दिवस’ पर हो रहा है। यदि आरम्भ में ही भाषण के स्वरूप का आभास करा दिया जाय तो सुनने वालों के मस्तिष्क को निष्कर्ष के सम्बन्ध में निश्चिन्तता हो जायगी और अनावश्यक ताक-झांक न करनी पड़ेगी।

ऐसे प्रसंग पर कहा जा सकता है—‘‘स्वतन्त्रता प्राप्ति की महान उपलब्धि पर भारतीय जनता गौरवान्वित हुई है। इससे हमें अपने भाग्य को बनाने-बिगाड़ने का अधिकार मिला है। अपनी योग्यता प्रदर्शित करने और अपने भविष्य निर्माण का अधिकार मिलना बहुत बड़ी बात है। जिन शहीदों और महामानवों की कृपा से हम सब गौरवान्वित हुए हैं उनको श्रद्धांजलि अर्पित करना हमारा पावन कर्तव्य है। जिन महामानवों ने स्वतन्त्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निवाही उनमें महात्मा गान्धी का नाम अति आदरपूर्वक लिया जाता है। उनके व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व की चर्चा करना इस अवसर पर अप्रासंगिक न होगा।

धार्मिक प्रवचन कर्ताओं का उत्तरदायित्व सामान्य वक्ताओं की अपेक्षा कहीं अधिक है। कारण कि उनकी बातों को श्रद्धापूर्वक सुना जाता है और देवता, ऋषि, भगवान, अवतार आदि के चरित्र एवं वचनों की भरमार रहने से भावुक जनता उन पर सहज विश्वास कर लेती है। विचार प्रधान भाषणों में गुण-अवगुण, उचित-अनुचित परखने की छूट रहती है, पर धर्म-मंच से जो कहा जा रहा है वह तो शास्त्र-वचन, देव चरित्र होने के कारण श्रद्धापूर्वक स्वीकार करने योग्य ही माना जायगा। इन प्रसंगों में यदि अनैतिक आचरणों का, अवांछनीय उदाहरणों का समावेश हो तो निश्चय ही उन्हें सुन कर उन्हीं दुष्प्रवृत्तियों को अपनाने की प्रेरणा ग्रहण करेंगे।

सफेद कपड़े पर जहां धब्बे लगे होते हैं प्रायः वे ही निगाह में आते हैं। लोग गुण कम देखते हैं। अच्छाई कम परखते हैं, दोष ही उनकी पकड़ में पहले आते हैं। सच्चरित्रता के सौ उपदेशों के रहते हुए भी लोग उन बातों को चावपूर्वक सुनेंगे जिनमें अवांछनीय चर्चाएं हैं। ‘‘जब देवता, और ऋषि ऐसा करते रहे हैं तो हमें वैसा करने में क्या दोष है?’’ प्रायः लोगों की बुद्धि इसी दिशा में चलती है। अस्तु यदि कथा वर्णन में थोड़े भी अनुपयुक्त चरित्र चित्रण रहे हों, तो लोग उनके अलंकार रहस्यों को समझने की अपेक्षा अवांछनीय अनुकरण को अपनाने का ही प्रोत्साहन प्राप्त करेंगे।

कथा वाचकों को इस सन्दर्भ में विशेष ध्यान रखना चाहिए। केवल प्रेरक प्रसंग ही कहने चाहिये और ऐसे चरित्र, जिन्हें सर्व साधारण के लिए प्रेरक न कहा जा सके, उन पर पर्दा ही डाले रहना चाहिए। इस सतर्कता की इस बुद्धिवादी युग में अत्यधिक आवश्यकता है।

प्राचीन काल की परिस्थितियां भिन्न थी। उस समय के अनेकों प्रचलन अब असामयिक हो गये हैं। विकृतियों के साथ मिलकर वे पूर्व मान्यताएं अब अन्धविश्वासों, रूढ़ियों और मूढ़ मान्यताओं का रूप धारण कर चुकी हैं। उन्हें अपनाने से किसी का कोई भला नहीं। ऐसे वचनों को अधिक उत्साह के साथ कहना और उन पर जोर देना यह सिद्ध करता है कि वक्ता युग-धर्म नहीं समझता। पशुबलि, सती प्रथा छुआछूत, मांसाहार जैसे अनुपयुक्त प्रसंग यदि कहीं आते भी हैं तो उनकी चर्चा न करके उन्हीं बातों पर जोर देना चाहिए जो युग की आवश्यकता पूरी करती हैं और सामाजिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करती है। पौराणिक कथा प्रसंगों का विस्तार आकाश-पाताल जितना है, उनमें से केवल उपयोगी और प्रेरणाप्रद अंश चुनना और उन्हें चरित्र निष्ठा, समाज निष्ठा उत्पन्न करने वाली शैली में कहना यह आज के धर्मोपदेशकों के लिए उचित है।

