अध्यात्म-विज्ञान की प्राचीनकाल में असंख्य धाराएँ थीं और वे लगभग सभी लुप्त हो गयीं।अपने को आध्यात्मिक कहने और बताने वाले प्रायः दार्शनिक सिद्धान्तों, प्रवचनों एवं तर्कों के सँजोते घेरे में सिमटे रहते हैं। या फिर ज्यादा से ज्यादा योग के नाम पर मायाचार और बाजीगरी का सहारा लेकर हल्के और ओछे प्रदर्शन करते फिरते हैं। इसका कारण बताते हुए गुरुदेव के शब्द हैं-बढ़िया-मशीनें ही बढ़िया काम करती हैं।उसी प्रकार बढ़िया व्यक्तियों पर ही ‘आध्यात्मिक विद्या’ का प्रयोग, उद्भव एवं प्रकटीकरण हो सकता है।”
प्राचीनकाल में योगमार्ग के साधक अपने शरीर, मन एवं अन्तःकरणों को जीवन साधना द्वारा उत्कृष्ट बनाते थे, तब उसको भली प्रकार से जोती हुई भूमि में चमत्कारी, आध्यात्मिक विद्याओं की कृषि उगायी जाती थी। मात्र दार्शनिक ज्ञान एवं साधना सिद्धान्त जानने के बलबूते कोई व्यक्ति आत्मबल से सम्पन्न नहीं हो सकता-जन्त्र-मन्त्र से घटिया स्तर के लोग कुछ सिद्धि-चमत्कार प्राप्त भी कर लें तो उनके द्वारा घटिया प्रयोजनों की ही पूर्ति हो सकती है, लेकिन उनकी स्थिरता एवं सफलता भी स्वल्पकालिक और संदिग्ध बनी रहती है। यही कारण है कि प्रयोग करने पर भी लोगों को अध्यात्म विज्ञान के चमत्कारी लाभों से वंचित रहना पड़ता है। धूर्तता के आधार पर सिद्धि दिखाने और चमत्कार बताने की प्रवंचना कितने ही लोग करते रहते हैं और भले लोगों को बहकाते रहते हैं। पर वस्तुतः जो आत्मबल प्रकट करने और उसका उपयोग सिद्ध करने की चुनौती स्वीकार कर सकें, ऐसे लोग नहीं के बराबर हैं।
योग की अनेक चमत्कारी शक्तियाँ और सिद्धियाँ हमारे पूर्वपुरुषों को प्राप्त थीं। वे उनके द्वारा जहाँ अपनी महानता का अभिवर्धन करते थे, वहाँ उस विद्या के द्वारा विश्वमानव की महती सेवा भी करते थे-भौतिक-विज्ञान के अन्वेषणों और यन्त्रों ने मनुष्य जाति की सेवा की है और अपना वर्चस्व स्थापित किया है। अध्यात्म विज्ञान की मान्यता तब तक सिद्ध नहीं हो सकती, जबतक वह अपने अस्तित्व की वास्तविकता को प्रत्यक्ष एवं प्रमाणित न करे। गुरुदेव का जीवन आध्यात्म-विज्ञान की अनूठी प्रयोगशाला के रूप में सतत् सक्रिय रहा। उन्होंने अनेकों घटनाक्रमों, विभिन्न उदाहरणों द्वारा हमेशा यह स्पष्ट किया कि भौतिक-विज्ञान से आध्यात्म-विज्ञान के चमत्कार लाखों करोड़ों गुने अधिक हैं।उनकी शक्ति से मानव जाति की अनेक जटिल समस्याओं को बड़ी आसानी से सुलझाया जा सकता है। एक महान आध्यात्मवेत्ता के रूप में उन्होंने बाजीगरों की भाँति सार्वजनिक प्रदर्शन भले ही न किये हों, किन्तु यदि उनके जीवनक्रम के विभिन्न घटनाक्रमों का लेखा-जोखा किया जाए-तो पता चलेगा कि अध्यात्म विद्या के महान वैज्ञानिक के रूप में वे विश्वहित के लिए सतत् और अनवरत सक्रिय रहे।
