बन्दउँ गुरु-पद पदुम परागा

July 1997

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गोस्वामी महाराज पधारे हैं, कल तुम भी मेरे साथ उनके दर्शन के लिए चलना। कहने वाले स्वर में अधिकार मिश्रित आग्रह था। आखिर वह उनका घनिष्ठ मित्र जो था। आज अचानक उसके मन में आया कि अगर मैं सतीश को गुरुदेव के पास ले चलूँ तो इसका भला होगा। गोस्वामीजी से आज्ञा लेकर वह सतीश बाबू आया। उन दिनों सतीश बाबू उग्र मिज़ाज के थे। उन्हें धर्म, साधु, भक्ति के प्रति कोई लगाव नहीं था। उन्होंने प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।

मित्र ने कहा -मैं यह सब नहीं सुनना चाहता। तुम्हें मेरे साथ गुरुदेव के पास जाना पड़ेगा। कल सबेरे मैं आ जाऊँगा। तुम तैयार रहना। वाला है। मैं भोर में कहीं निकल जाऊँगा। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी। जब मैं ही नहीं रहूँगा तब वह किसे ले जायेगा। वे दूसरे दिन भोर के समय गोस्वामीजी के भवन के विपरीत दिशा में घूमने निकल गए। लेकिन नियति को शायद कुछ और मंजूर था, भगवान की मंशा कुछ और ही थी। काफी देर तक बेमतलब घूमते रहने के कारण उन्हें प्यास महसूस हुई। पानी पीने की इच्छा से सामने के भवन के बाहर बैठे एक हमउम्र युवक के पास जाकर उन्होंने निवेदन किया। युवक ने कहा-कृपया भीतर आइए।

उस भवन के भीतर जाकर उन्होंने देखा कि कमरे में दो आसन बिछे हुए हैं। गौर से देखने पर ज्ञात हुआ कि इस समय वे प्रभुपाद विजय कृष्ण गोस्वामी के भवन में हैं और पानी पिलाने वाला युवक उनका पुत्र योगजीवन है। सतीशबाबू को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इस भवन के विपरीत दिशा में जाने पर भी वे कैसे यहाँ आ गये ?

सहसा एक मधुर स्वर सुनाई दिया-सतीश ठीक समय पर आ गये हो। सामने वाले आसन पर बैठ जाओ।

सतीशबाबू ने पूछा- कृपया मुझे एक बात ठीक से समझा दीजिए। मैं आपके यहाँ नहीं आना चाहता था। आपके घर की विपरीत दिशा में चला गया, फिर भी यहाँ कैसे आ गया ?

गोस्वामीजी ने मधुर मुसकान के साथ कहा- आज इसी समय तुम्हें मुझसे दीक्षा लेनी थी। भवितव्य होकर रहता है। उसे कोई टाल नहीं सकता।

गोस्वामीजी महाराज का स्नेह, अपरिसीम वात्सल्य, निरन्तर उपेक्षा के बावजूद उनका मातृसुलभ ममत्व इन सभी ने सतीशबाबू को एकबारगी अचरज में डालने के साथ अभिभूत कर दिया। उन्होंने चुपचाप दीक्षा ग्रहण कर ली।

गोस्वामीजी इस युग में पुराने त्रेता के ऋषियों के प्रतीक थे। कमर में धोती एवं कौषंय उत्तरीय, खड़ाऊँ और कमण्डलु, मृगचर्म तथा दर्मासन, सब प्राचीन युग जैसे थे। वैसे ही उनके हवनकुण्ड की अग्नि सदा प्रज्ज्वलित रहा करती थी। प्रातः पत्नी के साथ वेदमन्त्रों से हवन करते। त्रिकाल स्नान संध्या करने और सदा वेदिका पर मृगचर्म डालकर ही शयन करते।

उस समय उनकी अवस्था होगी चालीस-पैंतालीस की। मस्तक पर जटा-जूट एवं मुख पर श्मश्रु-जाल ने आकृति को भव्य बना दिया था। भस्मलिप्त उनके शरीर में एक प्रकार का तेज प्रत्यक्ष हुआ करता था। वहाँ पहुँचते ही मन स्वभावतः शान्त हो जाया करता था।

गोस्वामी जी के व्यक्तित्व से कलकत्ता और बंगाल ही नहीं, उत्तर भारत की बहुसंख्यक जनता परिचित हो चुकी थी। काशी के स्वामी विशुद्धानन्द, तैलंग स्वामी जैसे सुप्रसिद्ध महात्मा उन्हें दैवी चेतना से समन्वित प्रकाश पुरुष मानते थे। दक्षिणेश्वर के श्रीरामकृष्ण परमहंस के तो जैसे वे निर्जन ही थे। वे जब भी जहाँ जाते गाँव-नगर के प्रसिद्ध-प्रतिष्ठित से लेकर सामान्यजनों का समुदाय उनके दर्शनार्थ उमड़ पड़ता। एक छोटा सा मेला जैसा लग जाता। सबके सब योगिराज के उपदेशों को बड़े श्रद्धा से सुनते और आत्मिक तृप्ति का अनुभव करते।