ऐसी विद्वत्ता जिसमें विवेकशीलता का गहरा पुट न हो, जो मात्र लकीर पीटती हो और उचित-अनुचित का भेद न करती हो प्रशंसा के योग्य नहीं। अविवेक विद्वत्ता मूढ़ मान्यताओं से ग्रसित हो जाती है और उचित के स्थान पर अनुचित को लोगों के मन में बिठा देती है। आज के धर्म प्रवचन प्रायः ऐसी ही भ्रान्तियां और अवांछनीयता उत्पन्न करते हैं जिनसे अविवेक बढ़ता है और अनाचार को समर्थन मिलता है। ऐसे अविवेकी विद्वानों की शास्त्र ने भर्त्सना की है।

कई बार वक्ता आपस में उलझ पड़ते हैं। विवाह शादियों में कन्या और वर पक्ष के पंडित लोग चोचें लड़ाते हैं। भौंड़े सम्मेलनों में एक ही मंच पर उसी पक्ष के वक्ता अपना बड़प्पन जताने के लिए एक दूसरे का खण्डन करते देखे जाते हैं। यह बहुत ही भद्दा तरीका है। इससे उस मंच और वक्ताओं की प्रतिष्ठा गिरती है।

अपने पक्ष का तथ्य पूर्ण प्रतिपादन ही विरोधी पक्ष की सबसे बड़ी काट है। नाम ले ले कर विरोधियों को गाली देना और उनके प्रतिपादन को अभद्र शब्दों में दुष्टतापूर्ण सिद्ध करना, वक्ता द्वारा अपने ही पक्ष को दुर्बल सिद्ध करना है। तर्कों को काटना पर्याप्त है। व्यक्ति और वर्ग का उल्लेख किये बिना भी जब भ्रम निवारण हो सकता है तो उथले तरीके पर क्यों उतरा जाय।

विवाद में पड़ने से हमेशा बचना चाहिये। इससे प्रतिपक्षी को अनावश्यक ख्याति मिलती है। सम्भ्रान्त व्यक्तियों के विरुद्ध विवाद खड़ा करके छोटे लोग कई बार उनके प्रतिपक्षी का समान स्तर प्राप्त करना चाहते हैं। उन्हें उतने सस्ते तरीके से इतना बड़ा लाभ नहीं उठाने देना चाहिए।

अक्सर विवादों का उद्देश्य जिज्ञासा नहीं होती। जिज्ञासु को सभा में ही विवाद खड़ा करने की आवश्यकता नहीं होती, वरन् वह अवकाश के समय मिलकर या लिखकर अपना समाधान कर सकते हैं। वितण्डावादी लोगों के प्रायः दो उद्देश्य होते हैं—(1) लोगों की छिद्रान्वेषण बुद्धि को भड़का कर वक्ता को नीचे गिराना (2) अपनी स्पष्टवादिता की छाप लोगों के मन पर जमा कर सस्ते में नामवरी हासिल करना। सदाशयतापूर्ण निराकरण करने वालों के तरीके दूसरे हैं। वे विचार विनिमय के लिए उपयुक्त समय प्राप्त करते हैं और किसी बात को प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनने देते। सार्वजनिक विवाद खड़ा होते ही प्रतिष्ठा का प्रश्न उपस्थित हो जाता है। कोई अपनी हेठी नहीं चाहता। अतः दोनों ही पक्ष अपनी बात पर अड़ जाते हैं। सही गलत तर्क और तथ्य प्रस्तुत करके दर्शकों के सामने अपनी प्रतिष्ठा को पक्की करना चाहते हैं ऐसी दशा में इस वितण्डावाद का परिणाम द्वेष को बढ़ाना और दर्शकों के मन में विभ्रम उत्पन्न करने के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता। प्रतिपक्षी तर्कों का आक्षेपों का अपनी सामान्य भाषण प्रक्रिया में समावेश करके निराकरण करना एक बात है और विवाद में उलझना दूसरी। बुद्धिमानों को विवाद कर्ता वितण्डावादियों की बातों को मजाक या उपेक्षा में डाल कर टाल देना ही उचित है।

डिजराइली कहते थे—‘‘तर्कों का उत्तर तो दिया जा सकता है पर विवाद कर्ताओं को समझा सकना संभव नहीं।’’

एलकाट का कथन है—‘‘विवाद तो मूर्ख भी कर सकते हैं, पर संतुलित विचार विनिमय कर सकना विवेकवान बुद्धिमानों के लिए ही सम्भव है।’’

लेनिन ने एक बार कहा था—‘‘एक मूर्ख एक मिनट में इतने प्रश्न पूछ सकता है जितने का उत्तर एक दर्जन बुद्धिमान एक दिन में नहीं दें सकते।’’

कुछ नीति वचन और भी विचारणीय हैं।

वक्तारो दुर्दुरा यत्र तत्र मौनं हि शोभते।

‘‘जहां अनर्गल प्रचार करने वालों का बाहुल्य हो वहां बुद्धिमान का चुप रहना ही उचित है।’’

परस्परं संवदता खलानां, मौन विधेयं सततं सुधोभिः।

‘‘जहां उद्धत लोग परस्पर वाद विवाद में ही उलझे हों वहां बुद्धिमानों का मौन रहना ही ठीक है।’’