व्यक्तिगत स्तर पर उनके आध्यात्मिक प्रयोगों का क्रम उस समय से प्रारम्भ हुआ जब सन् 1926 की वसन्त पंचमी के दिन प्रातःकाल उनकी अपनी मार्गदर्शक सत्ता से भेंट हुई। इस विवरण शब्दाँकित करते हुए वे कहते हैं-पन्द्रह वर्ष की आयु थी, प्रातः की उपासना चल रही थी। वसन्त पर्व का दिन था। उस दिन ब्रह्ममुहूर्त में कोठरी में सामने प्रकाशपुँज के दर्शन हुए। आँखें मलकर देखा कि कहीं कोई भ्रम तो नहीं है। प्रकाश प्रत्यक्ष था। सोचा किसी भूत-प्रेत या देव-दानव का विग्रह तो नहीं है। ध्यान से देखने पर भी वैसा कुछ लगा नहीं। विस्मय भी हो रहा था और डर भी लग रहा था। स्तब्ध था।प्रकाश के मध्य में एक योगी का सूक्ष्म शरीर उभरा। सूक्ष्म इसलिए कि छवि तो दीख पड़ी, वह प्रकाश पुँज के मध्य अधर में लटकी हुई थी। वह कौन है। आश्चर्य उस छवि ने बोलना प्रारम्भ किया और कहा- हम तुम्हारे कई जन्मों से जुड़े हैं। मार्गदर्शन करते आ रहे हैं। पिछले जन्मों का विवरण देखो और आश्चर्य निवारण करो। उनके इतना कहते ही एक गहरी समाधि में तीन जन्मों का अनुभव हुआ। उनमें से प्रथम थे सन्त कबीर, दूसरे समर्थ रामदास, श्री रामकृष्ण परमहंस। इन तीनों का कार्यकाल इस प्रकार रहा है-कबीर-ई. सन् 1398-1518), समर्थ रामदास (ई. सन् 1608-1689), श्री रामकृष्ण परमहंस (ई. सन् 1836-1886)। तीन जन्मों का सम्पूर्ण जीवनक्रम दिखाने के बाद उन्होंने वर्तमान जीवन के प्रयोजन और उद्देश्य को बताया और आध्यात्मिक प्रयोगों का क्रम निश्चित किया।”
इस क्रम में चौबीस वर्ष से चौबीस गायत्री महापुरश्चरणों के साथ जौ की रोटी और छाछ पर निर्वाह करने का अनुशासन रखा गया। चौबीस वर्षों तक सम्पन्न किया गया यह प्रयोग हर साल 24 लाख के गायत्री जप तक ही सीमित नहीं था, बल्कि इसमें अध्यात्म विज्ञान के सभी तत्व और आधार सम्मिलित थे।यह पूज्यवर के व्यक्तिगत जीवन में किया गया ऐसा महान प्रयोग था, जिसका निष्कर्ष स्वयं को देवमानव के रूप में विकसित करने तथा वैज्ञानिक आध्यात्म को शत-प्रतिशत सत्य सिद्ध होने के रूप में निकला।साथ ही उनका स्वयं का व्यक्तित्व एक ऐसे सशक्त आधार के रूप में विकसित हो सका, जिस पर बाद के समय में विश्वहित के लिए किये जाने वाले प्रयोग सम्पन्न हुए।
इसी बीच मार्गदर्शक सत्ता के संकेत पर उनकी प्रथम हिमालय यात्रा सम्पन्न हुई। यहाँ उनका हिमालय की उन दिव्य विभूतियों से साक्षात्कार हुआ जो आध्यात्म ज्ञान की प्रणेता है। गुरुदेव के शब्दों में वे सभी उस दिन ध्यान मुद्रा में थे। मार्गदर्शक सत्ता ने बताया कि ये प्रायः इसी स्थिति में रहते हैं।अकारण ध्यान तोड़ते नहीं। क्रम से एक-एक का नाम बताया गया और उनके सूक्ष्म शरीर का दर्शन कराया गया। यही है सम्पदा, विशिष्टता और विभूति इस क्षेत्र की। मार्गदर्शक सत्ता के साथ मेरे आगमन की बात उन सभी को पूर्व विदित थी। सो हम दोनों जहाँ भी जिस स्थान पर पहुँचे, उनके नेत्र खुल गये। चेहरों पर हल्की मुस्कान झलकी और सिर उतना ही झुका मानों वे अभिवादन का प्रत्युत्तर दे रहे हों।” हिमालय के इस ऋषितंत्र के मार्गदर्शन में गुरुदेव ने आध्यात्म के वैज्ञानिक प्रयोगों का व्यक्तिगत धरातल से ऊपर उठकर विश्वहित के लिए सम्पन्न करने का निश्चय किया।
