भाषण और संभाषण की दिव्य क्षमता

श्रोताओं को नियमित रूप से उपलब्ध करने की सरल प्रक्रिया

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वक्तृता का अभ्यास नितान्त आरंभिक स्थिति में ही एकाकी हो सकता है। कुछ समय आगे बढ़ने पर उसके लिए श्रोता तलाश करने पड़ते हैं। दुकान बिना ग्राहकों के कैसे चले? विद्यार्थी न हों तो पाठशाला क्या? कर्मचारी न हों तो कारखाने का क्या उपयोग? मरीज न हों तो अस्पताल में हलचल कैसे चले? यही बात वक्ता के सम्बन्ध में भी है। उसकी गाड़ी तभी चलेगी जब श्रोताओं की उपस्थिति रहने लगे।

इन दिनों यह कार्य सरल नहीं रहा। कठिन हो गया है। हर व्यक्ति अपनी ही समस्याओं में उलझा हुआ है। व्यस्तता उस पर भूत की तरह सवार है। थका-मांदा और कल की चिन्ताओं में डूबा हुआ मनुष्य प्रवचन सुनने के लिए सहज ही तैयार नहीं होता। उसके लिए उत्साह तभी उत्पन्न होता है जब कोई असाधारण बात हो। कोई विशिष्ट व्यक्ति, मनीषी या विद्वान पधारें। उन्हें देखने और सुनने के लिए उत्साह भरने वाली कोई विशेष प्रेरणा जुड़ी हुई हो। अन्यथा लोग अनधिकारी, अनगढ़ वक्ताओं की बाढ़ से ऊबने लगते हैं। इश्तहार छापने, मुनादी कराने पर भी पंडाल खाली पड़े रहते हैं। अब वह समय चला गया जब व्यास पीठ पर कोई मूर्धन्य व्यक्ति ही बैठते या बैठने दिये जाते थे। अब राज्य संचालन के लिए किसी को हर कसौटी पर खरा सिद्ध नहीं होना पड़ता। चुनाव के हथकंडे जानने वाला कोई भी अनगढ़ व्यक्ति राज्य संचालन का दावेदार बन सकता है। यही बात वक्ताओं के संबंध में भी कही जा सकती है। उनमें से तथ्यानुयायी गिने चुने होते हैं। शेष तो आत्मश्लाघा के लिए जहां भी मंच देखते हैं वहीं किसी न किसी प्रकार जा सवार होते हैं। माइक एक बार हाथ लग जाय तो मनोवांछा की पूर्ति हुई मानते हैं और फिर उसे छोड़ने का नाम नहीं लेते। ऐसे उद्धत बकवासी भर जाने से श्रोताओं को उस ठलुआ पंथी में समय खराब करने में क्रमशः अरुचि ही बढ़ती जाती है। न वक्ता का स्तर न वक्तृता का; फिर कोई क्यों अपने आराम में खलल डाले, क्यों अपने जरूरी काम छोड़े?

इन दिनों वक्ताओं की कमी नहीं पर श्रोता जुटाने में संयोजकों का पसीना छूटता है। प्रचार के साधन अब भोंथरे होते जाते हैं। अखबार में सूचना छापना, पर्चे बांटना, पोस्टर चिपकाना, लाउडस्पीकर घुमाना, रास्तों के ऊपर कपड़े के बैनर टांगना अब पुराने जमाने की घिसी पिटी परम्परा बन गई है। उतने भर से जनता को उपस्थित होने के लिए उत्साहित नहीं किया जा सकता। अब व्यक्तिगत निमंत्रण देने के लिए टोलियां बनाकर निकलना, रुचि रखने वालों को तलाशना और उपस्थित होने के लिए उनसे आग्रह करना पड़ता है। संकोचवश दिए गए वचन का पालन करने के लिए कुछ लोग किसी प्रकार जा पहुंचते हैं। इन दिनों सभा सम्मेलनों में यही उत्साह रहित विडंबना चल रही है। जहां अधिक जनता उपस्थित होती है वहां कुछ बड़े कारण होते हैं। बड़ों का आगमन, बड़े निर्धारण, अभिनव आकर्षण, सजधज, प्रचार की धूम, कौतुक-कौतूहल जैसी अनेक बातें मिल जाने पर ही अधिक उपस्थिति होती और सभा सफल समझी जाती है। ऐसा कुछ न हो तो रैली, जुलूस निकालने के लिए किराये के आदमी जुटाने पड़ते हैं। सभा संयोजन के अभ्यस्त जानते हैं कि अब उपस्थिति जुटाना कितना कठिन होता जा रहा है। समझा जाता है कि इस एकत्रीकरण के लिए माहौल बनाने में न्यूनतम पांच रुपया प्रति आदमी औसत खर्च आता है। भालू का नाच या नाटक-तमाशा करने, नाच रंग देखने वाली अनगढ़ भीड़ किसी उत्तेजक आकर्षण के सहारे जुटा लेना एक बात है। पर, युग सृजन जैसे जन साधारण की उपेक्षा अरुचि वाले प्रसंग के लिए विचारशील लोगों को इकट्ठे कर लेना कठिन है। इस कठिनाई के रहते अभ्यासी वक्ताओं को वे श्रोता कैसे मिलें? कहां मिलें? जिनके सामने वह अपना प्रयोग आरम्भ करें और प्रवीणता के स्तर तक पहुंचने तक उन्हें बिठाये रखें।

