भाषण और संभाषण की दिव्य क्षमता

वक्ता को अध्ययनशील होना चाहिए

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भाषण वस्तुतः एक शोध-प्रबन्ध है। उसकी पूर्व तैयारी की जानी चाहिए और आदि से अन्त तक का विषय निर्वाह का ढांचा बहुत ही दूरदर्शिता से बनाया जाना चाहिए। जिन लोगों ने पी.एच.डी. के लिए थीसिस तैयार किये हों, उनसे पूछना चाहिए कि वे भूमिका, प्रतिपादन, तथ्य, प्रमाण, तर्क समीक्षा से लेकर उपसंहार तक का निर्वाह करने के लिए किस प्रकार आरम्भिक ढांचा खड़ा करते हैं, सामग्री जुटाते हैं, रफ कापी बनाते हैं और फिर कैसे उसे ‘फेयर’ करके निबन्ध को जांचने वालों के सामने प्रस्तुत करते हैं। भाषण की तैयारी इससे कम नहीं होनी चाहिए। उसमें इतनी सारगर्भित सामग्री रहनी चाहिए कि सुनने वाले को अपने समय की सार्थकता अनुभव हो सके।

निबन्ध रचना में उसका क्रम निर्धारित करना पड़ता है। प्रथम चरण में भूमिका होती है—प्रतिपाद्य विषय की उपयोगिता, महत्ता बताई जाती है, ताकि पढ़ने वाले को वह प्रयत्न आवश्यक एवं महत्वपूर्ण प्रतीत हो। इसके बाद पक्ष समर्थन में जितने अधिक तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हों उन्हें क्रम बद्ध रूप में रखना पड़ता है। प्रस्तुत विषय के प्रतिपक्ष अथवा समानांतर रूप में जो बातें कही जाती रही हैं उनका समाधान बताना पड़ता है और प्रतिपक्षियों की तुलना में अपनी बात को अधिक खोजपूर्ण, तर्कसंगत, प्रामाणिक एवं सामाजिक सिद्ध करना पड़ता है। निबन्ध के अन्तिम भाग में उपसंहार के साथ निष्कर्ष बताना पड़ता है। पाठक पर यह छाप छोड़नी पड़ती है कि लेखक ने पाठक को अधिक मात्रा में अधिक उपयोगी जानकारी देने का प्रयत्न किया और उसे अपेक्षाकृत अधिक सही परिणाम पर पहुंचने में सहायता दी है। शोध प्रबन्धों का आरम्भिक ढांचा इसी आधार पर कई खण्डों में विभाजित करके खड़ा करना पड़ता है और उनमें से प्रत्येक के लिए ऐसी सामग्री जुटानी पड़ती है जिसे श्रम साध्य एवं सूझ-बूझ युक्त कहा जा सके। परीक्षक उस प्रयत्न को इस दृष्टि से परखते हैं कि लेखक ने कितनी गहराई में उतरने और कितने तथ्य संकलित करने में कितना, किस स्तर का परिश्रम किया है। इसी कसौटी पर निबन्ध परखे जाते हैं और जो खरे उतरते हैं, उन्हें विश्वविद्यालय द्वारा ‘डॉक्टरेट’ की उपाधि से अलंकृत किया जाता है।

सारगर्भित वक्तृता के लिए समय से पूर्व इसी स्तर की तैयारी करनी पड़ती है। जनता को परीक्षक मानकर चलना चाहिए और उसके सामने अपना गम्भीर अध्ययन, पैना मनोयोग, तथ्य खोजने पर किया गया श्रम—क्रमबद्ध रूप में प्रतिपादन, भाषा-शैली का प्रवाह आदि को ऐसा बनाकर उपस्थित करना चाहिए जिनमें अनुत्तीर्ण न ठहराया जा सके।

वक्ता को अध्ययनशील होना चाहिए। अपने विषय में उसका जितना अधिक अध्ययन होगा उतनी गहराई और प्रामाणिकता बढ़ती चली जायगी। सभी मनुष्यों को विस्मृति का रोग थोड़ी बहुत मात्रा में पाया ही जाता है, एक बार जो पढ़ा था वह सदा याद नहीं रहता। ज्ञान अनन्त है। छोटे विषय को लेकर चला जाय तो भी उसका विस्तार इतना अधिक होता है कि नई-नई जानकारियां मिलती ही चली जायेंगी। जिसके पास पूंजी है वही दूसरों को कुछ दे सकेगा। ग्राहक ऐसे बजाज के पास जाते हैं जिनके पास कई डिजाइन के कई कीमत के कपड़े देखने और चुनने को मिल सकें। वक्ता से भी श्रोता सर्वविदित मोटी बातों की अपेक्षा कुछ और गहरी नई बातें जानने की अपेक्षा करते हैं। ऐसी सामग्री केवल अध्ययनशील लोग ही जुटा सकते हैं।