इस निश्चय के फलस्वरूप उन्होंने अपने अध्यात्म-विज्ञान के प्रयोगों की प्रथम प्रयोगशाला के रूप में जून 1953 में गायत्री तपोभूमि का निर्माण किया। यद्यपि मथुरा में तपोभूमि निर्माण के लिए चुना गया वह स्थान पहले कभी महर्षि दुर्वासा की तपस्थली रह चुका था, लेकिन इसे उच्चस्तरीय आध्यात्मिक प्रयोगों के अनुरूप बनाने के लिए उन्होंने विशिष्ट प्रयास किये। उन्हीं के शब्दों में-प्रयत्न यह किया जा रहा है कि जाग्रत एवं दिव्य शक्तिसम्पन्न 2400 तीर्थों का प्रतिनिधित्व पूर्णाहुति यज्ञ में हो सके। यों प्रायः दस हजार पुण्यभूमियों की रज और प्रायः एक हजार नदी-सरोवरों का जल एकत्र किया जायेगा। गायत्री माता की प्रतिमा स्थापित करने की वेदी 2400 जाग्रत तीर्थों की रज से तथा 2400 नदी सरोवरों के जल से निर्मित की जायेगी। ऐसे तीर्थ की प्राण प्रतिष्ठा करने के लिए कितनी आत्मिक पवित्रता की आवश्यकता है, उसके लिए ऋषिकेश से विशेष रूप से मंगाये गंगाजल पर निर्वाह करके 24 दिन तक निराहार उपवास करने का निश्चय किया गया है। यही नहीं वातावरण को अधिक दिव्य स्पन्दनों से सम्पन्न करने हेतु सहस्राँशु गायत्री यज्ञ आयोजित किया गया।यह देश के कोने-कोने पर सहस्र ऋत्विजों के सम्मिलित संकल्प से पूरा हुआ। इसके अंतर्गत सवा करोड़ गायत्री जप, 125 लाख आहुतियों का हवन एवं 125 हजार उपवास किए गए।”
इस स्थापना के साथ ही गायत्री तपोभूमि में साधना-सत्रों का प्रारम्भ हुआ, साथ ही गायत्री महाअभियान का आयोजन और गायत्री उपासना के सामूहिक आयोजन किये जाने लगे। यज्ञ विद्या पर सर्वांगीण शोध के उद्देश्य से सन् 1955 की वसन्त पंचमी से 15 महीनों तक चलने वाले विशद् गायत्री महायज्ञ का आयोजन किया गया। इसके अंतर्गत (1) चारों वेदों का परायण, (2) महामृत्युँजय यज्ञ (3) रुद्र यज्ञ (4) विष्णु यज्ञ (5) शत चण्डी यज्ञ (6) नवग्रह यज्ञ (7) गणपति यज्ञ (8) सरस्वती यज्ञ (9) ज्योतिष्टोम (10) अग्निष्टोम आदि अनेक यज्ञों की प्रतिक्रियाएं सम्मिलित थीं। यह विश्वहित के लिए सम्पन्न हुआ आध्यात्मिक प्रयोग था। गुरुदेव के शब्दों “इस यज्ञ का यजमान, संयोजक, पूर्णफल प्राप्तकर्ता कोई एक व्यक्ति नहीं है। यह संकल्प समस्त गायत्री उपासकों की ओर से विश्व कल्याण के लिए किया गया है।
इसके बाद की साधना उन्होंने ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान के रूप में की, जिसकी पूर्णाहुति 1958 के सहस्रकुण्डीय महायज्ञ में हुई। ब्रह्मास्र अनुष्ठान समस्त गायत्री परिवार द्वारा उसके कुलपति पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के निर्देशन में पूरा किया गया।इस प्रयोग के तीन चरण थे-पहले चरण में प्रतिदिन 24 लाख मंत्र जप, 24 हजार आहुति, 24 हजार पाठ, 24 हजार मन्त्र लेखन। दूसरे चरण के अंतर्गत प्रतिदिन सवा करोड़ गायत्री जप, सवा लाख आहुतियाँ, 24 लाख मंत्रलेखन को पूरा किया गया। इसकी पूर्णाहुति के रूप में सम्पन्न सहस्रकुण्डीय महायज्ञ अपने आप में अलौकिक प्रयोग था।
