भाषण और संभाषण की दिव्य क्षमता

आरम्भिक कठिनाई का समाधान आधी सफलता

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प्रवचन का अभ्यास क्रम यह है कि सर्वप्रथम एकाकी, बाद में मित्र-प्रियजनों के साथ, तदुपरान्त परिवार के समूह में, इतना बन पड़ने के बाद बाहर जाने, गोष्ठियों में बोलने एवं मंच सम्भालने का अभ्यास करना चाहिए। एकाएक बिना तैयारी के मंच पर जा बैठने और बिना पूर्व तैयारी के बोलने लगने पर जब प्रवाह बन नहीं पड़ता तो लगता है कि लोग जाने क्या सोचेंगे? मूर्ख माना जायेगा और हंसी उड़ेगी। ऐसे विचार मन में आते ही मस्तिष्क उलझन और असमंजस से भर जाता है और जो कुछ सरलता पूर्वक बोला जाता था, वह भी ध्यान से उतर जाता है। इस हड़बड़ी में न बोलते बनता है और न चुप रहते। न चल देने की हिम्मत रहती है और न बैठे रहने की। ऐसी उलझन में फंसे हुए लोग कुछ कहते और पसीना-पसीना होते देखे गये हैं। उस स्थिति से बचने के लिए यही उचित है कि क्रमबद्ध रूप में कइयों के साथ सम्भाषण या मंच पर बैठकर भाषण करने की तैयारी करनी चाहिए।

वार्तालाप हर कोई कर सकता है। पर उन्हीं के साथ, जिनसे झिझक खुली हुई हो। मैत्री हो। साथ-साथ रहना बन पड़ा हो या घनिष्ठ परिचय हो। संकोच की दीवार ही वार्ता में अड़चन डालती है, जीभ सभी की एक-सी है न किसी के मुंह में फिसलन है जिस पर जीभ लुढ़कती चली जाए और न किसी के जबड़े में झाड़ियां उगी हैं जो कुछ कहने में रास्ता रोकें। जब मित्र-साथियों के साथ धड़ल्ले के साथ घंटों बोला जा सकता है तो कोई कारण नहीं कि उद्देश्यपूर्ण वार्तालाप में कोई कठिनाई आड़े आये। कोई अड़चन आड़े आये। लड़कियां अपनी सहेलियों के साथ घंटों गप-शप करती रहती हैं। लड़के भी पीछे कहां रहते हैं। तीसरे प्रहर जब महिलाएं घर के काम-काज से छुट्टी पाती हैं तो मिल-बैठकर न जाने कहां-कहां की कहनी अनकहनी बोलती-सुनती रहती हैं। बुड्ढे भी जब समय काटने को बैठते हैं तो अपने उठते दिनों की कड़वी-मीठी बातें एक-दूसरे के सामने प्रकट करते हुए मन हलका करते हैं। बस चले तो कोई इस वार्ताक्रम को समाप्त न करे क्योंकि यह भी खेलने की तरह मधुर और आनन्ददायक होता है इस पर्यवेक्षण से स्पष्ट है कि जीभ की बनावट में, स्वर यंत्र में कंठ की उच्चारण पेशियों में कदाचित् ही किसी में ऐसी कमी होती हो जिसके कारण उसे भाषण या संभाषण में असमर्थता प्रकट करनी पड़े और अपने को इसके लिए अयोग्य मानना पड़े।

इस संदर्भ में अड़चन मात्र मनोवैज्ञानिक है। अजनबी को देखकर छोटे बच्चे अचकचा जाते हैं और सहमकर सुरक्षित स्थान में, अभिभावकों के पास जा छुपते हैं। इसमें वास्तविक कारण कुछ भी नहीं है। न तो आगन्तुक कुछ ऐसा व्यवहार करने वाला है जिससे बच्चे को डरने की आवश्यकता पड़े और न बच्चे में ही कोई ऐसी कमी है जिसके कारण आगन्तुक को कुछ उत्तेजित होना पड़े। इस सहज स्वाभाविक मिलन को बहुत से बच्चे प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लेते हैं। उसके पास जा पहुंचते हैं। उठाने पर हंसते हुए गोदी में चले जाते हैं। इससे दोनों की प्रसन्नता पढ़ती है। कई बार तो इस मिलन के साथ कुछ उपहार भी मिल जाता है और बच्चा हंसने-हंसाने से लेकर उपहार पाने तक किसी न किसी नफे में ही रहता है। जब कि संकोची बच्चे असमंजस में डूबे, उस उपस्थिति वाले समय में झेंपते-झिझकते इधर-उधर मुंह छिपाते फिरते हैं।