समस्या जटिल है। अभ्यास में आत्महीनता और विचार विश्रृंखलता की नहीं, आगे चलकर यह कठिनाई भी सामने आती है कि श्रोता कैसे जुटें? और वे बिना ऊबे अधिक दिनों तक अभ्यासी के लिए अपना समयदान उदारतापूर्वक देते रहें। आये दिन सम्मेलन कौर करे? फिर उनमें अभ्यासी को प्रमुखता कौन दें? ऐसी दशा में एक बड़ा अवरोध आ खड़ा होता है और गाड़ी रुक जाती है।

अड़चन का समाधान एक ही है कि कार्य अपने घर परिवार से आरम्भ किया जाय। यह सरल है। बच्चों को कहानियां सुनने की सहज रुचि होती है। उनके लिए यह एक अच्छा खासा मनोरंजन है। दादी के, बाबा के पीछे वे पड़े ही रहते हैं और उन्हें फालतू समय का उपयोग कहानी सुनाने के लिए करते रहने को विवश करते हैं। घर में कोई दूसरा भी इस आवश्यकता को पूरा करने लगे तो वे उससे भी चिपट जाते हैं। दीदी, बुआ, भाभी, चाची आदि को ऐसा कुछ आता हो तो वे उसके पीछे-पीछे भी लगे फिरते हैं और समय कुसमय सुनने सुनाने की अपनी फरमाइश पेश करते हैं। उस बाल मंडली को वक्तृत्व कला का अभ्यासी आसानी से बुलाने समेटने में सफल रह सकता है।

घरों में कहानियां कहने की परम्परा अनेक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है। इस माध्यम से बालकों का मनोरंजन ही नहीं होता, उनका ज्ञानवर्धन और चरित्र निर्माण भी इस आधार पर होता है। बचपन ही व्यक्तित्व निर्माण का असली समय है। कठिनाई यह है कि छोटी आयु में नीति सिद्धान्तों को ठीक तरह समझ सकने के लिए बौद्धिक विकास आवश्यक है। वह होता नहीं, प्रशिक्षण चाहिए ही। इसका सामंजस्य कथा-कहानियों से ही बैठता है। इसलिए न केवल बालनिर्माण के लिए वरन् समूचे परिवार के लिए कथा कहानियों का प्रवचन आवश्यक है। उसे परिवार के भोजन वस्त्र जैसी अनिवार्य आवश्यकता भी माना जाना चाहिए। गंभीरता पूर्वक उसकी उपयोगिता समझनी चाहिए और तत्परतापूर्वक उसकी पूर्ति होनी चाहिए।