सतीशबाबू ने भी उनके बारे में बहुत कुछ सुन रखा था, लेकिन इन सभी बातों ने उन्हें प्रभावित के बदले-अप्रभावित ही किया। शायद इसका कारण उनकी अंग्रेजी शिक्षा, अंग्रेजियत का रंग-ढंग था। बाबू सतीशचन्द्र मुखर्जी अंग्रेजी भाषा, पश्चिमी दर्शन, पश्चिमी वेशभूषा, पाश्चात्य जीवनशैली में रचे-बसे थे। उन्हें श्रद्धा नहीं तर्क प्रभावित करता था। आध्यात्मिक भावों, क्रियाकलापों एवं साधनाओं में उन्हें न तो कोई रुचि थी और न ही आन्तरिक रस मिलता था।

लेकिन आज वह अभिभूत हो उठे। गोस्वामी जी के अतिशय प्रेम ने उन्हें विह्वल कर दिया। अब तो दीक्षा सम्पन्न होते ही यह प्रेम गुरु-शिष्य के अलौकिक सम्बन्ध में बदल गया और गुरु शिष्य इस प्रकार डेढ़-दो घण्टे बातें करते रहे कि गोस्वामीजी का पुत्र योगजीवन हतप्रभ होकर देखता रह गया। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि जिस व्यक्ति को वह एक लोटा पानी पिलाने के लिए अन्दर लाया था, वह उनके पिता का इतना घनिष्ठ आत्मीय है। इसी बीच न जाने कहाँ से घूमता-फिरता सतीशबाबू का मित्र आ गया। वही मित्र जिसने उन्हें अपने गुरुदेव के पास जबरन ले जाने की बात कही थी। उसने जब इन्हें स्वतः गुरुदेव के पास बैठे हुए देखा, तो उसके अचरज का ठिकाना न रहा। उसे समझ में ही नहीं आ रहा कि कल तक जो व्यक्ति गुरुवाद, भारतीय परम्पराओं से चिढ़ता था उन्हें दकियानूसी कहने में शान समझता था उसी ने आज गुरुदीक्षा कैसे ले ली ? परन्तु उसे अपने गुरुदेव की अलौकिकताओं पर विश्वास था, भरपूर श्रद्धा थी, सो अचरज जैसा कुछ नहीं लगा।

इधर सतीशबाबू का अन्तःकरण अब गोस्वामीजी से मिलने के लिए बेचैन रहने लगा, अगले ही दिन वह फिर से उनसे मिलने के लिए उनके घर पर आया। लेकिन घर में उनके पुत्र ने बतलाया कि पिताजी प्रातः से ही घर पर नहीं हैं। सम्भवतः वह वृन्दावन चले गए हैं। इस उत्तर को सुनकर सतीशबाबू को हल्की-सी निराशा तो हुई, परन्तु साथ ही साथ वृन्दावन जाने का विचार भी दृढ़ हुआ।

उनके कालेज की परीक्षाएं समाप्त ही हो चुकी थीं। गर्मी की छुट्टियों में इधर-उधर घूमने और आनन्द मनाने की स्वतंत्रता थी। बड़े भाई साहब ही उनके अभिभावक थे। उन्हें पर्याप्त वेतन मिलता था।किसी प्रकार की कोई आर्थिक कठिनाई न थी। बड़े भाई साहब उन्हें बेहद प्यार भी करते थे। उन्हें अपने इस छोटे भाई की प्रतिभा पर गर्व था।बस एक ही बात उनके आस्तिक एवं धार्मिक स्वभाव को रह-रहकर खटकती थी, छोटे भाई का पश्चिमी रंग-ढंग और नास्तिकों जैसी बातचीत। लेकिन जब उन्होंने अपने भाई साहब से छुट्टियों में वृन्दावन जाने और गोस्वामी जी से मिलने की बात कही, तो उनके आनन्द का ठिकाना न रहा।

बड़े भाई से सहज ही अनुमति प्राप्त करके वे वृन्दावन आ गए। वहाँ भगवती कालिन्दी के तट पर एक बगीचा था। उसमें एक सुन्दर कुटिया बनी थी। उसी में उन दिनों गोस्वामीजी रह रहे थे।उनकी पत्नी भी इन दिनों उनकी शिष्या की भाँति उन्हीं के साथ रहकर साधना कर रही थीं।