सीखने की जिज्ञासा से प्रेरित होकर मनुष्य ज्ञानस्रोतों की तलाश करता है। इस मार्ग पर चलने वालों को खाली हाथ नहीं रहना पड़ता। वे कुछ न कुछ निरन्तर प्राप्त हुए अपनी ज्ञान सम्पदा बढ़ाते रहते हैं। ‘‘बूंद-बूंद से घड़ा भरता है’’—‘‘कन-कन जोड़ने से मन जुड़ता है’’—इन उक्तियों में यही संकेत है कि खोजने और पाने के प्रयत्नों में लगा हुआ व्यक्ति धीरे-धीरे अपने विषय में समृद्ध, सुसम्पन्न बनता जाता है। जन्म से ही कोई विद्वान् नहीं होता। सतत प्रयत्न से ही—मधुमक्खियों की तरह ही ज्ञान की पूंजी बढ़ाई जाती है। वक्ता का गौरव उसकी ज्ञान सम्पदा में है। अल्पज्ञ व्यक्ति गिनी-चुनी बातों को रटे-रटाये शब्दों में दुहराता रह सकता है। हर स्थिति के हर व्यक्ति के लिए जिन अलग-अलग सन्दर्भों के सहारे अपनी बात कहनी चाहिए उसका भण्डार तो उन्हीं के पास मिलेगा जिन्होंने अध्ययन, मनन-चिन्तन से अपने विचार-भण्डार को समृद्ध बनाया है। अध्ययनशील ही विद्वान् बनते हैं और जो विद्यावान हैं वे ही सुनने वालों पर अपनी छाप छोड़ते हैं। विचारशीलों का सदा यही मत रहा है और उनने गम्भीर अध्ययन में रुचि लेने के लिए हर प्रगतिशील को परामर्श दिया है।

टाल्सटाय कहते थे—‘‘बुद्धिमान अपने अनुभवों की अपेक्षा अन्य बुद्धिमानों के अनुभवों से अधिक सीखता है। विचारशीलों के अनुभव हमारा मार्ग दर्शन करने को आसानी से उपलब्ध हो सकते हैं।’’

जौसेफ एडीसन ने लिखा है—‘‘मस्तिष्कीय विकास के लिए अध्ययन की उतनी ही आवश्यकता है जितनी शरीर को व्यायाम की।’’

सिसरो का कथन है—‘‘प्रकृतिगत अनुभव संग्रह करने के अपेक्षा अध्ययन के द्वारा अधिक व्यक्ति महान बने हैं।’’

मोन्टेन्यू की उक्ति है—‘‘पढ़ने से सस्ता और कोई मनोरंजन नहीं और न उसके बराबर कोई प्रसन्नता उतनी स्थायी है।’’

बर्नार्डशा ने अध्ययन की अरुचि और उथलेपन पर दुःख व्यक्त करते हुए कहा था—‘‘आज पढ़ने के शौकीन तो बहुत हैं पर यह नहीं जानते कि क्या-क्यों और कैसे पढ़ना चाहिए।’’

हर वक्ता का अपना एक लक्ष्य और विषय होना चाहिए। यह विशेषज्ञों, निष्णातों और पारंगतों का जमाना है। लोग किसी भी क्षेत्र में मूर्धन्य की ‘ए वन’ की तलाश में रहते हैं। अल्पज्ञों की कहीं पूछ नहीं। क्या डॉक्टर, क्या वकील, क्या इंजीनियर सभी क्षेत्रों में विशेषज्ञ ढूंढ़े जाते हैं ताकि भले ही खर्च थोड़ा अधिक पड़ जाय पर काम अच्छी तरह सुयोग्य हाथों से पूरा हो सके। यही बात वक्ता के सम्बन्ध में भी है। कोई व्यक्ति अनेक विषयों में पारंगत नहीं हो सकता। विशेषज्ञता एकाध विषय में ही प्राप्त की जा सकती है। इसलिए हर विषय में टांग अड़ाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। हर स्तर के भाषण प्रवीण स्तर पद दें सकना कठिन है। अपनी रुचि का विषय चुनना चाहिए। उसी विषय पर अधिकाधिक अध्ययन, चिन्तन, मनन और तद् विषयक विद्वानों से विचार विमर्श करना चाहिए। इस तरह अपनी ज्ञान परिधि बढ़ती जाती है और उसी अनुपात से भाषणों का स्तर वजनदार होता चला जाता है।

कोई इमारत, पुल आदि बनाने से पूर्व इंजीनियर लोग उस पूरी योजना के नक्शे बनाते हैं। लोहा, सीमेन्ट, ईंट, पत्थर, लकड़ी आदि कितनी, कहां, लगेगी उसके लगाने में राज, मजूर, मेठ, ओवरसीयर आदि को कितनी संख्या में कब लगाना पड़ेगा, सामान ढोने के लिए ढुलाई की सुविधाएं किस क्रम से कितनी जुटानी पड़ेंगी—इन सारी बातों की पहले ही भले प्रकार कल्पना करली जाती है। लागत और समय का अनुमान लगा लिया जाता है। इसके बाद आवश्यक साधन जुटाये जाते हैं और फिर उस इमारत का बनना आरम्भ होता है। अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति वे इसी प्रकार कर पाते हैं। किसान को फसल कमाने में बीज, खाद, पानी, जुताई, निराई, रखवाली आदि की पूरी योजना बनानी पड़ती है। इंजीनियर की तरह सुशिक्षित न होने के कारण वह नक्शे और बजट कागज पर तो नहीं लिख पाता पर मस्तिष्क में सारी कल्पना पूरी कर लेता है। ठीक इसी प्रकार भाषण की रूप रेखा तैयार करने में कुशल वक्ता को तैयारी करनी पड़ती है।