बच्चों को आगे रखकर कहानी कहने सुनने का प्रसंग चलता है पर यह भी एक तथ्य है कि उन्हें रस पूर्वक घर के अन्य लोग भी सुनते हैं। भले ही बच्चों की पंक्ति में वे न बैठें पर कान तो लगाये ही रहते हैं और न्यूनाधिक मात्रा में बच्चों की तरह ही उसमें रस लेते और प्रसन्न होते हैं। परोक्ष शिक्षण के लिए कथा से उपयुक्त और कोई माध्यम नहीं। प्रत्यक्ष शिक्षा से लोगों को अपना अपमान प्रतीत होता है। अहंकार को चोट लगती है और प्रतीत होता है हमें गया गुजरा समझा जा रहा है और निर्देश देकर जलील किया जा रहा है। इस मनोवैज्ञानिक कठिनाई के कारण अनेक बार तो सत्परामर्श देने वाले विरोध मोल ले लेते हैं और सुनने वाला चिढ़कर और अधिक मात्रा में अवांछनीयता के प्रति दुराग्रही हो जाता है। सत्परामर्श देना भी आवश्यक और उसे तौहीन समझा जाना भी निश्चित। ऐसी दशा में हितोपदेश, पंचतंत्र वाली शैली ही कारगर होती है। विष्णु शर्मा ने उद्दण्ड राजकुमारों को नीति कथाएं सुना सुनाकर ही प्रशिक्षित करने में सफलता पाई थी। यह परोक्ष शिक्षण पद्धति ही इन दिनों अधिक उपयोगी एवं सफल सिद्ध होती हुई पाई गई है। अब फिल्में तथा उपन्यास ही भले-बुरे लोक शिक्षण की प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं। उन्हीं के आधार पर लोकमानस बन रहा है। घर परिवार की सीमा मर्यादा में ही यदि व्यक्तित्व विकास को आवश्यक समझा जाय तो इसी परोक्ष शिक्षण प्रक्रिया को काम में लाना चाहिए। इसके लिए कथा उपक्रम को परिवार के दैनिक प्रचलन में सम्मिलित करना चाहिए।

बाल-वृद्ध सभी के लिए समान रूप से उपयोगी एवं आकर्षक पद्धति है परिवार में नियमित धर्मकथा की व्यवस्था। इसे एक पुण्य परम्परा के रूप में नियमित रूप से चलना चाहिए। कुछ समय पूर्व घरों में रामायण कथा होती थी। उसे अतिशय पुण्य फलदायक धर्मकृत्य माना जाता था। जिन्हें कोई अनिवार्य काम नहीं होता वे सभी रुचि पूर्वक उसमें सम्मिलित होते थे। इस कथन श्रवण में भाव श्रद्धा भी जुड़ी रहती थी। ऐसी मनोभूमि में जो भी बीजारोपण होता है वह ठीक तरह अंकुरित होता और उगता है। सभी धार्मिक कर्मकाण्डों का ढांचा इसी मनोविज्ञान सम्मत तथ्य को ध्यान में रखते हुए खड़ा किया गया है। विवाह ऐसे भी बिना किसी रस्म रिवाज के हो सकते हैं पर वैसी बाजारू शादी के चिरस्थायी होने में सन्देह ही बना रहेगा। धूमधाम के साथ बरात पंचायत की उपस्थिति में, देवताओं की साक्षी और ग्रंथिबंधन, पाणिग्रहण, सप्तपदी आदि कृत्यों के साथ सम्पन्न होने पर स्वभावतः इस अनुबंध में दृढ़ता आती हैं। इस क्रियाकृत्य की गहरी छाप पड़ती है और विवाह बन्धन अनेक कठिनाइयों के रहते हुए किसी प्रकार निभ जाता है। कर्मकाण्डों के अभाव में मात्र वार्ता विवाह से वह दृढ़ता आ सकेगी इसमें सन्देह है। घरों में रामायण कथा यदि धर्मश्रद्धा को आधार बनाकर कही जाय तो उसका प्रभाव हंसी मजाक की कहानियां की तुलना में कहीं अधिक गहरा पड़ेगा, यह निश्चित है।