लगभग यही मनःस्थिति बहुत बार बड़े होने पर भी बनी रहती है। विशेषतया भाषण-संभाषण के अवसर पर अभ्यास न होने की स्थिति अजनबी बन जाती है और अकारण असमंजस में डुबो देती है। परीक्षा के समय कमजोर तबियत वाले छात्र उसी तरह घबराते देखे गये हैं। प्रश्न वही है जिन्हें साल भर तक पुस्तकों में पढ़ा है। छपे पर्चों में कोई ऐसी बात नहीं है जो पढ़ी-समझी न जा सके, सामान्य स्थिति में उन पूछे गये प्रश्नों के उत्तर साथियों को फटाफट बताये जा सकते थे। किन्तु परीक्षा हाल में प्रवेश करने पर यह स्वनिर्मित भयानकता भूल-पलीत जैसी डरावनी बनकर सिर पर आ चढ़ती है और सारे होश-हवास गायब कर देती है। फलतः प्रश्नपत्र हल करते समय परीक्षार्थी उसका आधा-तिहाई ही लिख पाता है जितना कि होश-हवास सही रहने पर संचित जानकारी के आधार पर बिना किसी अड़चन के लिख सकता था।

अंधेरे की तरह अनभ्यास की स्थिति भी डर बनी होती है। प्रवास में आमतौर से इतनी कठिनाई नहीं होती है जितनी कि सोची जाती है और हैरानी बनकर मन को असमंजस में डाले रहती है। कइयों के लिए यह खेल होता है। ट्रेवलिंग एजेण्ट का काम करने वालों के लिए प्रवास एक नितान्त सरल स्वाभाविक प्रक्रिया है। सफर करने, ठहराने, दैनिक आवश्यकताएं पूरी करने से लेकर ग्राहक तलाश करने और आर्डर इकट्ठे करने में उन्हें तनिक भी कठिनाई प्रतीत नहीं होती है। लम्बी जिन्दगी इसी धंधे में गुजार देते हैं। दूसरा काम बताने पर कहते हैं ‘ऐसी मजेदारी अन्यत्र कहां मिलेगी।’ एक ओर इतनी प्रसन्नता, दूसरी ओर प्रवास की कठिनाई के बारे में सोचते-सोचते हैरान हो जाना, साथी के बिना काम चलते न दीखना, यह बताता है कि प्रवास न तो उतना मजेदार है और न उतना कठिन जितना कि दो भिन्न प्रकृति के व्यक्ति उसे मान बैठते हैं। मुख्य कठिनाई अनभ्यास की है। अजनबी डरावना होता तो नहीं पर वैसा लगता है। अंधेरा डराना लगता है। इसमें आशंकाएं उठती रहती हैं। जबकि चोर उचक्के अंधेरे की ही प्रतीक्षा करते रहते हैं और इसी में छिपते-बैठते घात लगाते हैं। अंधेरा-उजाला अपने मन की बनावट से ही भला-बुरा लगता है। कइयों को कमरे में बत्ती जलाकर ही सोते बनता है। कई अंधेरे में ही नींद आने की बात कहते हैं। इसे मनःस्थिति की भिन्नता ही कहना चाहिए। अनभ्यस्त होने, अंधेरे की परिस्थितियों से परिचित न होने के कारण ही डर लगता है, कोल-भील अलग झोपड़ियां डालकर बीहड़ वन्य प्रदेशों में रहने के अभ्यस्त होते हैं। उन्हें गांव बसाकर एक साथ रहने में बुरा लगता है जब कि कितने ही व्यक्ति जनसंकुल घर मुहल्ले में रहते हुए ही सुरक्षा का अनुभव करते हैं।