जिम्मेदारी अनुभव करने वाले वक्ता का स्तर बिलकुल इंजीनियर किसान, विवाह आयोजन करने वाले लोगों जैसा है। हर नये काम के लिए नई योजना और नई व्यवस्था सोचनी और बनानी पड़ती है। हर भाषण नया होता है क्योंकि जन समुदाय हर जगह एक ही नहीं होता। उसके स्तर बदलते हैं तदनुकूल वक्ता को निर्धारित विषय की शैली में परिवर्तन करना पड़ता है। श्रोताओं की स्थिति को न समझते हुए—समयानुसार बदलती रहने वाली परिस्थितियों और घटनाओं का उल्लेख करते हुए नवीनता युक्त बोलना पड़ता है। यदि वह कुछ रटे-रटाये शब्द और तथ्य याद करले और उन्हीं को हर जगह एक ही तरह दुहराता रहे तो उसे तोता रटन्त भर कहा जायगा। व्युत्पन्नमति वक्ता सदा लकीर नहीं पीटते, उनकी मौलिक प्रतिभा, समय, प्रवाह और जन समुदाय का तालमेल बिठाते हुए पुराने तथ्यों को भी नया बना देती है। वासी और ताजी रोटी के स्वाद और गुण में क्या अन्तर होता है, इसे हर खाने वाला जानता है। सुगृहिणी अपनी रसोई में नित-नवीनता लाने के लिए ताजगी का आनन्द खाने वालों को देने के लिए कुछ न कुछ सोचती और करती रहती है। इसी में उसकी प्रशंसा है। एक ही दाल और एक ही तरह की रोटी महीनों वर्षों चलती रहे—एक दिन बनाकर दस दिन का झंझट छुड़ालें तो उस बेगार भुगतने में बनाने का नित नया झंझट भले ही न उठाना पड़े पर भोजन का सारा आनन्द ही चला जायगा। परिवर्तन प्रिय मनुष्य का स्वभाव सहज ही कुछ न कुछ नवीनता चाहता है। जहां कुशलता है वहां वैसा बन पड़ना भी कुछ कठिन नहीं है।

सभा मंच पर जाने से पूर्व मनोयोग के साथ वक्ता को अपना भाषण तैयार करना चाहिए। उनमें नवीनतम घटना क्रमों और तथ्यों का समावेश होना चाहिए। घिसी-पिटी अनेक बार कही दुहराई गई बातें चाहे कितनी ही सही क्यों न हों, सदा उन्हें ही ग्रामोफोन के रिकार्ड की तरह दुहराते रहना सुनने वालों को अरुचिकर हो जाता है। पिसे को पीसते रहना—कहे को कहते रहना कुशल वक्ता का चिन्ह नहीं है। कई व्यक्ति कुछ भाषण रट लेते हैं और उन्हीं बातों को उलट-पुलट कर कहते रहते हैं। मानों इसके अतिरिक्त और कोई तथ्य रहे ही नहीं—मानो इसी तोता रटन्त के सिवाय और किसी ढंग से उन बातों का समर्थन हो ही नहीं सकता। अधिकतर वक्ता तोता रटन्त रटते रहते हैं। इससे सहज ही यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वक्ता में चिन्तन मनन एवं अध्ययन का अभाव है उसे और कुछ ढूंढ़ने जानने की आवश्यकता अनुभव नहीं होती। उसने अपने सीमित ज्ञान को ही परिपूर्ण मान लिया है और उससे आगे की जानकारी प्राप्त करने में उसकी रुचि नहीं रही। यह बुरी बात है। इससे वक्ताओं का गौरव बढ़ता नहीं, घटता ही है।

वक्ता का प्रतिपाद्य विषय भले ही एक सीमित क्षेत्र का हो पर तथ्य और प्रमाण तो उतने दायरे में भी अगणित मिल सकते हैं। उसी विषय पर हर दिन नये तथ्य प्रस्तुत करते हुए प्रवचन की श्रृंखला चिरकाल तक चलाई जा सकती है और सुनने वालों को अपने अगाध ज्ञान से चमत्कृत किया जा सकता है। पर यह सम्भव तभी है जब अध्ययन में अपनी गहरी रुचि हो और नये तथ्य, नये आधार, नये तर्क, नये प्रमाण, नये उदाहरण ढूंढ़ निकालने के लिये गहरी जिज्ञासा उठती रहे। संसार में ज्ञान का अगाध समुद्र भरा पड़ा है। किसी छोटे से विषय पर भी इतनी अधिक सामग्री मिल सकती है कि उसे ढूंढ़ते रहने में एक पूरा जीवन भी कम प्रतीत हो। ऐसी दशा में यह सोचना उचित नहीं कि जो हमने जाना है उससे अधिक और कुछ नहीं है। जो हम कहते बोलते रहे हैं वही पर्याप्त है।

