भाषण और संभाषण की दिव्य क्षमता

व्यक्तित्व सम्पन्न वक्ता का प्रभावी प्रवचन

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युग सन्धि के प्रभात पर्व में विचार क्रान्ति की लाल मशाल ऊषा काल की लालिमा लेकर प्रकटी है। इस अवसर पर जन जागरण के आलोक वितरण की प्रमुखता रहेगी। लोक मानस के परिष्कार का लक्ष्य लेकर बहुमुखी रचनात्मक प्रवृत्तियां अग्रगामी बनेंगी। उनका मूलभूत आधार होगा, दूरदर्शी विवेकशीलता का अवलम्बन। मूढ़ मान्यताओं, कुरीतियों और अवांछनीयताओं का उन्मूलन आवश्यक है। साथ ही सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए भी नये सिरे से प्राणवान प्रयासों को गतिशील होना है। यही है युग अवतरण की वह दुहरी प्रक्रिया जिसमें भगवान के अधर्म उन्मूलन और धर्म संस्थापन के आश्वासन को चरितार्थ होने का अवसर मिलेगा। परिवर्तन का ठीक यही समय है। इस अवसर पर हर विचारशील के अन्तराल में अनौचित्य को निरस्त करने और औचित्य को अपनाने की प्रेरणा उभरेगी। यही है युगान्तरीय चेतना का वह स्वरूप जिसे ‘विचार क्रान्ति’ या ‘प्रज्ञा अभियान’ के नाम से समझा-समझाया जाता रहा है।

शिक्षितों को पठन लाभ मिल सके, यह प्रयत्न भी प्रज्ञा अभियान के अन्तर्गत चलेगा ही, चल भी रहा है किन्तु युगान्तरीय चेतना को व्यापक बनाने के लिए वाणी की शक्ति का उपयोग किये बिना काम चलने वाला है ही नहीं। जन सम्पर्क में वार्तालाप ही आधार है। इसके लिए संभाषण की प्रवीणता आवश्यक है। अभिव्यक्तियों का आदान प्रदान इसी माध्यम से संभव है। चिट्ठी पत्री तो मात्र संकेत ही कर सकती हैं। विस्तृत विचार विनिमय का वार्तालाप ही एक मात्र अवलम्बन है। इस आवश्यकता की पूर्ति और किसी उपाय से सम्भव नहीं।

जन समुदाय के सम्मुख विचारों का प्रकटीकरण भाषण कहलाता है। सीमित लोगों के साथ वार्तालाप को संभाषण कहते हैं। यह परिस्थिति भेद में अपनाई जाने वाली दो शैलियां भर हैं। दोनों में ही विचारों का आदान-प्रदान होता है। जीभ बोलती है, कान सुनते हैं। ईश्वर ने जन्मजात रूप से यही माध्यम विचारों के आदान प्रदान के लिए बनाये हैं। लेखनी तो मनुष्य का अपना आविष्कार है। मस्तिष्क पर सीधा असर वाणी का ही होता है क्योंकि उसके साथ वक्ता की प्राण शक्ति भी संबद्ध होती है। जब कि लेखनी से लिखे गये पत्रों को यथावत् पढ़ लेने पर भी उसके कल्पना चित्र वैसे नहीं बनते, जैसा कि लिखने वाला चाहता था। वाणी के साथ वक्ता की मुखाकृति के अनेक अवयव भावों को स्पष्ट करते हैं। आंख, दांत, होंठ, कपोल, भवें सभी बोलते हैं और वाणी जो प्रकट करना चाहती है, उसे ये अवयव मिल-जुलकर प्रकट कर देते हैं। वाणी की अपूर्णता भाव मुद्रा से पूर्ण हो जाती हैं। अतएव उसकी शक्ति लेखनी की तुलना में कहीं अधिक मानी गयी है।

जन मानस को प्रशिक्षित, उत्तेजित, परिवर्तित, परिष्कृत करने में वाणी से बढ़कर और किसी का योगदान नहीं। विचारों का परिवहन यही करती है। प्रज्ञायुग अवतरण में वाणी की भागीरथी भूमिका होगी, यह कहने में तनिक भी अत्युक्ति नहीं। यों सामान्य लोक व्यवहार में भी पुरुषार्थ की भांति ही वाणी का सफल प्रवीण चमत्कार उत्पन्न करते देखा गया है। कई बार तो पराक्रम से भी अधिक सुसंस्कृत-सुनियोजित वार्ता को पाया गया है। पराक्रम वस्तुओं की उलट-पलट करता है और घटनाएं विनिर्मित करता है। किन्तु मनुष्य के भाव संस्थान में हलचल उत्पन्न करना, दिशा देना और कुछ से कुछ बना देना वाणी के लिए ही सम्भव है। संसार के इतिहास में भारी उथल पुथल जिन कारणों से सम्पन्न हुयी उनमें वाणी की शक्ति और प्रतिक्रिया को मूर्धन्य कहा जा सकता है।