उपरोक्त उदाहरणों से यह बताने का प्रयत्न किया गया है कि भाषण-संभाषण न कठिन है न सरल। उसी बात को यों भी कहा जा सकता है कि वह सरल भी है और कठिन भी। सरल उनके लिये जो अपरिचित लोगों के बीच जाकर भी किसी भय या विपत्ति की आशंका नहीं करते, कठिन उनके लिए जो प्रसंग आने पर अपनी अक्षमता और दूसरों द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली अग्नि परीक्षा का काल्पनिक डर खड़ा करते हैं, और उस अपडर के कारण होश-हवास गंवा बैठते हैं। जिन्हें बोलने का अभ्यास है वे परिचित के साथ वार्तालाप की तरह ही अजनबी लोगों के साथ अपने विचार धड़ल्ले के साथ प्रकट करते हैं। सड़कों के किनारे मजमा लगाकर माल बेचने और पैसा मांगने वाले मदारी स्तर के लोग जहां-तहां खड़े देखे जा सकते हैं। कुछ कहना शुरू करते हैं, उनकी आवाज में कड़क और चमक देखकर रास्ते चलते लोग खड़े हो जाते हैं। देखते-देखते भीड़ का घेरा बंधता है और धंधे बाजी चल पड़ती है। भीड़ का हर व्यक्ति अजनबी था फिर भी मदारियों को उनके सामने बोलते रहने में वैसा ही स्वाभाविक लगता है जैसा कि यार-दोस्तों में गपबाजी का माहौल घंटों चलता रहता है।

भाषण कला में प्रवीणता प्राप्त करने की आधी मंजिल तब पूरी हो जाती है जब इच्छुक का अपडर उसके मन से किसी न किसी प्रकार निकल जाये, जिसमें वह सोचता है कि ‘‘उसमें वैसी योग्यता है नहीं, उसके भाग्य में यह बदा नहीं है। इस कला में कोई बिरले ही प्रवीण हो सकते हैं,’’ आदि-आदि। यह मिथ्या कल्पनाएं आत्महीनता की प्रतीक हैं। अन्य क्षेत्रों में यह ग्रन्थि प्रगति का रास्ता रोकती है। संकोची, डरपोक प्रकृति के शंकाशील व्यक्ति अड़चनों, असफलताओं की बात सोचते और अवसर डालते रहते हैं। अनिश्चय की स्थिति में समय गुजर जाता है। साथी बढ़ जाते हैं और वे हाथ मलते रह जाते हैं।

यही आत्महीनता वक्तृता के क्षेत्र में मिलने वाली सफलता का द्वार रोकती है। साहसबाजी मारता है। साधन सम्पन्न जो काम नहीं कर पाते उसे साहसी, साधनहीन स्थिति में भी आत्मविश्वास, सूझ बूझ और क्रिया कौशल के सहारे कर गुजरते हैं। अन्य क्षेत्रों में जो सिद्धान्त लागू होता है वही भाषण कला पर भी अक्षरशः लागू होता है। जो भीड़ से नहीं डरते, जिन्हें अपने ऊपर विश्वास है वे इस क्षेत्र में निश्चित रूप से सफलता प्राप्त कर सकते हैं।

कहा जा चुका है कि जीभ चलाना उतना ही सरल या कठिन है जितना साइकिल चलाना, उसके अभ्यास में भी पहली बार कइयों को डर लगता है और गिरने, दांत टूटने, घुटने फूटने, साइकिल बिगड़ने, हंसी उड़ने जैसी आशंका होती है। यदि हड़बड़ा गये तो गिर पड़ना भी संभव है। तब साइकिल टूटे या न टूटे, हिम्मत अवश्य टूट जाती है। कइयों के मन पर यह प्रथम दिन की असफलता इतनी हावी हो जाती है कि फिर वे हजार समझाने पर भी उस प्रयास को दुबारा करने के लिए तैयार नहीं होते। एक ओर यह सीखना इतना कठिन सिद्ध हुआ, दूसरी ओर यह तथ्य भी सामने है कि आठ-आठ वर्ष के बच्चे फ्रेम के बीच में घुसकर, हेण्डिल पर लटकते हुए, भारी भीड़ के बीच होकर उसे दौड़ाते हुए मीलों की दूरी पार करते हैं। दोनों उदाहरणों को देखकर जाना जा सकता है कि इस सीखने में सफलता-असफलता मिलने का प्रधान कारण क्या है?