शंका समाधान के नाम पर भी अक्सर वितण्डावाद ही उठ खड़ा होता है।। प्रश्नोत्तर का तरीका किसी जमाने में बहुत अच्छा था। सुकरात उसी शैली को अपनाते थे। पर अब तो वक्ता का, उसके मत का उपहास उड़ाना और उपस्थित लोगों के सामने वक्ता को जलील करना और अज्ञानी ठहराना ही प्रश्नों का प्रयोजन रहता है। लोग सभा के शुरू में या अन्त में खड़े होकर तरह-तरह के प्रश्न पूछते हैं। इनका उद्देश्य वक्ता की काट करना और उसे नीचा दिखाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। ऐसे प्रश्नोत्तरों में वक्ता को अपने मूल विषय से भटक कर शंका समाधान के जंजाल में फंस जाना पड़ता है और उसके भाषण का लक्ष्य ही नष्ट हो जाता है।

शंका समाधान एवं प्रश्नोत्तर आमन्त्रण करने का मतलब है सभा का अन्त विवादास्पद बनाना और श्रोताओं पर पड़ने वाली छाप का बखेरना या नष्ट करना। इसलिए अपनी ओर से इस प्रकार उकसाने की भूल तो करनी ही नहीं चाहिए। पूछने के इच्छुकों को निर्धारित समय पर निवास स्थान पर आने और उत्तर होने की संक्षिप्त सी बात कहकर प्रसंग को टाल देना चाहिए। आज की स्थिति में यही बुद्धिमत्तापूर्ण है। न वाद-विवाद खड़ा होने देना चाहिए और न प्रश्नों का जंजाल। सभा संयोजकों को इसका पूरा ध्यान रखना चाहिए।

सभा में वाद-विवाद खड़े नहीं होने देने चाहिए। और न प्रश्नोत्तर का जंजाल खड़ा करना चाहिए। पुराने जमाने में शास्त्रार्थों की शैली प्रचलित थी। विचार विनिमय का नाम ही उन दिनों शास्त्रार्थ था। सद्भावना पूर्ण परस्पर विचारों का आदान-प्रदान करना अपने अवांछनीय संशयों का निवारण—दूसरों के योग्य प्रतिपादनों का स्वागत करने की बुद्धि उनमें काम करती थी। हार-जीत का कोई प्रश्न न था। अज्ञान हारता था और ज्ञान जीतता था। मनुष्य सत्य को प्राप्त करने की दिशा में क्रमिक विकास से ही अपनी यात्रा करता हुआ यहां तक पहुंचा है। पूर्ण सत्य की प्राप्ति अभी दूर है। जो आरम्भिक दिनों में जाना गया था उसे मध्यकाल में सुधारना पड़ा, जो मध्यकाल में माना जाता था, उसमें अब परिवर्तन स्वीकार किया जा रहा है। आज की मान्यताएं भी शाश्वत नहीं हैं। वे भविष्य की ज्ञान चेतना के साथ-साथ आगे-आगे बढ़ेंगी और उनमें क्रमिक सुधार होता चलेगा। इस सुधार प्रक्रिया की गति तीव्र करना और सत्य की शोध में निष्पक्ष विवेक का अधिक उत्साह के साथ प्रयोग करना ही तब शास्त्रार्थ का लक्ष्य था। इसलिए उनकी उपयोगिता भी थी।

आज स्थिति वैसी नहीं है। लोगों में पूर्वाग्रह दुराग्रह का विष कूट-कूट कर भर गया है। हर व्यक्ति अपनी बात को सही और दूसरे की बात को गलत सिद्ध करने पर उतारू रहते हैं। पक्षपात से ऊंचा उठ कर यथार्थ चिन्तन कर सकने जैसी विवेक बुद्धि विदा हो गई है। येन केन प्रकारेण पक्ष समर्थन और दूसरे को परास्त करना ही लक्ष्य है। विवाद प्रतिष्ठा का प्रश्न बनते हैं। हर कोई स्वीकार नहीं करता। दोनों ही जीत का डंका बजाते हैं, और इस विग्रह में मतभेद दूना और द्वेष चौगुना बढ़ जाता है। अस्तु, विवादों को हम सभा में उपस्थित नहीं होने देना चाहते।

असेम्बलियों में शासक पक्ष और प्रतिपक्ष में झड़पें होती रहती हैं। अदालत में पक्ष और विपक्ष के वकीलों को जोर-शोर से अपने मुवक्किलों की वकालत करते हुए कौतूहल पूर्वक देखा जा सकता है। छात्रों के वाद-विवाद में भी रस लिया जा सकता है। दंगल में पहलवान लड़ते देखे जा सकते हैं। पिछड़े वर्ग के लोगों द्वारा पशु-पक्षियों की कुश्ती लड़ाकर जो भौंड़ा मनोरंजन किया जाता उसे भी भर्त्सनापूर्ण दृष्टि से देखा जा सकता है। युद्धों के ये स्वरूप रस लेने के लिए पर्याप्त हैं। विद्वानों और मार्गदर्शकों के बीच इस प्रकार के विवाद-युद्ध खड़े करना आज की स्थिति में सर्वथा अवांछनीय है।
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