सामान्य जीवन में सफल और असफल रहने वाले व्यक्ति का अन्तर तलाश करने पर उनकी योग्यता, श्रमशीलता, सूझबूझ, शालीनता का स्तर भिन्न रहने की तरह ही एक बड़ा कारण यह भी होता है कि विचार व्यक्त न कर पाने वाले व्यक्ति संकोच, असमंजस में उलझे रहते हैं। जो कहना है वह कह नहीं पाते फलतः उससे अपनी स्थिति प्रकट न कर पाने से वह सहयोग उपलब्ध नहीं कर पाते जो करना चाहिए था। इसके विपरीत वाचाल और मुखरित लोग कई बार तो बात को इतनी रसीली, नशीली, भड़कीली बनाकर कहते हैं कि सामने वाले को उस शिकंजे में जकड़ते देर नहीं लगती जिसमें कि वह सामान्यत या फस नहीं पाता। ठग, चापलूस, खुशामदखोर अपनी वाक्-चातुरी के सहारे ही वारे न्यारे करते रहते हैं। जब कि मितभाषी, संकोची, आत्मीयजनों के बीच भी सद्-भावना प्रकट करने में असफल रहते हैं। भ्रान्तियां पनपने का अवसर देते हैं और आशंका अवहेलना के कुचक्र में फंस जाते हैं। सफल लोगों में से अधिकांश को वाक्पटु देखा जाता है।

यहां चर्चा युग संधि की ऐतिहासिक बेला के प्रमुख कार्य ‘लोक मानस के परिष्कार’ की हो रही है। अवांछनीयताओं के प्रचलन को उलटने का नाम ही विचार क्रान्ति है। सत्प्रवृत्तियों के बीजारोपण और अभिवर्धन को ही प्रज्ञा अभियान कहा गया है। यह एक ही प्रयोजन के दो परस्पर पूरक पहलू हैं। उन्हें गतिशील बनाने के लिए जिस ऊर्जा की आवश्यकता है वह उत्पन्न तो प्राणवान व्यक्तियों से ही होगी पर उसे हस्तांतरित करने में मुख्य भूमिका वाणी की ही होगी। जिन साधनों से अपने समय का ‘धर्म-चक्र प्रवर्त्तन’ होना है, उसमें वाणी की शक्ति की प्रमुखता रहेगी। जनसमूह के सामने युगान्तरीय चेतना प्रकट करने और व्यक्तिगत परामर्श से दिशा परिवर्तन का दबाव डालने में वाणी का उपयोग किये बिना काम चलेगा ही नहीं। परिष्कृत वाणी का इन दिनों युग-शक्ति के रूप में प्रयुक्त किया जाना है। इसलिए उसे प्रखर बनाने की आवश्यकता से इन्कार नहीं किया जा सकता।

नव सृजन के मोर्चे पर जूझने वाले युग शिल्पियों को अपना यह शस्त्र पैना रखना चाहिए और उसके कारगर प्रयोग का अभ्यास मनोयोग पूर्वक करना चाहिए। यह विचार संघर्ष का युग है। इन दिनों दैत्य और देव की लड़ाई जिस धर्म क्षेत्र-कुरुक्षेत्र में लड़ी जा रही है उसे विचार भूमि ही कह सकते हैं। इसी अखाड़े में सत, असत का मल्लयुद्ध होना है। उसमें विजयी बनने के लिए जहां तथ्यों का तूणीर भरा रहना चाहिए, वहां अभिव्यक्ति को मुखर कर सकने में समर्थ गाण्डीव की प्रत्यंचा भी कसी रहनी चाहिए। हमें विचारशील, प्रज्ञावान भी होना चाहिए। साथ ही यह नहीं भूलना चाहिए कि इसे सही स्थान पर सही चोट पहुंचाने में समर्थ वाणी में प्रखरता रहनी चाहिए। सामयिक उत्तरदायित्वों के परिवहन में प्रभावशाली वाक् शक्ति का अर्जन प्रत्येक युग शिल्पी के लिए इन दिनों अनिवार्य रूप से आवश्यक है।