सीखने वाले को अपने आपको इसके लिए सहमत करना चाहिए कि यह कार्य कठिन नहीं सरल है, आरम्भिक दिनों में ही कुछ सावधानी बरतने की आवश्यकता है। अभ्यास के प्रारम्भ में ही थोड़ी सावधानी और साहसिकता की आवश्यकता पड़ती है यदि वह बन पड़े तो यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि हर व्यक्ति वक्ता बन सकता है। जिसके मस्तिष्क में विचार उठ सकते हैं उसकी जीभ भी उन्हें प्रकट करने में समर्थ हो सकती है। विक्षिप्तों या आत्मविश्वास खो बैठने वालों के सम्बन्ध में ही असफल रहने की बात कही या सोची जा सकती है। या तो तत्काल या कभी नहीं की आतुरता बरतने वाले क्षणभर में आवेशग्रस्त होकर कुछ भी कर डालने और प्रथम प्रयास में ही सफल होने के रंगीन सपने देखते हैं। साथ ही उस आतुरता में एक दोष भी रहता है कि तनिक सी अड़चन आई, तुरन्त सफलता न मिली तो धैर्यपूर्वक प्रयत्नरत रहना और कल नहीं तो परसों सफल होकर रहने का संकल्प वे नहीं अपना सकते। पानी के बबूले की तरह देखते-देखते उनका उत्साह समाप्त हो जाता है। ऐसे लोगों को समझना और समझाया जाना चाहिए। अनवरत गतिशील रहने वाला कछुआ उतावले खरगोश के साथ बाजी जीतने में सफल हुआ। छोटे कदम बढ़ाती हुई चींटी कुछ ही दिनों में योजनों का सफल कर लेती है और पहाड़ की चोटी तक जा पहुंचती है। अनवरत श्रम का माहात्म्य कालिदास और वदराजाचार्य जैसे उन असंख्यों के मुंह सुना जा सकता है, जो तनिक सी असफलता मिलने पर हिम्मत छोड़ बैठे थे पर जब उनने नये सिरे से निरन्तर अथक श्रम करने का निश्चय किया तो वेद संसार के मूर्धन्य मनीषियों की अग्रिम पंक्ति में जा बैठे। वक्तृता के इतिहास में ऐसे अगणित लोगों के नाम हैं जो आरम्भ में सर्वथा असफल रहे, उपहासास्पद बने किन्तु हिम्मत न छोड़ने और अनवरत प्रयत्न करने के फलस्वरूप अपने समय के असाधारण वक्ता सिद्ध हुए। वह उदाहरण हर किसी पर लागू हो सकता है। शर्त एक ही है कि या तो स्वयं ही आत्महीनता की ग्रन्थि खोली जाए या फिर कोई मनस्वी दबाव देकर यह विश्वास कराये कि अनवरत श्रम और अटूट विश्वास अपनाने पर निश्चित रूप से सफल होकर रहेगा, पुरुषार्थ से जी चुराने वाले, क्षेत्र में उत्साहित क्षम में निराश होने वाले, सफलता का मूल्य अध्यवसाय के रूप में चुकाने से कतराने वाले ही—असफल होते हैं। असफलता का तात्पर्य है—सच्चे मन से पूरा श्रम न किया जाना। इस कमी को किसी प्रकार पूरा किया जा सके तो असफलताओं की भारी भरकम लाश ढोते रहने वाले, दुर्भाग्य का रोना—रोते रहने वाले—अपने भाग्योदय का नया अध्याय खुलता देखेंगे। निस्संदेह मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता है। वह चाहे तो अपने ललाट में अपनी ही कलम से कुशल वक्ता होने की भविष्य वाणी लिख सकता है। इतना छोटा काम करने के लिये विधाता की मनुहार करना कतई आवश्यक नहीं।

किया क्या जाय? इस संदर्भ में यह नीति अधिक उपयोगी है कि छोटे कदम बढ़ाते हुए अभ्यास आरम्भ किया जाय और परिपक्वता बढ़ने के साथ-साथ बड़ा काम हाथ में लिया जाए। पहले एकाकी फिर घनिष्ठों के साथ शुभारम्भ करने की नीति सही है इससे क्रमिक विकास में सुविधा रहती है।

एकाकी अभ्यास के कई तरीके हैं। एक यह है कि बड़े दर्पण के आगे खड़े होकर अपने आपे को ही एकान्त कमरे में परामर्श देने वाली वार्ता आरम्भ की जाए और देखा जाए कि मुखाकृति के प्रभावशाली होने में कोई कमी तो नहीं रहती। रहती तो उसे बार-बार सुधारने के लिए तौर तरीके बदल-बदल कर देखना चाहिए और जो मुद्रा जो शैली उपयुक्त हो उसे अपनाना चाहिए।