मनुष्य का स्वभाव नवीनता प्रिय है। फिल्म कोई कितना ही आकर्षक क्यों न हो—गाना कोई कितनी ही मधुर क्यों न हो। उसे देखने सुनने में जो आकर्षण आरम्भ में रहता है। वह पीछे नहीं रहता। क्रमशः वह घटता जाता है और स्थिति यहां तक पहुंच जाती है कि उसे देखने सुनने में तनिक भी उत्साह नहीं रहता। नवीनता के लिए भोजन-वस्त्रों में परिवर्तन करने की आवश्यकता अनुभव की जाती रहती है। गंगा भले ही एक दिशा में बढ़ें पर उसमें लहरें, भंवर, उछाल उत्पन्न होते रहते हैं तभी उसका सुन्दर दृश्य देखते रहने को मन करता है। समुद्र की ज्वार भाटे ही शोभा बढ़ाते हैं। वक्ता को भिन्न-भिन्न स्थानों पर प्रथम बार ही एक बात कह सकने में औचित्य हो सकता है। यदि सुन चुके लोगों को पुनः वही बात उसी ढंग से सुनाई जायेगी तो निश्चय ही अरुचि उत्पन्न होगी। भले ही वह उपयुक्त और आवश्यक क्यों न हो। यदि लगातार उसी विषय को सिखाया सुनाया जाना अभीष्ट हो तो भी उसके प्रतिपादन में नये तथ्यों और नये उदाहरणों का समावेश किया जाना चाहिए। पर वह संभव तभी हो सकता है जब वक्ता अध्ययनशील हो उसमें खोज करने की आकांक्षा हो। पूछते और पढ़ते सुनते रहने से ज्ञान वृद्धि होती है। अच्छे वक्ता अहंकारी नहीं होते वरन् वे सदा जिज्ञासु और विद्यार्थी बने रहकर अपनी ज्ञान सम्पदा बढ़ाते रहते हैं। मधु मक्खियां मधु संचय का अपना कार्य निरन्तर जारी रख कर अपने छत्ते में हर किसी को ललचाने लायक शहद जमा कर पाती है। अच्छे वक्ता अपना स्तर ऊंचा रखना चाहते हैं, इसलिए वे अपने पास अधिकाधिक तथ्य जमा करने का प्रयास सदैव जारी रखते हैं।

हर वक्तृता से पूर्व उसकी योजना बनानी चाहिए। यदि अभ्यस्त तथ्य है तो परिस्थिति और उपस्थिति में जो हेर फेर हुए हों उनका समावेश करते हुए—भाषण में नवीनता लानी चाहिए। उसके क्रम में हेर-फेर करना चाहिए अन्यथा नई जनता को आभास भले ही न हो साथी तो यह अनुमान लगा ही लेंगे कि वक्ता में मौलिक प्रतिभा का अभाव है।

आरम्भ, मध्य और अन्त किस प्रकार हो—तथ्यों को किस क्रम से उपस्थित किया जाय—किस तर्क का कहां समावेश किया जाय—उदाहरणों, घटनाओं संस्मरणों का समावेश किस प्रसंग में किन शब्दों में किया जाय—प्रतिपक्षी मान्यताओं और तर्कों का निराकरण किन तर्कों और प्रमाणों के साथ किया जाय—अन्त में उपसंहार का स्वरूप क्या हो आदि बातें पैनी कल्पना के आधार पर कई बार उलट-पुलट करके देखने, सोचने से अच्छी चीज बन कर सामने आ जाती है। आवश्यक नहीं कि एक ही बार—कुछ ही देर में प्रथम कल्पना को ही पर्याप्त मान कर, काम को जल्दी-जल्दी निपटा दिया जाय। कई-कई विकल्पों के साथ कई तरह से भाषण की रूप रेखा बनाना चाहिए। और फिर उसमें से काट-छांट कर जोड़ गांठ कर संशोधित परिमार्जित योजना पास करनी चाहिए।

संभव है इसमें एकाध घण्टा या ज्यादा समय लग जाय। सोचने ढूंढ़ने या पूछने में देर लगे और मस्तिष्क को गहराई में उतरना पड़े। किन्तु यह अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इस समय को बचाने की बात सोचना—अपने भाषण और गौरव को गिराने की तैयारी करना है। यह आलस्य या अभिमान हर वक्ता को बहुत महंगा पड़ता है। ‘‘हमें सब ज्ञात है—समय पर हर बात हमें याद आ जाती है’’ ऐसा अहंकार तो बहुत लोग करते हैं, पर वस्तुतः ऐसी असाधारण व्युत्पन्नमति किसी-किसी की ही होती है। यदि होती भी है तो इसका कारण चिर कालीन वह अभ्यास रहा होता है जो उनने आरम्भ के दिनों में योजनाबद्ध बोलने की तैयारी के रूप में किया था। इस प्रकार का परिश्रम मस्तिष्क के भोंथरेपन पर शान चढ़ाने और उसकी धार तेज करने में सहायक होता है। उस्तरा तभी तेज रहता है जब बार बार उसकी धार बनाई जाती रहे। एक बार धार चढ़ा कर जो महीने के लिए निश्चिन्त हो जाना चाहता है वह नाई अपने ग्राहकों का कोप भाजन बनेगा। घिसी-पिटी बातें दुहराने वाले वक्ता न केवल अपनी प्रभावोत्पादक क्षमता को खो बैठते हैं वरन् मानसिक आलस्य को प्रश्रय देते रहने के कारण कुशाग्र बुद्धि की विशेषता से भी वंचित होते चले जाते हैं। यह गिरावट वक्ता की अपने कार्य एवं उत्तरदायित्व के प्रति उपेक्षा बरतने जैसी है, जिसके कारण उसे बहुत घाटे में रहना पड़ता है। वह जो कर सकता था—बन सकता था—उसमें बहुत कम सफलता ही पल्ले पड़ती है।