इतना समझ लेने के उपरान्त इस संदर्भ में इतना और जानना चाहिए कि वाचालता और वाक् सरस्वती दो भिन्न वस्तुयें हैं। वाचालता एक कला है और अन्य कुशलताओं की तरह थोड़े से अभ्यास से सीखी सिखाई जा सकती है। साइकिल चलाना अजनबी के लिए आश्चर्यजनक है। एक इन्च मोटे अस्थिर पहिये इतना वजन लेकर बिना डगमगाये किस प्रकार तेजी से दौड़ते हैं उसे देखकर कोई अनजान चकित हुये बिना नहीं रहेगा। किन्तु अभ्यस्तों को विदित रहता है कि यह कितना सरल है। ठीक इसी प्रकार जीभ को चलाना भी सरल है। इसे सीखने में साइकिल चलाना सीखने से भी कम श्रम लगता है। संकोच के जाल से छूटते वह मछली की तरह तैरती और मेंढकी की तरह फुदकती और चिड़ियों की तरह चहकती देखी जा सकती है। बकवादी लोगों के मुंह पर लगाम लगाना कठिन पड़ता है वे अकारण कुछ न कुछ बक-झक करते ही रहते हैं। कई बार तो उनसे पीछा छुड़ाना कठिन हो जाता है। सुनने वाला ऊबने लगता है पर कहने वाला थकता ही नहीं। इसमें न किसी योजना की आवश्यकता है, न निर्धारण की, न अवसर की, न कारण की। वह चली तो फिर बरसाती नदी की तरह बेतहाशा दौड़ती ही चली जाती है। यहां न तो ऐसी वाचालता की प्रशंसा की जा रही है, न उसे कला ठहराया जा रहा है, न उसके प्रशिक्षण अभ्यास पर जोर दिया जा रहा है। ऐसी उच्छृंखलता की तो भर्त्सना ही की जानी चाहिए जो वक्ता की शक्ति का अपव्यय करती है और श्रोता का समय एवं दिमाग खराब करके रख देती है।

युग अवतरण की बेला में उस वाक् शक्ति का युग-शक्ति के रूप में प्रयोग होना है जो हिमालय जैसे व्यक्तित्व के मुख गोमुख द्वारा भगवती भागीरथी की तरह प्रकट होती है और सम्पर्क क्षेत्रों को पवित्रता एवं प्रखरता से भरती चली जाती है। ऐसी वाणी मात्र चमड़े की जीभ हिलने भर से प्रादुर्भूत नहीं होती, वरन् उसका मूल उद्गम किसी गहन अन्तराल से निस्सृत होता है। गंगा प्रकट तो गोमुख-गंगोत्री से होती है पर उसका मूल स्रोत उस कैलाश-मान सरोवर में है जिसे सुमेरु या शिव निवास करते हैं। शंकर की जटाओं से भागीरथी निस्सृत होती है, उसका तात्पर्य गरिमामयी वाणी के संदर्भ में मनुष्य के अन्तःकरण को कहा जा सकता है, जिसे व्यवहार की भाषा में व्यक्तित्व का मर्म संस्थान कहते हैं। इस क्षेत्र का जैसा स्तर होगा, वाणी का प्रभाव भी तदनुकूल ही दृष्टिगोचर होगा। भले ही वह शब्द गुंथन की दृष्टि उतनी परिष्कृति न हो। इस संदर्भ में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य वाणी विज्ञान में रुचि रखने वाले प्रत्येक विज्ञजन को जानने चाहिए।

वाणी के चार स्तर हैं—(1) वैखरी (2) मध्यमा (3) परा (4) पश्यन्ति। वैखरी जिह्वा से निकलती है और आमतौर से जानकारी देने के काम आती है। अध्यापक इसी के द्वारा छात्रों को विभिन्न विषय पढ़ाते हैं। दिनभर हाट बाजारों में इसी का प्रयोग होता है। गप्पबाजी, चुगलबाजी से लेकर तरह-तरह के भले बुरे प्रसंगों में सकारण-अकारण इसी कप प्रयोग होता रहता है। यह जीभ से निकलती है और मन को हल्का करने अथवा स्वार्थों का तालमेल बिठाने में काम आती है।