इसके भागीदार वही हो सकते थे, जो वर्षभर में सवा लाख जप, 52 उपवास, ब्रह्मचर्य पालन, भूमिशयन आदि तपश्चर्या कर चुके हों। यह सविता शक्ति संदोहन का विशिष्ट एवं विलक्षण प्रयोग था। इस तत्व को स्पष्ट करते हुए गुरुदेव स्वयं लिखते हैं-अक्टूबर 1958 का सहस्रकुण्डीय यज्ञ एक ऐसा ही प्रयोग था। पीछे मौसम वैज्ञानिकों ने भी हमारी मान्यता की पुष्टि कर दी। 1 जुलाई 1957 से 31 दिसम्बर, 1958 तक खगोलशास्त्रियों ने अन्तर्राष्ट्रीय शान्त सूर्य वर्ष (इंटरनेशनल ईयर ऑफ द क्वाइट सन) संक्षेप में इक्विसी मनाया। यह नाम इसलिए रखा गया क्योंकि इन लगभग दो वर्षों में सूर्य बिल्कुल शान्त रहा। और वैज्ञानिकों को उस पर अनेक प्रयाग और अध्ययन करने का अवसर मिला। लगभग इसी अवधि में हमारे उस यज्ञ की तैयारियाँ की गयी थीं। साधकों ने एक वर्ष पूर्व से गायत्री के विशेष पुरश्चरण प्रारम्भ किये थे और अक्टूबर, 1958 में 4 दिन तक यज्ञ कर शरदपूर्णिमा के दिन पूर्णाहुति दी थी।गायत्री का देवता सविता है। इसलिए इस गायत्री अभियान का उद्देश्य उसका अध्ययन और प्रयोग भी था और उस उपलब्धियों से सारे विश्व समाज को लाभान्वित करना भी, जो ऐसे अवसरों पर देवशक्तियों से सुविधापूर्वक अर्जित की जा सकती है।”
इस प्रयोग के पश्चात् परमपूज्य गुरुदेव 5 जून, 1960 को दूसरी बार हिमालय चले गये। इस यात्रा का उद्देश्य अपनी मार्गदर्शक सत्ता के साथ हिमालय के ऋषितन्त्र से पुनः भेंट करना था ताकि उनके साथ मिलकर विश्वहित के लिए अध्यात्म के अन्य विशिष्ट प्रयोग किये जा सकें। एक वर्ष की तप-साधना पूरी करके जब वह लौटे उस समय सन् 1962 में आने वाले अष्टग्रही योग के कारण समाज में भय का वातावरण संव्याप्त था। भविष्य वक्ता अपनी अनेक तरह की भविष्यवाणियों से इसे और भी अधिक बढ़ावा दे रहे थे।उस भय के वातावरण को समाप्त करते हुए उन्होंने कहा-इससे किसी को भयभीत या निराश नहीं होना चाहिए। विनाशकारी शक्तियों की ही भाँति रक्षा की शक्तियाँ भी सक्रिय हैं।” और गायत्री परिवार के सदस्यों को सप्त-सूत्री साधनाक्रम में सम्मिलित होने का निर्देश दिया। इसके परिणाम आश्चर्यजनक रूप से सामने आये। अष्टग्रही योग बिना किसी प्रकार का विशेष उपद्रव मचाते शान्त हो गया।
उनके आध्यात्मिक प्रयोगों का अगला क्रम सन् 1962 के चीन युद्ध के समय और सन् 1965 के पाकिस्तान युद्ध के समय शक्ति के रूप में सम्पन्न हुआ। इससे उत्पन्न आध्यात्मिक ऊर्जा के प्रभाव जिस ढंग से दृष्टिगोचर हुए उसे आज भी रहस्यमय ही कहा जा सकता है। बढ़ते हुए चीनियों के कदम लगातार हारती जा रही भारतीय सेना के समक्ष अचानक कैसे पीछे हट गए? इसका जवाब शासनाध्यक्ष नहीं सूक्ष्मदर्शी ही दे सकते हैं।