एकाकी कमरे में कई पुस्तकें, कई वस्तुएं श्रोताओं की तरह पंक्तिबद्ध रखनी चाहिए और उन्हें जन समुदाय मानकर अपनी वक्तृता आरम्भ कर देनी चाहिए। इससे यह भय न रहेगा कि सुयोग्य व्यक्ति गलती पकड़ेंगे, हंसी उड़ायेंगे। पुस्तकें तो निर्जीव हैं। वे बेचारी आलोचना क्या करेंगी? जहां रख दी गई वहीं रखी रहेंगी। अपना मन समझाने के लिये उन्हें जन समुदाय माना जा सकता है और निर्भय होकर-विश्वास पूर्वक प्रवचन क्रम जारी रखा जा सकता है।

यह अभ्यास घर से बाहर जाकर भी किया जा सकता है, खेतों में अनेक पौधे उगे होते हैं। बगीचे में कितने ही वृक्ष होते हैं। नदी किनारे कितने ही छोटे पत्थर पड़े होते हैं। उन्हीं को मनुष्य मानकर उपदेश देने का अभ्यास किया जा सकता है। थोड़े ही दिनों में मन इस निष्कर्ष पर पहुंच जायेगा कि वाणी में कोई दोष नहीं है, जीभ में कोई कमी नहीं है, मुख में फिट किया हुआ भाषण तंत्र पूर्णतया सही और समर्थ है, इस संदर्भ का असमंजस दूर होने पर बात इतनी सी रह जाती है कि आत्महीनता जन्य संकोच भय से पीछा कैसे छुड़ाया जाए।

इसके लिये मित्र मण्डली की सहायता ली जा सकती है और अपना तथा सभी का प्रवचन अभ्यास करने के लिये छोटी मंडली को विशाल जन समूह की मान्यता दी जा सकती है। इसमें कोई बाहरी व्यक्ति न होने से हंसी उड़ाये जाने का कोई भय नहीं है वरन् सफलता पर प्रशंसा और असफलता के कारण बताने का परामर्श मिलते रहने पर अधिक सतर्कता बरतने और अधिक साहस उभारने का अवसर मिलेगा। एक दूसरे का भाषण-संभाषण ध्यान पूर्वक सुनें, जहां अच्छा बन पड़ा उसकी प्रशंसा करें, जो भूल रही उसे बतायें, उसे सुधारने का उपाय समझ में आये तो उसे सुझाये। इस प्रकार चार छह मित्रों की मण्डली भी एक अच्छे ‘प्रवचन क्लब’ की आवश्यकता पूरी कर सकती है, उसकी बैठक कभी भी कहीं भी हो सकती है। इससे किसी भाषण कला विद्यालय में प्रवेश पाकर अच्छा पाठ्यक्रम पूरा करने की तरह ही लाभान्वित हुआ जा सकता है भाषण क्लब बनाकर छात्र छात्राएं ही नहीं सामाजिक कार्यकर्ता भी अपनी यह प्रवीणता सहज ही बढ़ा सकते हैं।

गपशप और वार्तालाप में मौलिक अन्तर यह रहता है कि गपशप में कोई विषय नहीं रहता, न कोई उद्देश्य होता है। कहने के लिए कहा जाता है, जिसके मन में भड़ास उठती है वह बोलता जाता है। दूसरे भी पीछे नहीं रहते। वे भी अपना चेहरा चमकाने, दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने, इसी प्रसंग में तीसमारखाँ बनने की चेष्टाएं चलती रहती हैं और समय कटुने का कभी समर्थन कभी काट विरोध का सिलसिला चल पड़ता है। वार्तालाप का स्तर भिन्न है उसमें उद्देश्यपूर्ण विचार विनिमय होता है और साथ ही कुछ निष्कर्ष निकालने, निष्कर्ष को अनेकों तक फैलाने तथा तदनुरूप कुछ कदम उठाने, कार्य करने की योजना भी रहती है। यह मित्र-मित्रों के बीच भी हो सकता है। इसमें सभी पक्ष अपना अभिमत व्यक्त करते हैं और फिर किसी समस्या को सुलझाने के लिए किसी निर्णय पर पहुंचते हैं। संसदें, इसी स्तर का विचार विनिमय करती हैं। इसी को छोटे रूप में सामयिक वार्तालापों के माध्यम से मित्र मंडली या परिजनों के बीच भी किया जा सकता है। इसके अन्यान्य लाभों में एक बड़ा लाभ यह है कि अभिव्यक्ति के प्रकटीकरण का अभ्यास बनता है। यही आगे चलकर विकसित वक्तृत्व कला का आधार भी बन सकता है।
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