दूसरी मध्यमा वाणी है जो चेहरे के प्रमुख अवयवों से फूटती है। आंखें, भौंहें, नथुने, कपोल, होंठ, गर्दन की हलचलों से भावनाओं का प्रकटीकरण होता है। वाणी के साथ इनकी भी गतिविधियां जुड़ती हैं और जो कहा जा रहा है उसमें वक्ता का अन्तराल किस सीमा तक किस स्तर पर संबद्ध है, इसका परिचय देती है। हो सकता है शब्द कुछ कह रहे हों और अन्तर में उसकी भिन्न प्रकार की स्थिति हो, यह मध्यमा से जाना जा सकता है। इसे एक प्रकार से अन्तराल का दर्पण कह सकते हैं। यह बिना शब्दोच्चारण के भी हाव-भावों द्वारा व्यक्तित्व का स्तर एवं मनःस्थिति का प्रकटीकरण करती रहती है। यदि प्रकृति किसी स्वभाव विशेष में परिपक्व हो गयी है तो चेहरा उसी ढांचे में ढल जाता है और देखते ही पता चल जाता है कि व्यक्ति का स्वभाव एवं स्तर क्या होना चाहिए। अनुभवी लोग आकृति देखकर मनुष्य में बहुत कुछ पढ़ लेते हैं और फिर तदनुरूप ही उसके साथ तालमेल बिठाते हैं। तीर्थ पुरोहित, शौकीनी का सामान बेचने वाले सेल्समैन इस सम्बन्ध में निपुण होते हैं। बे काम के और बेकाम के ग्राहक को शक्ल देखते ही पहिचान लेते हैं और तदनुरूप ही उनसे व्यवहार करते हैं।

तीसरी परावाणी वह है जो विचार धारा से सम्बन्धित है। जिन विचारों का जीवन पर प्रभाव होता है, जो विश्वास स्तर तक पहुंच चुके होते हैं, जिनके प्रति रुझान और पक्षपात होता है-वे स्वभाव के अंग बन जाते हैं और कार्य रूप में परिणित होते रहते हैं। परावाणी मस्तिष्कीय विचार कम्पनों के रूप में होती है। यह कम्पन विद्युत प्रवाह की तरह आकाश में भी भ्रमण करने के लिए निकल पड़ते हैं और सबसे प्रथम सम्पर्क क्षेत्र को प्रभावित करते हैं। इसे मस्तिष्क बोलते और मस्तिष्क ही सुनते हैं। चौथी पश्यन्ती वाणी आत्मा से निकलती है और दूसरी आत्मा के साथ टकराती है। बल के अनुरूप हारती या जीतती है यह मनुष्य के अन्तःक्षेत्र में अवस्थित श्रद्धा, आस्था, आकांक्षा से सम्बन्धित है और समूचे व्यक्तित्व को अपने परिवार में लपेटे रहती है इसमें प्राण भरा रहता है। समीपवर्ती लोगों को अपने अनुरूप बनाने का आग्रह करती है। यह दुर्बल होने पर निष्फल भी रह सकती है पर यदि समर्थ हुई तो दबंगों को भी अपने चंगुल में जकड़ लेती है। ऋषि आश्रमों में जाकर सिंह भी अहिंसक हो जाते थे और गाय के साथ एक घाट पर पानी पीते थे। यह पश्यन्ती वाणी का चमत्कार है। कुसंग और सत्संग से पड़ने वाले प्रभाव को इसी क्षेत्र की परिणति कहना चाहिए। वक्ताओं में से जिन्हें जानकारी भर देनी है उनके लिए स्कूली ढंग से अपने मन्तव्य का उपस्थित लोगों पर वाणी के माध्यम से प्रकट कर देना पर्याप्त है। इसके लिए वाचालता में कलात्मक पुट रहे तो उसकी सरसता बढ़ेगी। लोग पसन्द करेंगे और सहमत न होते हुए भी प्रशंसा तो करेंगे ही। इतने मात्र से लोकमानस का परिष्कार नहीं हो सकता। सुधारक को बिगड़े हुए से अच्छा होना चाहिए शिक्षा चिकित्सा कला कौशल आदि में ऐसा ही होता है। वरिष्ठ सिखाते और कनिष्ठ सीखते हैं। युग-सृजन की समूची प्रक्रिया दृष्टिकोण एवं व्यवहार को सुधारने की है। अस्तु शिक्षक का व्यक्तित्व इन दोनों ही क्षेत्रों में उनसे अधिक ऊंचा होना चाहिए, जिनसे सुधारने बदलने एवं सहमत होने की आशा अपेक्षा की गई है। अस्तु आवश्यक है कि भावनात्मक परिष्कार की शिक्षा देने वाला पुरोहित श्रवण कर्ता यजमानों की तुलना में वरिष्ठ हो। तभी उसकी मध्यमा परा और पश्यन्ती वाणियां मुखर होंगी और उनके दबाव से दृष्टिकोण एवं व्यवहार में आदर्शवादी परिवर्तन संभव हो सकेगा।