सन् 1965 के पाकिस्तान युद्ध के समय बहादुर सैनिकों की वीरता के साथ उनका आध्यात्मिक पुरुषार्थ भी सम्मिलित था। इसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा-भारत की बहादुर सेनाओं ने राजनेताओं ने तथा अनेक देशभक्तों ने अपने अपने ढंग से जिस त्याग, बलिदान, देशभक्ति और सूझ-बूझ का परिचय दिया, उस देश पर मस्तक सदा गर्वोन्नत रहेगा। इस अवसर पर अध्यात्मक्षेत्र भी अकर्मण्य नहीं रह सकता था। गायत्री परिवार ने उपरोक्त पुरश्चरण आरम्भ किया। उसका जो प्रभाव अभीष्ट हो सकता था, वही हुआ। इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अपने इस शक्ति पुरश्चरण की भी है।” इस विशिष्ट प्रयोगों के अतिरिक्त इस बीच लगातार तपोभूमि में मानवी-चेतना के उत्कर्ष के लिए उनकी मार्गदर्शक सत्ता का संदेश आ पहुँचा और 20 जून, 1971 को वह अगली हिमालय यात्रा के लिए चल पड़े।
उनकी इस हिमालय यात्रा के साथ ही अध्यात्म की अद्वितीय प्रयोगशाला के रूप में हरिद्वार स्थित शांतिकुंज का विकास हुआ। जिसका कार्यभार उन्होंने वन्दनीया माताजी के हाथों सौंपा। इस तीसरी हिमालय यात्रा में लगभग 1 वर्ष तक विशिष्ट तपश्चर्या का क्रम चला। इस अवधि में पाकिस्तान द्वारा किए गए आक्रमण को निरस्त करने के लिए किए गए ऋषियों के तप-पुरुषार्थ में उनकी भागीदारी भी शामिल थी।
इस हिमालय यात्रा में उन्हें अपने मार्गदर्शक तथा वहाँ के ऋषिगणों से शांतिकुंज में ऋषि-परम्परा को पुनर्जीवित करने का निर्देश मिला। शांतिकुंज पहुँचकर उन्होंने अपने आध्यात्मिक प्रयोगों की शुरुआत प्राण-प्रत्यावर्तन सत्र’ से की।इस प्रयोग के प्रभाव ने ही शांतिकुंज और गायत्री नगर में आकर लोक कल्याण के लिए सर्वस्व अर्पित करने वालों की भीड़ लगा दी। इसी क्रम में 1976 में स्वर्ण जयन्ती साधनावर्ष मनाया गया।इसका उद्देश्य एक लाख साधकों की चेतना में विशेष बल भरना था। इसी क्रम में सन 1976 में रजत जयन्ती पुरश्चरण सम्पन्न हुआ।
सन् 1979 में गुरुदेव ने आध्यात्मिक शक्ति का एक अन्य विशिष्ट प्रयोग किया।जिसे उन्होंने सुरक्षा अनुष्ठान की संज्ञा दी।इस वर्ष स्काईलैब नामक-अन्तरिक्षीय यान के विस्फोट का खतरा धरती पर मंडरा रहा था। वैज्ञानिकों के अनुसार इसके गिरने पर प्रभावित होने वाले क्षेत्र थे-लाओस मनीला, पनामा, अटलाँटिक देश तथा नाइजीरिया एवं भारत का एक बड़ा क्षेत्र, जिसमें महाराष्ट्र-मध्यप्रदेश गुजरात, उड़ीसा तथा पश्चिम बंगाल प्रमुख थे।वैज्ञानिकों के अनुसार धरती पर इसके प्रभाव-स्वरूप धन-जन की क्षति के साथ सारे वातावरण का सन्तुलन बिगड़ जाना था। स्काईलैब इन जनसंकुल स्थानों से दूर समुद्र में कैसे जा गिरा ? इसे ठीक-ठीक बताने में तो वैज्ञानिक सफल नहीं हो सके, पर हाँ उनके लिए यह एक आश्चर्य तो रहा ही। गुरुदेव ने इस आश्चर्य का रहस्योद्घाटन करते हुए लिखा-यह इस बात का चिन्ह है कि स्थूल को प्रभावित करने वाले विज्ञान की तरह सूक्ष्म को प्रभावित करने वाला अध्यात्म भी सामयिक समस्याओं के सम्बन्ध में जागरुक है। यह उज्ज्वल भविष्य का शुभ चिन्ह है।” गायत्री परिवार के लाखों सदस्यों ने जुलाई मास में जो निर्धारित साधना की, उसे सूक्ष्म संरक्षण की दृष्टि से अत्यन्त शक्तिशाली एवं महत्वपूर्ण माना जायेगा।इस प्रयोग के अलावा शांतिकुंज में चान्द्रायण सत्र, कल्पसाधना सत्र एवं ब्रह्मवर्चस-साधना सत्र जैसे अनेकों प्रयोग वैयक्तिक चेतना के उत्कर्ष एवं उन्नति के लिए चलते रहे।
