भाषण और संभाषण की दिव्य क्षमता

वाणी में सामर्थ्य का उद्भव

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प्रभावोत्पादक वाणी के आधार हैं—एक शक्ति दूसरी कला। शक्ति वह है जो वक्ता की आस्था, निष्ठा, क्रिया एवं तन्मयता से उत्पन्न होती है। जीभ से मात्र ध्वनि ही नहीं निकलती, वरन् उसके साथ वह सब भी घुला होता है जो उसके दृष्टिकोण और व्यक्तित्व का अंग है। लहसुन खाने या शराब पीने के उपरान्त ठीक वैसी ही गन्ध मुंह से निकलती है, मसूड़ों की सड़न अथवा अपच होने पर उसकी दुर्गन्ध मुख से आती है। ठीक उसी प्रकार अन्तःकरण में यदि दुर्भावना भरी होगी तो शब्दों में उसकी झलक न मिलने पर भी सूक्ष्म संवेदनाएं ऐसी जुड़ी होंगी जो सुनने वालों के मन में अवज्ञा के भाव उत्पन्न करेंगी। शब्दों की दृष्टि से सहमत होते हुए भी उसे कोई हृदयंगम न करेगा। वाणी की सामर्थ्य व्यक्ति के चरित्र से पूर्णतया सम्बन्धित है। शब्दों को छल पूर्वक बोला जा सकता है पर चरित्र को नहीं छिपाया जा सकता। उसे छिपाना बुद्धि बल के लिए भी सम्भव नहीं। शब्द छल किया जा सकता है—जो अपने को स्वीकार नहीं उसके लिए दूसरों को उपदेश दिया जा सकता है। चोर भी व्यास पीठ पर बैठ कर ईमानदारी का उपदेश दे सकता है। शब्द-प्रवाह को विस्तृत करने में कोई कठिनाई नहीं। जीभ से कुछ भी कहा जा सकता है। तर्कों के आधार पर लोगों को सहमत भी किया जा सकता है। पर उन्हें प्रभावित करे अभीष्ट मार्ग पर चलाना उसी के लिए सम्भव होगा जो वाणी के साथ अपनी गहन आस्था और समान क्रियाशीलता को भी जोड़े हुए है। वक्ता वाणी से प्रवचन करते हैं। उनके शब्दों में जितने तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण होते हैं; उस अनुपात से सामान्य लोग पसन्द भी करते हैं और बौद्धिक दृष्टि से सहमत भी होते हैं। किन्तु इससे उन्हें उस स्तर तक प्रभावित नहीं किया जा सकता जिससे वे प्रतिपादन को हृदय से स्वीकार करलें और निर्दिष्ट मार्ग पर चलने तक को तैयार हो जायं। वाणी का कला-प्रवाह कानों को प्यारा लगता है और मस्तिष्क को प्रभावित करता है, पर इससे आगे उसकी पहुंच नहीं। अन्तःकरण को छूने की सामर्थ्य उसी वाणी में होती है जिसकी चरित्र-निष्ठा ने उसे समुचित रूप से शक्तिशाली बना दिया है।

वाणी की कला सीखी जा सकती है। अभ्यास से उसे विकसित किया जा सकता है। प्रयत्न और प्रशिक्षण से वक्तृत्व कला में कोई भी प्रवीण हो सकता है। अनेक क्षेत्रों में कलावन्त मौजूद हैं उनने प्रयत्न पूर्वक अभ्यास किया है और प्रवीणता प्राप्त की है। शब्दोच्चार के क्षेत्र में भी ऐसी ही सफलता पाई जा सकती है। मनोयोग पूर्वक श्रम करने से अविकसित या अल्प विकसित भी क्रमशः अग्रगामी होते गये हैं और अन्ततः अभीष्ट प्रयोजन में पारंगत बने हैं। प्रत्येक शिल्प के शिक्षण की पुस्तकें और पाठशालाएं मौजूद हैं। भाषण-कला में सफलता प्राप्त करने के लिए भी ऐसे साधन मौजूद हैं। इस पुस्तक का लेखन भी उस क्षेत्र की कलाकारिता सिखाने के लिए ही हुआ है।