अध्ययनशील व्यक्ति लेखन शैलियों को समझते, शब्द विन्यास के गठन क्रम पर ध्यान देते हैं उन्हें वैसा बहुत कुछ हाथ लगता रहता है जिसके सहारे वे अपनी वक्तृता को विद्वत्ता की छाप छोड़ने वाली बना सकें। यह तो शैली, शब्द विन्यास को सही करने की बात हुई। अपने वक्तृता के विषयों पर जानकारियां देने वाले तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण प्रस्तुत करने वाले साहित्य का संग्रह करना चाहिए और उसे कई शोध दृष्टियों से पढ़ना चाहिए, उन्हें नोट करना चाहिए। स्मृति पटल पर अच्छी तरह उन बातों को जमाने के लिए बार-बार दुहराना चाहिए। उपेक्षा या मनोरंजन की हलकी दृष्टि रख कर जो कुछ पढ़ा जायगा वह साथ का साथ ही विस्मृत होता चलेगा। भले ही थोड़ा पर अधिक गहरा अध्ययन क्रम ही वक्ता की बहुमूल्य सम्पदा सिद्ध होता है।

शब्दों का सुगठन और लालित्य उसी के प्रवचन में रह सकता है, जिसने बहुतों का लिखा हुआ बहुत पढ़ा है। मस्तिष्क विशाल शब्दकोष ही ही—किन शब्दों का किस प्रकार गुंथन करने से किन अभिव्यक्तियों को, किस प्रकार, किस हद तक प्रकट किया जा सकता है, यह कला कुशलता विशाल और सूक्ष्म दृष्टि रख कर किये गये अध्ययन से ही उपलब्ध हो सकती है। अशिक्षित या अल्प शिक्षित इस विशेषता से सम्पन्न नहीं हो सकते। लेखन शैलियां भी एक प्रकार से भाषण शैलियां ही है। अन्तर इतना ही है कि भाषण में मुंह से बोल कर और लेखन में कल्पना का सहारा लेकर अपने विचार दूसरों के सम्मुख प्रस्तुत किए जाने हैं। लेखक को भी अपने ढंग का एक वक्ता ही माना जायगा। लेखन शैली और भाषण शैली का मूल स्वरूप एक है। प्रत्यक्ष में ही इसके दो भिन्न स्वरूप दिखाई पड़ते हैं।

वक्ता को ऐसी नोटबुक सदा साथ रखनी चाहिए जिसमें कभी कहीं से अपने विषय से संबद्ध उपयोगी बात सुनने, पढ़ने को मिले तो उसे नोट किया जा सके। ऐसे प्रसंग अक्सर सामने आते रहते हैं जो बड़े मार्मिक होते हैं। सुनते पढ़ते समय बड़े पसन्द आये थे पर पीछे वे विस्मृत हो गये। उपलब्ध ज्ञान सम्पदा का सदा संचय किया जाता रहे, इसके लिए वह नोटबुक बड़े काम की होती है जिसमें उपयोगी तथ्य अंकित किये जाते रहें। उन्हें पढ़ते, दुहराते रह कर अपनी स्मृति सजीव रखी जा सकती है। महादेव भाई, महात्मा गांधी आदि की डायरियां प्रकाशित हुई हैं, उनमें बहुत सी काम की बातें हैं। वक्ता के लिए तो यह और भी आवश्यक है कि अपने कथन को अधिक मार्मिक बनाने के लिए उपयोगी तर्क, तथ्य, संस्मरण, प्रसंग, संदर्भ आदि जहां भी मिलें वहां से नोट करता रहे।

अपने प्रतिपादित विषय के विपक्ष में जो कहा जाता रहा है उसकी जानकारी भी होनी चाहिए और उसके खण्डन के लिए तथ्य पूर्ण तर्क एकत्रित करते रहने चाहिए। जहां अपने पक्ष के समर्थन में कहा जाय वहां प्रतिपक्ष की मान्यताओं का निराकरण करने की बात को भी ध्यान में रखा जाय, अन्यथा बात आधी अधूरी रह जायगी। मण्डन और खण्डन का तारतम्य जहां उपयुक्त होता है वहां नमक और शक्कर के स्वादों की रसोई की तरह वक्तृता भी खिल पड़ती है। मात्र खण्डन या मात्र मण्डन एकांगी नीरस एवं अरुचिकर प्रतीत होते हैं।

जिस विषय पर अध्ययन कम है उस पर थोड़ी सी घिसी-पिटी बातें ही कही जा सकती हैं। कई दिन तक लगातार बोलना अल्प अध्ययन वाले लोगों के लिए संभव नहीं होता। अलग स्थान पर अलग लोगों के बीच में एक बात को दुहराने से भी काम चल जाता है, पर यदि लगातार एक ही स्थान पर—एक ही लोगों के बीच बोलना पड़े तो अल्पज्ञ वक्ता की पोल खुल जाती है और वह बहाना बना कर खिसकने लगता है। एक ही विषय के अनेक पक्ष होते हैं। प्रत्येक पक्ष पर कई दृष्टिकोणों से प्रकाश डाला जा सकता है। इस प्रकार एक छोटे विषय के भी अनेकों विभाग हो सकते हैं। यदि वक्ता का अध्ययन विशाल है तो वह अपने मूल विषय से बिना उखड़े बिना इधर-उधर ताक-झांक किये उसी संदर्भ में बहुत समय तक बोलता रह सकता है। यदि एक दिन ही बोलना हो तो भी अनेकों संदर्भों का समन्वय करते हुए कही गई बात बहुत ही आकर्षक और प्रभावोत्पादक बन जाती है। भाषण वाणी की वाचालता का, शब्दोच्चार का नाम ही नहीं है, उसमें विशेषज्ञ स्तर की जानकारियों का समावेश भी होना चाहिए। इसी से वक्ता की ज्ञान गरिमा और चिन्तन की गहराई का पता चलता है।