रामायण कथा की ही तरह प्रज्ञा पुराण की घर परिवार में धर्मकथा की तरह पुण्य परम्परा बनाई जा सकती है। नीति प्रधान कथाओं की भरमार रहने से उस प्रशिक्षण का न केवल बालकों पर वरन् समूचे परिवार पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा। घर में शालीनता, सुसंस्कारिता का सम्वर्धन प्रकारान्तर से उस समुदाय के उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण है। इसे मात्र मनोरंजन, परम्परा निर्वाह, धर्मकृत्य ही नहीं वरन् यह भी माना जाना चाहिए कि इस प्रयास में परिवार निर्माण का कर्त्तव्य भी निभ रहा है। भोजन, वस्त्र, शिक्षा, चिकित्सा की तरह यह भी आवश्यक है कि घर के सदस्यों को उत्कृष्टता की दिशा में अग्रसर करने वाला वातावरण भी बने, प्रशिक्षण भी मिले। यह सारी प्रक्रिया घर में प्रज्ञा पुराण की कथा वार्ता का शुभारंभ कर देने से भली प्रकार चल सकती है। धर्मश्रद्धा के साथ उसे नियत समय पर, नियत स्थान पर विधिवत् स्तवन-पूजन, सहगान कीर्तन के साथ आरम्भ और समाप्त किया जा सके तो बहुत ही अच्छा है। अन्यथा उस ग्रन्थ में दी हुई कथाओं को छोटों को एकत्रित करके कहानियों के रूप में भी नियमित रूप में कहने का उपक्रम आरंभ किया जा सकता है। उपस्थिति पहले पहल बालकों की हो तो हर्ज नहीं, पीछे उसमें दूसरे वयोवृद्ध खाली हाथ सम्मिलित होते चलेंगे। उपयोगिता प्रतीत हुई तो बड़े और कामकाजी लोग भी नियमित या अनियमित रूप से सम्मिलित होने लगेंगे। इसके लिए परामर्श देना भर पर्याप्त है। अग्रह न करें, दबाव न डालें। इसकी प्रतिक्रिया उलटी हो सकती है। उचित यही है कि धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा की जाय और जो सम्मिलित होते हैं उनको सराहते हुए औरों से भी इस प्रयास से लाभान्वित होने का अनुरोध किया जाता रहे। जो न आयें उनसे बुरा मानने तक बात न बढ़ने दी जाय। दबाव की अपेक्षा मीठा अनुरोध सदा प्रभावी सिद्ध होता है। इस तथ्य को नोट किया जा सकता है। परिवार में धर्मकथा के प्रचलन में भी यही नीति अपनाई जाय।

जहां ऐसा न बन पड़े वहां कहानियां, दैनिक पत्रों के समाचार, पुस्तकों के महत्वपूर्ण उद्धरण, संस्मरण पढ़कर सुनाने जैसा कुछ स्वाध्याय- सत्संग का सम्मिलित ढांचा खड़ा किया जा सकता है, परिवार की बौद्धिक, भावनात्मक भूख बुझाने और उन्हें व्यक्तित्व के विकास में प्रोत्साहित करने के लिए भी कुछ न कुछ किया ही जाना चाहिए। इस छोटे किन्तु महत्वपूर्ण कार्य में उपरोक्त कथन-श्रवण की पद्धति का शुभारंभ किसी न किसी रूप में आरम्भ किया जाना चाहिए।

इस प्रचलन का लाभ वक्तृत्व कला के अभ्यासी को भी कम नहीं मिलता। नित्य कथा कहने का अभ्यास चल पड़े तो थोड़े लोगों के बीच किया गया वह प्रयोग परीक्षण आगे चलकर विशाल जन समुदाय के सम्मुख सारगर्भित और प्रभावशाली वक्तृता दे सकने में भी आधारशिला का काम दे सकता है। इसमें जनता को इकट्ठा करने का सिरदर्द भी नहीं उठाना पड़ा, नित्य नया जुगाड़ बिठाने की कठिनाई भी नहीं पड़ी, परिवार की संस्कृति शिक्षा भी चली, साथ ही अपने लिए भाषण कला का नियमित रूप से अभ्यास करने का भी सुयोग बन पड़ा, घर के अन्य लोग इस कला के अभ्यासी बनना चाहें तो कथा कहने का कार्य बारी-बारी से भी इच्छुक मिल जुलकर करते रह सकते हैं।