शब्द-कला में सफल बनने के थोड़े से तथ्य ये हैं—निर्भीकता, झिझक और संकोच का परित्याग, अध्ययन, व्यक्तित्व का परिचय, प्रदर्शन, प्रतिपादन का ढांचा तैयार करना पूर्वाभ्यास को महत्व देना, उपस्थित समुदाय के स्तर को समझ कर बोलना, वाणी को असंस्कृत न होने देना, सभा के शिष्टाचारों का पालन, तथ्य, तर्क, प्रमाण, उदाहरणों का समुचित समावेश, आकर्षक प्रसंगों का समावेश, भावस्पर्शी संवेदनाएं जोड़ते चलना। इन्हीं मोटी बातों को इस पुस्तक में बताया गया है। इन्हीं बातों की चर्चा घुमा−फिरा कर अन्य लेखक तथा अध्यापक करते हैं। ‘‘लैक्चर’’ भी अब एक पेशा हो गया है। अध्यापकों को रोटी इसी आधार पर मिलती है। वकीलों की गुजर भी इसी के सहारे होती है। दलाल—नेता—अभिनेता भी जीभ की कमाई खाते हैं। ऐसे ही और भी अनेक व्यवसाय हैं। ठगों को धन्धा भी पूरी तरह वाक्चातुरी पर निर्भर है। यह कोई बहुत कठिन काम नहीं है। सरकस वाले शेर, हाथी, गेंडा, रीछ, बन्दरों को सधा सिखा लेते हैं, फिर कोई कारण नहीं कि जीभ को उच्चारण प्रवीणता के लिए सिखाया, सधाया न जा सके। जिसके मुंह में जीभ है, जो अपने घर में, दफ्तर में, दोस्तों से, दुकान-बाजार में बातचीत कर सकता है, उसके बारे में यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि धैर्य और साहस पूर्वक कुछ समय प्रयत्न और अभ्यास करते रहने पर वह जरूर वक्ता बन सकता है। गूंगे, बहरे, पागल या मुख-कण्ठ के रोगी असफल रहेंगे। ऐसे लोग भी असफल रहेंगे जो हिम्मत हार चुके अथवा अत्यधिक उतावले हैं। जिनका उत्साह पानी के बबूले की तरह उड़ता है और कुछ ही क्षण में समाप्त हो जाता है, ऐसे लोग कल्पनाएं—जल्पनाएं तो बहुत करते हैं, पर सफल किसी क्षेत्र में नहीं होते। उन्हीं के बारे में यह कहा जा सकता है कि वे वक्तृत्व कला में भी असफल रहेंगे। वस्तुतः इस दिशा में असफलता का एक ही प्रधान कारण है—हड़बड़ी, भीरुता, आत्महीनता, अस्त-व्यस्तता जैसी दुर्बलताओं से ग्रसित मनःस्थिति। इसे बदला जा सकता है। बदलाव रोज ही करना पड़ता है। क्रोध, आवेश, शोक, निराशा, आशंका आदि को अवांछनीय मनोदशाएं अक्सर आ दबोचती हैं और हैरान कर देती हैं। मनुष्य अपने आप ही इन अवांछनीयताओं की हानि समझ कर उनसे लड़ता है और हटाकर स्वाभाविक सन्तुलन प्राप्त कर लेता है। भाषण में असफलता प्रस्तुत करने वाली हड़बड़ी को भी जीता जा सकता है, इनमें कोई विशेष कठिनाई नहीं है। आत्म-सुधार के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति इस कठिनाई पर आसानी से विजय प्राप्त कर सकते हैं। आरम्भ में जिन कार्यों के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं थी उन्हें लोग प्रयत्न पूर्वक सीख लेते हैं और फिर उनमें निष्णात हो जाते हैं। भाषण जिन्होंने पहले कभी नहीं दिया है, उनके लिए वह नई बात, अत्यन्त दुष्कर प्रतीत हो सकती हे। पर अभ्यास करने पर पता चलता है कि वस्तुतः इसमें इतनी कठिनाई थी नहीं जितनी कि आरम्भ में प्रतीत होती थी।