जो बोलना है उसमें क्रमबद्धता रहना चाहिये। आरम्भ में क्या, इसके बाद क्या—यह पूरा ढांचा शुरू में ही बना लिया जाना चाहिए। अन्यथा स्मरण शक्ति की गड़बड़ी से अन्त में कही जाने वाली बातें आरंभ में और आरम्भ की अन्त में कह दी जायेंगी। असंबद्धता का यह व्यतिक्रम अटपटा और उपहासास्पद लगेगा। कितनी ही बातें समय पर याद नहीं उठेगी और पीछे पश्चात्ताप होगा कि कितनी महत्व की बातें कहने से छूट गईं। ऐसे असमंजस में उन्हीं को पड़ना पड़ता है, जो बिना तैयारी के बोलने को खड़े हो जाते हैं। यदि आरम्भ में ही क्रम निर्धारित कर लिया गया होता तो आसानी से प्रवाह बहता चला जाता और संतुलन की समस्वरता हाथ से निकल जाने का पश्चात्ताप न करना पड़ता।

सफल वकील वे माने जाते हैं जो अदालत में जाने से पूर्व अपने विषय का पूरा अध्ययन करके और प्रस्तुत किये जाने योग्य तथ्यों को तैयार करके साथ ले जाते हैं। इसके लिए उन्हें कानून की कितनी ही पुस्तकें रटनी पड़ती हैं। वादी और प्रतिवादी के कथनों को—पुलिस की रिपोर्टों को—गवाहों द्वारा कही गई बातों को, इस बारीकी से समझना पड़ता है, कि अपने पक्ष समर्थन के लिए काफी सामग्री मिल जाय। यह श्रम, प्रयास एवं मनोयोग ही मुकदमा जीतने का कारण बनता है। उसी से वकील की ख्याति और आमदनी बढ़ती है। जो वकील इस परिश्रम और मनोयोग की उपेक्षा करेगा, उसकी वकालत ठप्प होती, आमदनी घटती और इज्जत गिरती चली जायगी।

कुशल प्रोफेसर दूसरे दिन अपना क्लास पढ़ाने के लिए एक दिन पहले तैयारी करते हैं। जो पढ़ाया जाना है उसके लिए आवश्यक तथ्य ढूंढ़ते और नोट करते हैं। यह सामग्री जितनी अधिक और जितनी उच्च कोटि की होती है, उसी अनुपात से पढ़ने वाले छात्र प्रभावित होते हैं। प्रोफेसर की इज्जत करते हैं और अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होते हैं, यदि तथ्यपूर्ण सामग्री ढूंढ़ने और नोट करने में उपेक्षा की गई और ऐसे ही आधी अधूरी स्मृति के आधार पर कुछ भी पढ़ाते चलने की सस्ती रीति अपना ली गई तो फिर उस हरामखोरी को हर एक छात्र ताड़ लेगा। वह सामने कुछ कहे न कहे पर मन में यही सोचता रहेगा कि पढ़ाने के नाम पर लकीर पीटी जा रही है और हमारा समय नष्ट किया जा रहा है।

सुविकसित देशों में प्रायः 45 मिनट का पूर्ण भाषण माना जाता है। कुशल वक्ता इतने ही समय में इतने तथ्य प्रस्तुत करते हैं जिससे सुनने वालों को उतना समय खर्च करना सार्थक प्रतीत हो। अपने देश में तो ‘ठलुआ’ लोग बहुत हैं। कुछ लोग समय काटने एवं कौतूहलवश ही सभा सम्मेलनों में जा पहुंचते हैं और ऐसे ही ज्यों-त्यों करके सुनते रहते हैं। पर प्रगतिशील देशों में ऐसा नहीं होता। वहां हर व्यक्ति व्यस्त है, हर किसी को अपना समय बहुमूल्य प्रतीत होता है। भाषण सुनने को भी लोग कुछ पाने की दृष्टि से ही जाते हैं। वहां खुले मैदान में नहीं इसी प्रयोजन के लिए बने हालों में प्रवचन की व्यवस्था होती है। उनका किराया देना पड़ता है। फिर वक्ता के अपने समय का, आने-जाने के खर्च का भी प्रश्न है। इस सबकी पूर्ति सुनने वालों को टिकिट खरीद कर करनी पड़ती है। जिस प्रकार अपने यहां सिनेमा देखने टिकिट खरीद कर ही जाया जाता है, वहां इसी प्रकार प्रवचन व्यवस्था के साथ भी टिकिट का क्रम जुड़ा रहता है। जिसने टिकिट खरीदा है—समय खर्च किया है उसे उस लागत की तुलना में कुछ अधिक मूल्य की उपलब्धि अपेक्षित होनी ही चाहिए। अस्तु वहां वक्ताओं को पूरी तैयारी करके तथ्य पूर्ण बातें ही कहने जाना पड़ता है और 45 मिनट की अवधि में इतनी खुराक देनी पड़ती है जिसे श्रोताओं को संतोष देने वाली कहा जा सके। उसमें तथ्यों की भरमार होती है, जिन्हें जुटाने के लिए वक्ता उतना ही श्रम करते हैं जितना कि उच्च कक्षाओं की परीक्षा देते समय छात्रों को तैयारी करके जाना पड़ता है।