आश्रम में दो गायें रहती थीं और उनके दूध से ही हवन का हविस्य एवं दुग्धाहारी दंपत्ति की जीवन यात्रा भी चलती थी। यों उनमें लोगों की बड़ी श्रद्धा थी, किन्तु किसी का कोई दान वे लेते नहीं थे।

वे योगी थे। प्रातः हवन के पश्चात् ही उनकी कोठरी बन्द हो जाती और फिर मध्याह्न संध्या के समय खुलती। मध्याह्न के बाद वे आने-जाने वालों से मिलते। रात्रि में आठ नौ बजते-बजाते उपवन का द्वार बन्द कर दिया जाता था। वे अपनी शयन वेदिका अर्द्धरात्रि में छोड़कर उठ बैठते और ब्रह्ममुहूर्त में ही आसन त्याग देते।

सतीशचन्द्र मुखर्जी को वे बहुत मानते थे और वह युवक भी प्रायः नित्य दोपहर को भोजन करके उनके समीप पहुँच जाता था। अब उसकी बड़ी श्रद्धा थी। जो भी छोटी-मोटी सेवा का अवसर मिलता उसे करके बड़ी खुशी होती। संध्या को जब उपवन का द्वार बन्द होने को होता तभी वह वहाँ से हटता। बड़े भाई स्वतः धार्मिक प्रवृत्ति के थे। यों उन्हें आने-जाने का बहुत कम अवसर मिलता, उसे करके बड़ी खुशी होती। संध्या को जब उपवन का द्वार बन्द होने को होता तभी वह वहाँ से हटता। बड़े भई स्वतः धार्मिक प्रवृत्ति के थे। यों उन्हें कहीं आने-जाने का बहुत कम अवसर मिलता था, पर अपने छोटे भाई द्वारा साधु साधु सेवा उन्हें प्रसन्न करती थी। लेकिन परिस्थिति एक सी रहती नहीं। बड़े भाई को किसी कारण से नौकरी छोड़नी पड़ी। सतीशबाबू पर अचानक भार आ पड़ा।उनकी शादी भी हो चुकी थी। काम की उलझनों में कुछ ऐसे फँसे कि गोस्वामीजी के पास जा ही न सके।कुछ समय बाद जब अपने गुरुदेव के दर्शनार्थ पहुँचे तो पता लगा कि इसी बीच उनकी पत्नी का देहान्त हो गया। इसी के कुछ वर्षों के बाद प्रभुपाद विजयकृष्ण गोस्वामी ने भी सन् 1910 में अपने नश्वर कलेवर का त्याग कर दिया। धीरे-धीरे काल ने स्मृति पर यवनिका डाल दी।

पर गुरुदेव की कृपा का वे सतत् अनुभव करते रहे और भारतीय स्वाधीनता के प्रकाश स्तम्भ के रूप में उदय हुए। राष्ट्र एवं मानवता के प्रति उनके अद्भुत प्रेम को देखकर जब राजेन्द्र बाबू ने उनसे पूछा- यह अनुराग आने कहाँ से प्राप्त किया ? हालाँकि अपना सवाल पूछते हुए प्रश्नकर्ता को संकोच था कि उसे शायद ही अपने प्रश्न का उत्तर प्राप्त हो। क्योंकि ऐसा प्रश्न, उनकी गहन भावनाओं को उजागर करने वाले इस सवाल का जवाब वे शायद ही देते। फिर भी उन्होंने पूछ ही लिया।

राष्ट्र की करुण दशा हो या प्रभु-भक्ति की चर्चा उनकी आँखें भावों से सजल हो उठती हैं। रोम-रोम खड़ा हो जाता है। सारा शरीर कांप उठता है विचित्र ढंग से। ये बातें उनके हर मिलने वालों को आकर्षित करती हैं। सतीशबाबू का यह परिवर्तन उनके पुराने मित्रों को आश्चर्य में डाल देता था, क्योंकि पहले तो वे ऐसे नहीं थे। गोस्वामी जी से मिलने के बाद उन्हें क्या हो गया ?

मुझमें राष्ट्रप्रेम या भगवत्प्रेम कहाँ ? उन्होंने बड़े सरल ढंग से कहा। उनके कहने का ढंग ही बतला रहा कि वे बहुत अधिक संकोच अनुभव कर रहे हैं और इस प्रकार की चर्चा से भागना चाहते हैं। राजेन्द्रबाबू ने भी उन्हें तंग किए बिना पता लगाने का निश्चय किया। एक दिन की बात है वे अपने पूजा के कमरे में आसन लगाये बैठे थे। दबे पाँव पीछे से जाकर उन्होंने द्वार के समीप से ही झुककर देखा। एक चौकी पर पीला वस्त्र बिछाया गया था। उस पर कुछ था जो पुष्पों से ढँका था। राजेन्द्रबाबू ने समझा शालिग्राम जी होंगे। धूपबत्ती एवं दीपक जल रहा था। सतीशबाबू की अँजलि बँधी थी। नेत्र बन्द थे और दो धाराएँ कपोलों पर से गिर रही थीं।