भाषण-कला न बहुत सरल है और न कठिन। उसे सरल भी कह सकते हैं और कठिन भी। सरल उनके लिए है जो धैर्य और विश्वास के साथ उसके लिए गम्भीर प्रयत्न करने को तत्पर रहते हैं। कठिन उनके लिए जो हथेली पर सरसों जमाना चाहते हैं और प्रयास को सफलता के लिए अनवरत तत्परता का जो मूल्य चुकाना पड़ता है, उसे चुकाने के लिए तैयार नहीं होते। जादुई सफलता पाने के लिए लालायित बाल बुद्धि पग-पग पर उपहासास्पद बनती है। फिर भाषण-कला में भी उसे निराशा ही हाथ लगेगी। इन अर्ध विक्षिप्तों को छोड़कर शेष प्रत्येक उस आदमी के बार में जो गूंगा बहरा नहीं है यह कहा जा सकता है कि वे देर-सवेर कुशल वक्ता अवश्य बन जायगा। वक्तृत्व-कला उसे जरूर आ जायगी।

अधिक कठिनाई वाणी में समर्थता प्राप्त करने की है। उसके लिए कला कुशलता के नियमों का जानना एवं अभ्यास करना पर्याप्त नहीं। उसके लिए अपने समग्र व्यक्तित्व का परिमार्जन, परिशोधन करना पड़ता है। गुण कर्म स्वभाव को—चिन्तन एवं कर्तृत्व को परिष्कृत बनाना पड़ता है। जो कहना चाहते हैं—जो करना चाहते हैं उसे पहले अपने अभ्यास में लाना होगा। जब अपने विचारों से हम अपने को ही प्रभावित न कर सके और उस राह पर चलने का दबाव न डाल सके तो फिर यह कैसे आशा की जाय कि जिन पर हमारा स्वल्प अधिकार है वे कहना मानेंगे और उस राह पर चलेंगे जिस पर चलने के लिए उन्हें निर्देश दिया जा रहा है।

अपनी वस्तुस्थिति एक सीमा तक ही छिपा कर रखी जा सकती है। व्यक्तित्व में इतने अधिक छिद्र होते हैं कि उनमें होकर वस्तुस्थिति की झांकी—गन्ध दूसरों तक पहुंच ही जाती है। उस पर देर तक पर्दा नहीं डाला जा सकता। जिन वस्तुओं को छिपाया जा सकता है वे दूसरी हैं। उनमें व्यक्तित्व की गणना नहीं होती। हम जहां भी जायेंगे वहीं हमारा व्यक्तित्व वस्तुस्थिति का अनचाहे ही प्रदर्शन प्रकटीकरण करता रहेगा। उसे आवरणों में ढकने के सारे प्रयास निष्फल होते हैं। जो जैसा है वह लोगों की आंखों में आकर ही रहेगा। कृत्रिम निन्दा या स्तुति से भले को बुरा और बुरे को भला बताने के लिए कितने ही आडम्बर क्यों न रचे जायं वे देर तक काम न दे सकेंगे। यथार्थता हजार पर्दे फाड़ कर बाहर आ जाती है। पारे को खाकर पचाया नहीं जा सकता। वह शरीर से फूट कर बाहर निकलता ही है। ठीक इसी प्रकार चरित्र की अवांछनीयताएं कल नहीं तो परसों प्रकट हो कर ही रहती हैं और उसकी दुर्गन्ध हवा में सहज ही उड़ती चली जाती है।