सन् 1980 से 2000 तक के समय को गुरुदेव ने युगसन्धि काल कहा। उनके शब्दों में युगसन्धि की विषम बेला में नियंता की गलाई-ढलाई प्रक्रिया तीव्र से तीव्रतम हो रही है। उसके साथ मानवी प्रयत्नों का भी सन्तुलन बैठना चाहिए। इस सन्तुलन को बैठाने के लिए उन्होंने जो प्रयोग शुरू किया, उसे नाम दिया प्रज्ञा पुरश्चरण। इसके स्वरूप और महत्व को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा- वर्तमान 25 लाख प्रज्ञापरिजनों द्वारा किये गये इस अभूतपूर्व महापुरश्चरण में प्रतिदिन 24 करोड़ जप नियमित रूप से सम्पन्न होता रहे। साथ ही उसी अनुपात में उसका अपेक्षित अग्निहोत्र भी साथ-साथ चलता रहे। इस शुभारम्भ के साथ युग परिवर्तन के लिए अनेकानेक महत्वपूर्ण दृश्य और अदृश्य उपक्रम सम्मिलित है।
सन् 1982 में उन्हें चौथी बार हिमालय बुलाया गया। इस बार उनकी यह यात्रा सूक्ष्म शरीर से हुई। हिमालय पहुँचने पर उन्हें पाँच जिम्मेदारियाँ सौंपी गयीं- (1) वायुमण्डल का परिशोधन (2) वातावरण का परिष्कार, (3) नवयुग का निर्माण, (4) महाविनाश का निरस्त्रीकरण, (5) देवमानवों का उत्पादन-अभिवर्द्धन-इसके लिए उन्हें यह बताया गया, तुम अपने को पाँच बना लो। इसे सूक्ष्मीकरण साधना कहते हैं। अपने मार्गदर्शक के आदेशानुसार उन्होंने सूक्ष्मीकरण-सावित्री साधना का शुभारम्भ 1984 की रामनवमी से कर दिया।
आध्यात्मविद्या के इतिहास में ऋषि सत्ताएं आध्यात्मिक ऊर्जा का लोक-कल्याण में प्रयोग करती हैं। रामायणकाल में रावण के आतंक को समाप्त करने के लिए महर्षि विश्वामित्र और महर्षि अगस्त्य ने श्री राम को माध्यम बनाकर रावण का विनाश किया था। विश्वामित्र द्वारा भगवान राम को बला-अतिबला बताना एवं अगस्त्य द्वारा उन्हें सूर्य विद्या प्रदान करना प्रकारान्तर से ही प्रक्रिया थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय हिटलर के आतंक को समाप्त करने के लिए महर्षि अरविन्द ने अपनी आध्यात्मिक शक्ति का प्रयोग किया कहते हैं जब प्रत्येक व्यक्ति यह आशा कर रहा था कि इंग्लैण्ड का शीघ्र पतन हो जायेगा और हिटलर की निश्चित रूप से जीत होगी। मैं अपनी आध्यात्मिक शक्ति से मित्र राष्ट्रों की सहायता करने लगा और यह देखकर सन्तोष हुआ कि जर्मनी की विजय का वेग लगभग रुक गया। जर्मनी हारा और हिटलर मृत्यु को प्राप्त हुआ।