परिवार से बाहर कदम बढ़ाना हो तो प्रज्ञा अभियान के अन्तर्गत जन्मदिवसोत्सव मनाने की पद्धति को अग्रगामी बनाया जा सकता है। बच्चों के नामकरण, अन्नप्राशन, मुंडन, विद्यारम्भ आदि संस्कार भी ऐसे पारिवारिक आयोजनों की पूर्ति करते हैं जिससे धार्मिक वातावरण बनाने और परिवार निर्माण के लिए आवश्यक परम्पराएं आरम्भ करने का उत्साह उभरता है। उन कृत्यों के लिए किसी भी मित्र परिचित को तनिक-सी चर्चा करने, स्वरूप एवं लाभ बताने भर से सहमत किया जा सकता है। इनके खर्च कुछ नहीं, दौड़-धूप और झंझट भी नहीं, हर कोई इन आयोजनों को अपने घरों में कराने, तीज-त्यौहारों जैसा उत्साह उत्पन्न करने के लिए सहमत हो सकता है। पूर्ण अभ्यास हो नहीं, चर्चा कोई करे नहीं, सहयोग कोई दे नहीं तो नितान्त सरल और अतीव उपयोगी प्रक्रिया भी कठिन प्रतीत होगी और उसे कार्यान्वित करने में अनख, आलस के कारण भारी झंझट दिखाई देगा पर यदि कोई साथी सहायक मिल जाय और झंझट अपने सिर पर उठाकर और उमंग भरा आयोजन घर में जमा दे तो उसके लिए किसी को भी सहमत तत्पर किया जा सकता है। जन्मदिवसोत्सवों को परिवार निर्माण का आधार माना गया है और प्रज्ञा अभियान की पंचसूत्री योजना में उस प्रचलन पर बहुत जोर दिया गया है। उस प्रयास को अपने सम्पर्क क्षेत्र में प्रचलित करने में भाषण कला के अभ्यासियों को विशेष रूप से प्रयास करने चाहिए। इस आधार पर उन्हें आयोजन-सम्मेलन खड़ा करने और वक्ता का प्रवचन मंच हथियाने का सहज ही अवसर मिलता रहेगा, आये दिन नये व्यक्तियों से वास्ता पड़ने और उनके सामने मुंह खोलने, प्रवचन करने का प्रयास करने का अक्सर मिलना एक सुयोग ही समझा जाएगा। इस प्रयास से वक्तृत्व कला का अभ्यास और लोकमंगल का परमार्थ प्रयोजन दोनों ही साथ-साथ सधते हैं। थोड़ी दौड़-धूप भर की बात है। सम्पर्क साधने, चर्चा करने और झंझट उठाने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने की बात कह देने भर से आये दिन एक नया स्टेज प्रवचन के लिए मिलता रह सकता है।

जन्मदिवसोत्सव से व्यक्ति निर्माण का मार्गदर्शन करने वाले अनेक कथा प्रसंगों को प्रज्ञा पुराण में से छांटा जा सकता है। इसी प्रकार पर्व संस्कार मनाने के आयोजनों में उस निर्धारण के साथ जुड़े हुए उद्देश्यों को प्रज्ञा पुराण की अमुक कथाओं द्वारा उपस्थित लोगों को भली प्रकार हृदयंगम कराया जा सकता है। इन आयोजनों के अवसर पर प्रवचन की परंपरा है, जिन्हें मात्र विषय से सम्बन्धित दार्शनिक जानकारियां भर हैं वे हर आयोजन में उसी प्रतिपादन को दुहराते रहते हैं। कोई नई बात न कह पाने पर, पुनरावृत्ति करते रहने पर संकोच का अनुभव भी करते हैं। यह कठिनाई उन्हें नहीं उठानी पड़ती जो प्रज्ञापुराण में से समग्र प्रगति से सम्बन्धित कथाएं चुन कर, एक स्थान पर एक दूसरे स्थान पर दूसरी कथाएं कहने और निर्धारित विषय की पुष्टि करते रहने में सफल सकते हैं।

किसी भी स्टेज पर, किसी भी विषय या प्रसंग पर बोलने के लिए कहा जाय तो अन्य वक्ता तैयारी न होने की कठिनाई देखकर आनाकानी या मना भी कर सकते हैं, पर, प्रज्ञा पुराण के अभ्यासियों को ऐसी कठिनाई का कहीं भी, कभी सामना न करना पड़ेगा क्योंकि वे इस ग्रन्थ में से सामयिक आवश्यकता की पूर्ति कर सकने वाली कथाएं ढूंढ़ सकते हैं और उनके साथ नमक मिर्च मिलाकर एक अच्छा भाषण तत्काल गढ़ सकते हैं। इतनी सरल और सफल प्रक्रिया भाषण कला के अभ्यास में दूसरी हो नहीं सकती।
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