वाणी में सामर्थ्य चरित्र से उत्पन्न होती है। चिन्तन और क्रिया का समन्वय ही चरित्र है। पूरब की सोचने वाले और पच्छिम को चलने वाले उपहासास्पद होते हैं। मंजिल तक वे पहुंचते हैं जिनके विचार और कार्यों की दिशा एक है। भले ही नहीं बुरे भी इस आधार पर सफल होते हैं। एक वैश्या अपने प्रभाव से सैकड़ों को दुराचारी बना देती है—एक शराबी अपने कई पक्के साथी बना लेते हैं। चोर, जुआरी, व्यसनी अपना सम्प्रदाय—परिवार बढ़ाते ही रहते हैं। इसका कारण यह है कि उनके विचार और कार्य एक हैं। जैसा सोचते हैं—वैसा करते भी हैं। जहां भी विचार और कर्म का समन्वय होगा वहां व्यक्तित्व बनेगा और वहीं प्रभावोत्पादक शक्ति बढ़ेगी। भले लोगों के सम्बन्ध में भी यही सिद्धान्त लागू होता है। यदि सद्भावनाएं और सत्प्रवृत्तियां किसी व्यक्ति में विद्यमान होंगी तो कोई कारण नहीं कि वह दूसरों को उसी दिशा में आकर्षित न कर सके। वाणी प्रकटीकरण का एक औजार मात्र है। वह शब्द बोल सकता है। सामर्थ्य उस मांस-पिण्ड में नहीं। वह तो समूचे व्यक्तित्व में सन्निहित रहती है और आवाज के साथ प्रकट भर होती है। यदि अपने प्रवचन को—प्रतिपादन को दूसरे से क्रियान्वित कराना हो तो उसके लिए यह नितान्त आवश्यक है कि वचन और कर्म में तादात्म्य स्थापित किया जाय। जैसा कहें वैसा करें भी।

शिल्प, साहित्य, व्यवसाय, कृषि, व्यायाम आदि की शिक्षा देने के लिए भी उस विषय की प्रवीणता पहले स्वयं प्राप्त करनी पड़ती है, तभी वे दूसरों को सिखाये जा सकते हैं। अनुभव हीन व्यक्ति पुस्तक पढ़कर इंजीनियर आदि का प्रशिक्षण करने लगे तो उसकी बात अटपटा जायेंगी। छात्रों को कुछ सिखा सकने की बात तो बनेगी ही नहीं उलटे अपने अनाड़ीपन के कारण तिरस्कार का पात्र बनना पड़ेगा। जहां तक जानकारियों का सम्बन्ध है एक मस्तिष्क से दूसरे तक पहुंचाई जा सकती है पर विचार परिवर्तन में विशेषतया आदर्शवादी प्रतिपादनों में तो यह नितान्त आवश्यक हो जाता है कि वक्ता अपनी वाणी के साथ-साथ चरित्र द्वारा भी प्रवचन कर सके।

प्राचीन काल में हर कोई प्रवचन करने का साहस नहीं करता था, विशेषतया नैतिक एवं आदर्शवादी प्रेरणाओं के सम्बन्ध में तो इसका पूरा ध्यान रखा जाता था। गणित, भूगोल, इतिहास आदि मात्र जानकारी देने वाले विषयों पर जानकार लोग आवश्यक बातें बता सकते हैं इनमें चरित्र की नहीं ज्ञान की आवश्यकता मात्र पर्याप्त मानी जाती है। पर जहां तक दूसरों के विचार और विश्वास बदलने का सम्बन्ध है—दिशा परिवर्तन के लिए कहना है, तो प्रथम यह सिद्ध करना होगा जो कहा जा रहा है उसे वक्ता ने उचित, आवश्यक व्यावहारिक एवं उपयोगी माना है कि नहीं? इस कसौटी पर परखे बिना कोई कदाचित् ही अपने अभ्यस्त ढर्रे को बदल कर नई राह पर चल सके। आदर्शवाद के सम्बन्ध में तो यह बात नितान्त आवश्यक है कि वक्ता इसका प्रयोग पहले अपने ऊपर करके यह सिद्ध करता हो कि उसने निर्दिष्ट विषय को अपने ऊपर प्रयोग करने के बाद ही दूसरों से अनुरोध करने का साहस किया है। जब स्कूली अध्यापक की नियुक्ति इस आधार पर होती है कि वे अभीष्ट शिक्षा दे सकने योग्य परीक्षा उत्तीर्ण कर चुके हैं या नहीं—तो कोई कारण नहीं कि धार्मिक, नैतिक एवं सामाजिक विषयों की शिक्षा देने वालों से उसी प्रकार की आशा न की जाय।