राजेन्द्र बाबू तब तक प्रतीक्षा करते रहे, जब तक उनकी पूजा समाप्त न हुई। आसन से उठकर जैसे ही उन्होंने उनकी ओर देखा, उन्होंने प्रणाम करते हुए कहा, क्या आपके भगवान के दर्शन कर सकता हूँ।

मेरे भगवान ? वे कुछ चौंके। आ जाइए! मेरे भगवान यहाँ कहाँ ? ऐसे भाग्य तो पता नहीं कभी होंगे या नहीं।

यह क्या है ? राजेन्द्रबाबू ने देखा कि सिंहासन पर पुष्प पूजित कोई मूर्ति नहीं एक पोटली है। कोई वस्तु पीले व रेशमी वस्त्र में बँधकर रखी हुई है।

गुरुदेव की चरणधूलि। बड़े संकोच से उन्होंने कहा, जब पिछले दिनों वे यहाँ आये थे तो मैंने चुपके से इसे एक स्थान से जबकि वे यहाँ श्रीचरण रखकर निकल गये थे, एकत्र कर लिया।

आप इसका तिलक करते हैं ? मैंने उन्हें कभी टीका लगाये देखा नहीं है, फिर भी भला धूल का और उपयोग ही क्या होगा? यह सोचकर उन्होंने पूछा।

मैं केवल इसकी वन्दना करता हूँ। सतीशबाबू ने भरे कण्ठ से कहा-इसकी वन्दना का परिणाम है कि मेरी कुरुचि सुरुचि में बदली है। जहाँ पहले मैं पाश्चात्य संस्कृति का प्रेमी था, नास्तिक कहाने में गर्व होता था। वहाँ अब अपने राष्ट्र और अपनी संस्कृति के प्रति यत्किंचित् अनुराग पनपा है।

राजेन्द्रबाबू वहाँ से लौट पड़े। मन में बहुत हलचल थी। शायद कहीं एकान्त में सोचना चाहते थे। यहाँ यह सौभाग्य कहाँ ? उनके यहाँ मित्र मण्डली जमी थी। विवशतः बैठना पड़ा। चर्चा चल रही थी, आजकल समाज की रुचि बिगड़ गयी है। नाटक, थियेटर, नियम हीन आहार-विहार सुरुचि तो रह ही नहीं गयी। न कथा न सत्संग और न राष्ट्रप्रेम से आन्दोलित भावनाएँ। जब सुरुचि ही नहीं तो प्रेम क्या होगा। अनुराग कहाँ से आवेगा।

चर्चा सुनकर राजेन्द्रबाबू चौंके-श्रीगुरु के चरणों की धूलि की वन्दना से सतीशबाबू को सुरुचि मिली और यही उनके अनुराग का मूल है। हृदय की भावनाओं ने कहा-यदि चरण कमल हैं तो उनकी धूल पराग हुई। उससे सुगन्धि सुरुचि तो मिलेगी ही। अनुराग तो मधुर रस है, मकरन्द है। वह तो समीप जाकर मिलता है। सुगन्धि का आकर्षण जब गुरु चरणों तक पहुँचा देता है, तो सुरुचि जागती है। याद हो आई उन्हें तुलसीदास जी की चौपाई ‘वंदौ गुरुपद पदुम परागा, सुरुचि सुवास सरस अनुरागा’ ठीक ही तो है, सतीशबाबू के धूलवन्दन ने उन्हें सुरुचि दी तथा धीरे-धीरे मानस में श्री गुरु चरणों का सान्निध्य भी। अतः उनमें रसमय अनुराग आविर्भूत हो गया।

इससे उनके व्यक्तित्व में जो परिवर्तन हुए इसकी चर्चा करते महामहोपाध्याय डॉ. गोपीनाथ कविराज ने लिखा है, एक प्रकार से उन्हें भारतीय स्वतंत्रता को नयी दिशा देने वाले युग प्रवर्तक पुरुष कहा जा सकता है। वंग भंग आन्दोलन के समय इस सोसाइटी की स्थापना करने वाले उद्यमी कार्यकर्ता और स्वदेशी आन्दोलन के कर्मठ लोगों में आप अग्रणी थे। राष्ट्रीय आन्दोलन को तेज करने के लिए आपने ही बड़ौदा से श्री अरविन्द को बुलाया था। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद गाँधी जी के अनुयायी थे, पर सतीशचन्द्र मुखर्जी के अनुगत शिष्य थे। वे अपनी उपलब्धियों को अपने गुरुदेव की चरणों की धूल का प्रताप मानते थे।


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