अपने देश में अभी वैसी आवश्यकता नहीं समझी जाती और ऐसे ही अल्प शिक्षित—अनपढ़ लोग कुछ भी बकवास करने सभा मंचों पर जा बैठते हैं और सुनने वालों का बहुमूल्य समय नष्ट करते हैं। इससे भाषणों की उपयोगिता पर सन्देह उत्पन्न होता है और लोग उनमें जाना निरर्थक कान ने लगते हैं। यह जनता के साथ प्रत्यक्ष अत्याचार है। अपने अहंकार को तृप्ति के लिए दूसरों के समय को बर्बाद करना निश्चित रूप से एक अपराध ही माना जायगा। भले ही अविकसित लोग वैसा अभी अनुभव न करते हों, पर जब विचारशीलता जागेगी तो उथले वक्ताओं को अपराधियों की श्रेणी में ही रखा जाने लगेगा।

किसी सभा में पांच हजार व्यक्ति उपस्थित हैं। उसमें एक अनपढ़ वक्ता ने एक घण्टा बेतुका भाषण दिया। इसका अर्थ हुआ 5000 लोगों के एक घण्टे की बर्बादी। एक काम का दिन अब आठ घण्टे का नहीं सात घण्टे का गिना जाता है। 5000 को 7 से विभाजित करने से 715 दिन हुए। विचारशील लोगों का एक दिन औसतन 15 रुपये का भी गिना जाय तो 715×15—107 अर्थात् लगभग 11 हजार रुपया नष्ट हुआ। वह बकवादी इतना धन अपहरण करने या बरबाद करा देने का अपराधी गिना जा सकता है। फिर कुरुचिपूर्ण, निराशाजनक वातावरण पैदा करके भविष्य में लोगों में उपेक्षा का भाव उत्पन्न कर देना और भी सार्वजनिक हानि है। अस्तु वक्ता को अपने प्रयास की गम्भीरता और प्रतिक्रिया को समझना चाहिए और व्यास पीठ पर—सभामंच पर बैठने से पूर्व अपने, व्यास स्थिति के अनुरूप ज्ञान एवं कौशल को समुन्नत करना चाहिए। वक्ता को यह उत्तरदायित्व अनुभव करना चाहिए कि दूसरों का बहुमूल्य समय खर्च कराने के बदले अपना श्रम, समय, मनोयोग भी उपयुक्त मात्रा में दिया जाना चाहिए। पूर्व तैयारी में अध्ययन, चिन्तन आदि में जो श्रम किया जाय उसे नितान्त आवश्यक ही अनुभव करना चाहिए। दावत का निमन्त्रण देकर जिन लोगों को बुलाया गया उन्हें ऐसे ही धूल-मिट्टी की बनी मिठाई खिला कर वापस नहीं भेज देना चाहिए। यदि दावत की घोषणा की गई है तो उपयुक्त भोजन का प्रबन्ध करना भी कर्तव्य है। वक्ता का उत्तरदायित्व वस्तुतः ऐसा ही है।

नीतिकार का वचन है—‘‘ज्ञानार्जन में तीन आदतें शत्रु के समान हैं—अभ्यास न करना, विद्वान बनने के लिए उतावली बरतना और अहंता ग्रस्त होकर अधिक जानने की जिज्ञासा खो बैठना।’’

अपने जाने बूझे विषय को भी पहले की अपेक्षा अधिक परिष्कृत ढंग से बोलने के लिए उसमें नये तथ्य मिलाने और पुरानों को अधिक आकर्षक बनाने में हर बार चेष्टा करनी चाहिए। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के अध्यापक ई. विल्सन एक बार अपना पाठ्य विषय घर पर से तैयार करके न ला सके तो उन्होंने छात्रों के सम्मुख अपनी असमर्थता के लिए दुख प्रकट करते हुए उस दिन का पाठ पढ़ाया ही नहीं। यद्यपि वे चाहते तो एक दिन का पाठ सामान्य ज्ञान के आधार पर ऐसे ही खींच सकते थे। पर भाषण के साथ जुड़ी हुई अपनी गरिमा का जो मूल्य समझते हैं वे घिसा-पिटा भोजन, वासी कढ़ी के समान निरर्थक मानते हैं। हर बार नवीनता की नीति ही उन्हें गौरवास्पद लगती है। सर विश्वेश्वरैया का एक संस्मरण बड़ा प्रेरक है। वे एक बार किसी देहाती क्षेत्र में महत्वपूर्ण सर्वे कार्य के लिए गये। उनकी ख्याति सुन कर वहां के प्राथमिक विद्यालय के अध्यापक यह अनुरोध करने पहुंचे कि वे छात्रों के सामने कुछ भाषण कर दें। व्यस्तता की बात समझाते हुए उन्होंने मना भी किया किन्तु अध्यापक लोग विनय पूर्वक आग्रह ही करते रहे। अन्ततः अनुरोध को स्वीकार करके वे कुछ मिनट भाषण के लिए तैयार हो गये। स्थानीय स्कूल में उनका पन्द्रह मिनट भाषण हुआ छात्रों तथा उपस्थित ग्रामीणों ने इस अनुग्रह के लिए कृतज्ञता एवं प्रसन्नता व्यक्त की।