इन दिनों वाणी की कला तो बढ़ रही है पर उसकी सामर्थ्य घट रही है, यह बड़े दुःख का विषय है। दीपक जब स्वयं बुझा हुआ है तो दूसरे को कैसे जलावेगा—दूसरों को प्रकाश कैसे देगा? जिन्हें भाषण देना है—मार्ग दर्शक एवं लोकनायक बनना है, उनके लिए यह आवश्यक है कि प्रतिपाद्य विषय में स्वयं निष्णात बनें। वचन और कर्म में ऐसा समन्वय करें जिससे वाणी में प्रभावोत्पादक सामर्थ्य उत्पन्न हो और उससे बक-झक की विडम्बना रचे जाने के स्थान पर कुछ ठोस काम बन सकना सम्भव हो सके। प्राचीन काल के वक्ताओं की प्रभाव, शक्ति उनकी चरित्र निष्ठा पर ही अवलम्बित थी। भगवान बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, गुरुगोविन्द सिंह, समर्थ गुरु राम दास, विवेकानन्द, दयानन्द, गान्धी आदि महामानवों की वाणी ने असंख्य मनुष्यों का कायाकल्प किया और उन्हें गिरे हुए अथवा सामान्य स्तर से ऊंचा उठाकर कष्टसाध्य आदर्शवादी रीति-नीति अपनाने को तत्पर किया। इसमें उनकी शब्द-कला का नहीं चरित्र निष्ठा की सामर्थ्य काम कर रही थी।

नारदजी के कहने से वाल्मीकी, ध्रुव, प्रह्लाद आदि अनेकों ने अपने जीवन बदल डाले। वही शब्द दूसरे कहते तो कुछ प्रभाव न पड़ता। ऋषियों के मुख से धर्म प्रवचन सुनने को उनके स्थानों पर तीर्थ यात्रा करते हुए लोग पहुंचते थे। यों उनकी वाणी पुस्तक में भी पढ़ी जा सकती थी। राजा हरिशचन्द्र का नाटक देख कर बालक गान्धी प्रभावित हुआ और उसी राह पर चल कर महात्मा गान्धी बना। ऐसे न जाने कितने गान्धी राजा हरिश्चंद्र ने अपने बाद भी बनाते रहने का क्रम जारी रखा है। ऐसे महामानवों की शिक्षा उनके न रहने पर भी आकाश में गूंजती और जन मानस को प्रभावित करती रहती है।

ईश्वर उपासना में स्तोत्र, पाठ, मन्त्र जप आदि इसलिए निष्फल होते हैं कि उच्चारण करने वालों की जिह्वा जली हुई होती है, उससे वह ध्वनि नहीं निकलती जो ईश्वर के कानों तक पहुंच सके। प्राचीन काल में जो मन्त्र बड़े शक्तिशाली थे वे अब निष्फल सिद्ध होते हैं। कारण यह है कि सफल मन्त्रोच्चारण कर सकने में समर्थ वाणी ही समाप्त हो गई। जिह्वा का दुरुपयोग होने पर वह जल जाती है। वाणी मृतक हो जाती है, यदि उसे अवांछनीय रीति से प्रयुक्त किया जाता रहा है। असत्य बोलने, छल करने, मर्म भेदी कटु वचन बोलने, अभक्ष्य एवं अनीति उपार्जित खाने, अनीति का समर्थन करने, गिराने वाले परामर्श देने से जिह्वा जल जाती है, और वाणी मर जाती है। उसके द्वारा किये गये मन्त्रोच्चारण, पाठ, आदि निरर्थक होते हैं। ठीक इसी प्रकार मार्गदर्शन करने की क्षमता भी ऐसे लोगों में नहीं रह जाती। वाक् चातुरी से सुनने वालों को चमत्कृत तो किया जा सकता है, पर उसका कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ता, विदूषकों एवं अभिनेताओं जैसा वाणी विलास अमुक स्तर का मनोरंजन मात्र बन कर रह जाता है। वक्ता वस्तुतः विचारों का सृजेता और प्रस्तोता है, साथ ही भव्य कल्पनाओं का अवतरण एवं चित्रण कर सकने वाला स्वप्नदर्शी कवि और चित्रकार भी। विचारों का मूल्य इतना अधिक है कि उसकी तुलना संसार की अन्य किसी सम्पत्ति से नहीं की जा सकती। सम्पत्ति बढ़ने से मात्र भौतिक सुविधाएं ही बढ़ सकती हैं, पर यदि विचारों की पूंजी न हो तो उसका भी सदुपयोग नहीं हो सकता। दुरुपयोग की गई सम्पदा विपत्ति का कारण बनती है, यह सर्वविदित है।