हिमालय की ऋषि सत्ताएं शताब्दियों से मानव-कल्याण के लिए अपने आध्यात्मिक प्रयोगों में संलग्न हैं। उनकी ऊर्जा का प्रभाव ही है कि वैज्ञानिकों एवं ज्योतिषियों द्वारा की जाने वाली विनाशकारी भविष्यवाणियाँ आश्चर्यजनक ढंग से टल जाती हैं। इन्हीं ऋषि सत्ताओं के प्रतिनिधि के रूप में परमपूज्य गुरुदेव ने मार्च 1984 में सावित्री साधना की शुरुआत की। इसके प्रभाव को बताते हुए उन्होंने लिखा- सावित्री विश्वव्यापी है। उसके प्रभाव से भूमण्डल का सम्पूर्ण क्षेत्र एवं प्राणिसमुदाय का समूचा वर्ग प्रभावित हो उठता है। वह जन-जन के मन-मन में प्रेरित प्रेरणा की तरंगें उत्पन्न कर सकती है। वह अनर्थ संजोने वाले को टक्कर मारकर नीचे गिरा सकती है और साथ ही दिशा भूले लोगों को सही रास्ते पर उसी प्रकार चला सकती हैं जिस प्रकार झुण्ड से बाहर तितर-बितर भागने वली भेड़ों को चरवाहा डण्डा दिखाकर सही रास्ते पर ले आता है।
अध्यात्म विद्या का यह समर्थ प्रयोग गुरुदेव ने तीन वर्षों में सम्पन्न किया। इस समर्थ प्रयोग की परिणतियाँ दो रूपों में हुईं-(1) विश्व का कुण्डलिनी जागरण, यह जागरण पुरातन काल में विश्वामित्र के द्वारा सम्पन्न हुआ था। उस बार भी विश्व वसुधा का कायाकल्प हुआ था, इस बार भी वैसा ही होने जा रहा है। (2) पाँच वीरभद्रों-सूक्ष्मशरीरों का उत्पादन।
गुरुदेव के शब्दों में-सूक्ष्मीकरण के महाप्रयाग से उत्पन्न एक वीरभद्र विचार-संशोधन में लगेगा। दूसरे वीरभद्र के लिए यही कार्य सौंपा गया कि नवनिर्माण के लिए जितने प्रचुर साधनों की आवश्यकता है, उन्हें कहीं से भी किसी भी कीमत से जुटाया जाना चाहिए। इतने साधन को जुटा सके, सो कितना समर्थ होगा, यह अनुमान लगाने में किसी को चूक नहीं करनी चाहिएं।तीसरा वीरभद्र दुरात्माओं के लिए भय का वातावरण उत्पन्न करेगा। सूक्ष्मीकरण से उत्पन्न चौथे वीरभद्र को प्रस्तुत एवं भावी प्रज्ञापरिजनों की दृष्टि से अधिक समर्थ बनाने के लिए सुरक्षित छोड़ दिया गया है। सूक्ष्मीकरण से उत्पन्न चार वीरभद्रों को असाधारण काम सौंपे गये हैं उनके लिए खुराक कहाँ से आए? इसके निमित्त एक पाँचवाँ वीरभद्र विशुद्ध तपश्चर्या में ही निरत रहेगा।
इसी महान सामर्थ्य के आधार पर उन्होंने कहा-” सघन तमिस्रा का अन्त होगा। ऊषा काल के साथ उभरता अरुणोदय अपनी प्रखरता का परिचय देगा।” उनकी सूक्ष्मीकरण साधना के समय और उसके बाद शांतिकुंज में एकमासीय और नौदिवसीय साधना सत्रों का क्रम अनवरत चलता रहा।सूक्ष्मीकरण साधना की पूर्णाहुति देशव्यापी 108 कुण्डीय यज्ञों के रूप में की गयी। आध्यात्मिक प्रयोगों का यह क्रम उन्होंने अन्तिम श्वास तक जारी रखा और अन्त में सूक्ष्म जगत में ‘इक्कीसवीं सदी का उज्ज्वल भविष्य’ के अपने उद्घोष को साकार करने वह चल पड़े। इस तरह उनके जीवन का पल-पल आध्यात्मविद्या के बहुमूल्य प्रयोगों में व्यतीत हुआ।उनका आध्यात्म दार्शनिक सिद्धान्तों, प्रवचनों, तर्कों तक सीमित नहीं रहा। बल्कि अपने जीवन में उन्होंने विश्वामित्र, दधीचि, अगस्त्य, आदि प्राचीन ऋषियों की भाँति इसके लुप्त विज्ञान को प्रकट किया और विश्वहित के लिए इसके अनगिनत प्रयोग सम्पन्न किए।