प्रवचन के समय वक्ता को ऊंचे मंच पर बिठाया जाता है। वह समान ऊंचाई पर श्रवणकर्ताओं की पंक्ति में बैठे तो उसकी वाणी, भावभंगिमा ठीक प्रकार दृष्टिगोचर न होंगी और चेहरा देखने की इच्छा पूरी न होने पर दर्शक निराश ही रहेंगे। व्यास पीठ का धर्म मंच श्रद्धा सम्मान भरा पद एवं स्तर है। उस पर जो बैठें वे कथनोपकथन में ही प्रवीण नहीं होने चाहिए, वरन् जनसमुदाय की तुलना में इनकी श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा कहीं अधिक ऊंची होनी चाहिए। उनके गुण कर्म स्वभाव में सज्जनोचित शालीनता की कहीं अधिक मात्रा समन्वित रहनी चाहिए। हर क्षेत्र में वरिष्ठों की कुछ पहचाने हैं। अध्यात्म क्षेत्र में विद्वानों सम्पन्नों, कलाकारों का नहीं, चिन्तन और चरित्र की दृष्टि से कहीं अधिक ऊंचे आगे होना चाहिए। जो इस दृष्टि से जितने अधिक मूर्धन्य होंगे उनका प्रमाणिक परिष्कृत व्यक्तित्व अपनी सुसंस्कारिता की छाप उसी अनुपात से श्रवण कर्ताओं पर छोड़ेगा। मन में कुछ वचन में कुछ न हों। कथनी आदर्श वादी और करनी प्रतिगामी हो तो उस विडम्बना से कौतुहल भर बनेगा। सुधार परिवर्तन कर सकने वाला प्रभाव उभरेगा ही नहीं। ऐसी दशा में प्रवचन कला कौशल मात्र बनकर रह जाएंगे।

मनोरंजन की बात दूसरी है और जनता को प्रभावित, परिवर्तन कर सकने की क्षमता दूसरी। अपनी आवश्यकता लोगों की भीड़ जमा करके प्रदर्शन या ठाट-बाट खड़ा करने की नहीं है। उसमें जन-जन को ‘हम बदलेंगे-युग बदलेगा’ के उद्घोष को जीवनचर्या में उतार सकने वाले वक्ता ही अपनी कथनी और करनी की एकात्मता के सहारे इतने समर्थ हो सकेंगे कि श्रवणकर्ताओं को युग प्रतिपादनों को अपनाने के लिए चुनौती मिलने पर ध्रुव निश्चय के धनी-एवं व्रत-शीलता के निर्वाह में संकल्पवान साहसी सिद्ध हो सके। धर्म प्रवचनों के लिए बनाई गई बेदी को विशुद्ध दूर से व्यास पीठ माना जाना चाहिए और वहां बैठने वाले को न केवल भाषण कुशल होना चाहिए वरन् गुण-कर्म स्वभाव की दृष्टि से भी सामान्य लोगों की तुलना में कहीं अधिक समुन्नत, सुसंस्कृति होना चाहिए। जो इस दिशा में गतिशील रहेंगे, उनकी मध्यमा, परा और पश्यन्ती वाणी भी प्रखर होगी। जो उसे सुनेंगे प्रभावित होकर रहेंगे। इस प्रभाव की परिणति आदर्शवादी गतिविधियां अपनाने में दृष्टिगोचर होगी। यही उद्देश्य प्रज्ञा आयोजनों विचार गोष्ठियों और विचार विनिमय के निमित्त आयोजन कर्त्ताओं का होता है। धर्म क्षेत्र के प्रवक्ताओं को अपना व्यक्तित्व आदर्शवादी ढांचे में ढालने के उपरान्त ही अपनी प्रचार क्षमता को प्रभावी सिद्ध होने की आशा करनी चाहिए।
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