विचारशील होना और सद्विचारों को अधिकाधिक लोगों तक फैलाना संसार का सबसे बड़ा पुण्य-कार्य है। इसी प्रयास में निरत रहने वाले साधु और ब्राह्मण को देव तुल्य पूजा जाता रहा है। हमें विचारों का महत्व समझना चाहिये। अपनी विचार सम्पदा बढ़ानी चाहिये और प्रयत्न करना चाहिये कि उस मधु-संचय का लाभ अनेकों को मिलता रहे। वाणी उसी की धन्य बनती है और सद्विचार विस्तार के लिए प्रवाहित होती है।

शेक्सपियर ने लिखा है—‘‘शब्द आसमान में उड़ जाते हैं, पर विचार धरती पर चिरकाल तक ठहरे रहते हैं। विचारों में सामर्थ्य भावों से आती है। जो भावयुक्त, विचार युक्त बोल सकता है उसी का शब्दोच्चारण सार्थक है।’’

नेपोलियन कहता था—‘‘संसार विचारों से ही शासित होता चला आया है और उस पर सदा विचारशील ही छाये रहेंगे।’’

वाणी एक ऐसा दर्पण है जो मनुष्य के विचारों का ही नहीं व्यक्तित्व का भी प्रकटीकरण करता है। विचारों को प्रकट करते समय ध्यान रखने योग्य है कि उनमें सज्जनोचित शिष्टता की कमी न पड़ने पाये।

सोफिया क्लीज ने लिखा है—‘‘वाणी आत्मा का दर्पण है। व्यक्ति का व्यक्तित्व उसकी जिह्वा द्वारा ही प्रकट होता है।’’

कन्फ्युशियस का कथन है—‘‘जब बोलने की जरूरत हो तो चुप न बैठो। और बिना जरूरत के बकझक मत करो। शब्दों को नाप-तोल कर बोलो। जिससे तुम्हारी सज्जनता टपके।’’

बेन डाइक की उक्ति है—‘‘अलादीन के खजाने से भी बढ़कर इस धरती पर असंख्य खजाने तिजोरियों में बन्द हैं, पर उनकी चाबी परिष्कृत शब्दोच्चारण में ही छिपी रखी है।’’ वक्ता मात्र प्रस्तुत समस्याओं का विवेचन, वर्गीकरण ही नहीं करता वरन् कल्पना भी देता है कि लोगों को क्या करना चाहिए और किस मार्ग से चलते हुए कहां पहुंचना चाहिए। यह कल्पनाचित्र जितने स्पष्ट और जितने परिष्कृत होते हैं उसी अनुपात से जनता का हित साधन होता है और कल्पनाशील व्यक्ति श्रेयाधिकारी बनता है। वक्ता को शब्दोच्चारण का कलाकार होकर ही नहीं रह जाना चाहिये, उसे विचारशील भी होना चाहिये साथ ही उसकी पैनी कल्पनाशक्ति इतनी परिष्कृत होनी चाहिए कि भविष्य की संभावनाओं के चित्र जन-मानस पर उतार सके। अवांछनीयताओं की विभीषिका और सही गतिविधियां अपना कर उज्ज्वल भविष्य की संभावना का यदि, सजीव चित्रण संभव हो सके तो यह कल्पना शक्ति वक्तृता के साथ घुल कर ‘सोने में सुगंध’ का काम करेगी।

आइन्स्टीन कहते थे—‘‘कल्पना ज्ञान से भी अधिक महत्व पूर्ण है।’’ पियर्स ने विद्वानों से भी अधिक गरिमा कल्पनाशीलों की बताई है। वे कहते हैं—‘‘संसार के समस्त वैज्ञानिक आविष्कारों का श्रेय उनके शोधकर्ताओं की संयत कल्पना शक्ति को ही दिया जायगा प्रयोगशालाएं तो परीक्षा-साधन हैं, वस्तुतः सृजन और अवतरण तो कल्पना की तीक्ष्णता ही करती है।’’ जूवर्ट कल्पना को आत्मा का दिव्यचक्षु कहा करते थे। स्वामी विवेकानन्द ने लिखा है—‘‘पवित्र कल्पना उतनी ही पवित्र है जितने पवित्र कर्म।’’ वक्ता को उच्च कल्पनाओं में ही डूबा रहना चाहिये। इसी आधार पर वह भविष्य को सुन्दर संभावनाओं का सही चित्र जन-मानस पर उतार कर प्रगति की दिशा में बह चलने की प्रेरणा कर सकेगा।