इस घटना के कुछ ही दिन बात सर विश्वेश्वरैया का एक पत्र उसी स्कूल के प्रधानाध्यापक के नाम पहुंचा जिसमें लिखा था कि ‘‘अमुक तारीख को पुनः छात्रों के सम्मुख उतने ही समय भाषण करने आ रहे हैं व्यवस्था करने की कृपा करें।’’

अध्यापकों को हर्ष मिश्रित आश्चर्य हुआ कि इतने बड़े आदमी किस लिए भाषण करने आ रहे हैं! जो हो तैयारी की गई और नियत समय पर वे आ पहुंचे। भाषण उन्होंने पढ़कर सुनाया। जब वे चलने लगे तो अध्यापकों ने इस बार इस प्रकार आने का कारण पूछा-उत्तर में उन्होंने बताया कि ‘‘पिछला भाषण बिना तैयारी का था। बिना तैयारी वक्तृता असंबद्ध होती है। उसमें अनेक त्रुटियां रहती हैं। पिछली बार मैंने जल्दबाजी में जो सूझ पड़ा सो कह दिया। पीछे सोचता रहा कि उसमें काफी त्रुटियां थीं। त्रुटिपूर्ण कोई भी कार्य करना कर्ता की अप्रतिष्ठा है। मैंने सोचा उस भूल का परिमार्जन करूंगा ताकि वैसे आलस्य की आदत न पड़ जाय। यहां से जाने के बाद मैंने स्कूली छात्रों का विषय पढ़ा, उसमें से उपयुक्त बातें खोजी तथा नोट तैयार किये। उन्हें ही सुना कर पिछली भूल का परिमार्जन करने मुझे दुबारा यहां आना पड़ा।’’

वस्तुतः यही दृष्टिकोण प्रत्येक उत्तरदायित्व अनुभव करने वाले वक्ता का होना चाहिए। पूर्ण तैयारी किये बिना नहीं बोलना चाहिए। नौटंकी के पात्र अभिनेता अपने आज के अभिनय का पूर्व ‘रिहर्सल’ उस दिन तक करते रहते हैं, तभी उनका कार्य ठीक तरह निभ पाता है। यदि वे उपेक्षा करें तो वे भूल जायेंगे और उसमें त्रुटियां रहने लगेंगी। सभा मंच को भी नाट्य-मंच मान कर चलना चाहिए और उसकी भी पूर्व तैयारी करने में उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।

भाषण में जो कहना है उसके तथ्य क्रमबद्ध रूप में कागज पर नोट कर लेने चाहिए। उस कागज के सहारे स्मरण शक्ति ठीक काम करती है। और जो कहना है वह ठीक तरह कह सकना संभव हो जाता है। कई लोग कागज के सहारे अपनी बात कहने में हेठी समझते हैं, पर वस्तुतः ऐसी बात नहीं है। अति महत्वपूर्ण सम्मेलनों में मूर्धन्य एवं विशेषज्ञ व्यक्ति अपना भाषण पढ़कर ही सुनाते हैं। स्नातकों को उपाधि पत्र देने के लिए आयोजित दीक्षान्त समारोहों को गण्यमान्य व्यक्ति ही सम्पन्न करते हैं। उनके प्रवचन प्रायः छपे या लिखे हुए ही होते हैं। राष्ट्रपति और राजनेता अपने प्रामाणिक भाषण पढ़ कर ही सुनाते हैं। कालेजों के प्रोफेसर हर दिन घर से अपने पढ़ाने का विषय तैयार करके लाते हैं और नोट्स सामने रख कर उसे क्रम बद्ध रूप से छात्रों को पढ़ाते हैं। इसमें हेठी की कोई बात नहीं। स्मरण शक्ति किसी की भी इतनी नहीं होती कि तैयार किया हुआ प्रवचन याद बना रहे। तैयारी को विस्मृति से बचाने के लिये नोट्स तैयार करने और प्रवचन के समय उसे सामने रख लेने की बात हर दृष्टि से उपयोगी है। यदि फिर भी कुछ झिझक लगे तो वे संक्षेप, संकेत रूप में लिखे नोट्स किसी अखबार—मासिक पत्रिका आदि के ऊपर लगा कर सामने रखे जा सकते हैं। उन पर तिरछी नजर डालकर विषय क्रम को व्यवस्थित रखा जा सकता है।

नोट्स लिखे कागज का सहारा लेना नौसिखिये वक्ताओं के लिए तो नितान्त आवश्यक है। उनके लिए भी उनकी उपयोगिता है जो अपने हर भाषण में कुछ विशेषता एवं नवीनता लाने के इच्छुक हैं। जिन्हें अपना ज्ञान बढ़ाने और जनता को नई जानकारियां, अभिव्यक्तियां देने में अपना गौरव होता है। वे सदा पढ़ते और सोचते रहते हैं। जो उपयुक्त लगता है उसे नोट करते हैं। स्मरणशक्ति इतनी प्रखर कदाचित ही किसी की होती है जो पढ़ी, सोची बातों को सभा-मंच पर यथाक्रम-यथा प्रवाह कहते चला जाय। साधारणतया यह कार्य नोट्स, पर्चा सामने रख कर ही संपन्न करना पड़ता है। इस प्रक्रिया को अपनाने में अपनी हेठी नहीं; विशेषता अनुभव की जानी चाहिए।
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