बुद्धिमान वक्ता उपस्थित जन समुदाय का बुद्धिबल विकसित करने में सहायता करते हैं। व्यायाम शाला के उस्ताद अपने शिष्य-शागिर्दों को स्वास्थ्य संवर्धन से लेकर कुश्ती पछाड़ने तक के कितने ही दांव-पेंच सिखाते हैं। वक्ता भी जन-मानस को प्रशिक्षित करता है कि लोगों को किस तरह सोचना चाहिये और किस रीति से, क्या करते हुए, किस स्तर की सफलता प्राप्त करनी चाहिये। चिकित्सा, शिल्पकला, साहित्य आदि के क्षेत्र में अध्यापक लोग अपने शिष्यों को अधिक जानकार और अधिक अनुभवी बनाने में संलग्न रहते हैं। वक्ता का कार्य भी लगभग उसी प्रकार का है। वह विचार-क्षेत्र में नेतृत्व करता है और जन-साधारण की चिन्तन शक्ति को—बुद्धिमत्ता को प्रस्तुत प्रयोजन के संदर्भ में आगे बढ़ाता है। यह एक बड़ा काम और बड़ा उत्तरदायित्व है।

लोकनायकों जैसा—महामनीषियों जैसा प्रभाव वाणी में उत्पन्न करता हो तो जीवन साधना में प्रवृत्त होकर शक्ति उपार्जित करनी चाहिए। उच्चस्तरीय विचारणाओं को ही मस्तिष्क में स्थान देना चाहिए। निकृष्ट कोटि के विचार जब भी मन में प्रवेश करें उन्हें तत्काल खदेड़ कर बाहर करने और उनके स्थान पर आदर्शवादी मान्यताओं को स्थापित करने का प्रयत्न निरन्तर करते रहना चाहिए। धीरे-धीरे कुविचारों की जड़ कटती जायेगी और उस स्थान पर सद्विचार प्रतिष्ठापित होते जायेंगे। यही बात क्रियाकलाप के सम्बन्ध में है। प्रातः उठने से लेकर रात्रि को सोते समय तक की दिनचर्या हर दिन बनानी चाहिए। उससे आलस्य-प्रमाद के लिए, अवांछनीय कार्यों के लिए कहीं गुंजाइश नहीं रहने देनी चाहिए। समय और श्रम का उपयोग इस प्रकार होना चाहिए कि उसमें वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों का पालन ही आदि से अन्त तक भरा हो। किसी दुष्कर्म की कहीं गुंजाइश न रहे। उसी निर्धारित दिनचर्या के अनुरूप सारे दिन काम होते रहें इस पर कड़ाई बरतनी चाहिए। गलती करने के लिए जब कदम बढ़ें तो उन्हें तत्काल रोका जाय। भूल बन ही पड़े तो उसके लिए प्रायश्चित किया जाय, अपने को दण्ड दिया जाय और आगे वैसा न होने देने के लिए अधिक सतर्क रहा जाय। विचारों में उत्कृष्टता और कार्यों में आदर्शवादिता की मात्रा दिन पर दिन बढ़ाते चला जाय, कुविचारों और कुसंस्कारों से जूझते रहा जाय। तो निश्चित रूप से वह जीवन साधना व्यक्तित्व का परिष्कार करती चलेगी। जिससे वाणी से ही नहीं बिना बोले भी सम्बद्ध व्यक्तियों को सन्मार्ग की दिशा में प्रेरित किया जा सकेगा।

शास्त्रकारों ने वक्ता को बहुत सम्मान दिया है, क्योंकि वह मात्र चरित्रनिष्ठ ही नहीं होता अपनी विभूतियों से दूसरों को भी लाभान्वित करता है। कर्मयुक्त वाणी का उपयोग करके वह अपने को भी धन्य बनाता है और दूसरों को भी प्रकाश देता है। ऐसे तेजस्वी वक्ता कम ही होते हैं, पर जो होते हैं वे स्वयं गौरवशाली बनते हैं और अपने सम्पर्क क्षेत्र को गौरवान्वित करते हैं—

‘‘वक्ता दशसहस्रेषु।’’ ‘‘दस हजार पीछे कोई वक्ता होता है।’’ ‘‘वक्तुर्गुण गौरवाद् वचनगौरवम्।’’ ‘‘वक्ता के गुण गौरव से ही उसके वचनों का गौरव होता है।’’ याहगेवददृशे तदृमुच्यते सं छायया दधिरे सिध्र यप्स्वा महीमस्मभ्य मुरुषा मुरुज्जयो बहत्सुवीर मनपच्युत सहः। —ऋग्वेद 5।44।6

‘जैसा आत्मा में हो वही मन में हो—जो मन में हो वही वाणी द्वारा व्यक्ति करे। स्वयं आचरण में लाये धर्मतत्व का उपदेश करे, जिससे सब लोगों में विद्याबल और धन का संचय हो—ऐसे सदुपदेश करने वाले वक्ताओं की संसार में कमी न पड़े।’

यथापि रुचिरं पुष्पं वण्णवंतं अगन्धकम्। एव सुभसित वाचा सफला होति सकुब्बतो।।

‘‘सुन्दर होते हुए भी पुष्प की सराहना तभी है जब वह वर्ण युक्त और गन्धयुक्त भी हो। इसी प्रकार उपदेश उसका ही सफल होता है, जो कथन के अनुसार कार्य भी करता है।’’

एल. रोशोकि का कथन है—‘‘वक्तृता शब्दोच्चारण तक सीमित नहीं है। उसके साथ अन्तःकरण की आस्था और व्यक्तित्व की प्रतिच्छाया भी जुड़ी रहती है। प्रभाव, आस्था और प्रतिच्छाया का पड़ता है शब्दों का नहीं।’’

वाणी को परिष्कृत करने के लिए उसमें मिठास उत्पन्न करना आवश्यक है। यह मिठास अन्तःकरण की उत्कृष्टता से ही उत्पन्न होती है। चापलूसों और ठगों जैसी मधुरता भी कला के रूप में विकसित की जा सकती है। स्वार्थी लोग दूसरों को मूर्ख बनाकर अपना उल्लू सीधा करने के लिए उस चतुरता को भली प्रकार सीख लेते हैं और भोले लोगों को सद्भावना के भुलावे में डालकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। चतुरता का यह छद्म प्रयोग अवसर का लाभ उठाने तक ही फलित होता है। वस्तुस्थिति प्रकट होते ही लोग सतर्क हो जाते हैं ओर मित्रता की आड़ में शत्रुता बरतने वालों से सर्प, बिच्छु की तरह बचने लगते हैं। वाणी की स्थिर मधुरता मनुष्य की उदार आत्मीयता, स्नेहसिक्त सज्जनता और सेवा सहायता के लिए तत्पर सद्भावना पर अवलम्बित है।

वाणी को शक्ति देने और कला को सुविकसित करने के लिए सबसे प्रथम और सबसे कारगर रीति यह है कि अपने व्यक्तित्व को चरित्र एवं चिन्तन को उत्कृष्ट स्तर का बनाया जाय। शब्द प्रवाह में कला का, विद्या का समावेश करने के लिए अध्ययन एवं अभ्यास की आवश्यकता है। पर इतने भर से उसमें प्रभावोत्पादक शक्ति का उद्भव न हो सकेगा। यह प्रयोजन तो उज्ज्वल चरित्र और प्रखर दृष्टिकोण अपनाने—उसे अपने व्यावहारिक जीवन में उतारने से ही पूरा हो सकता है। हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि भाषण के साथ जुड़ा हुआ वक्ता का व्यक्तित्व ही सुनने वालों को प्रभावित करता है। उसे तेजस्वी बनाने की आत्म-साधना में भी संलग्न रहना चाहिए।
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