अपनों से अपनी बात- - इस संधिकाल में हमारी गुरुभक्ति का स्वरूप क्या हो?

July 1997

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हर व्यक्ति जुड़कर व सक्रिय होकर ही चैन से बैठ सकेगा

गुरु को मानवी-चेतना का मर्मज्ञ बताया गया है एवं यह कहा जाता रहा है कि वहीं एक ऐसी समर्थ सत्ता है जो शिष्य की चेतना में उलट-फेर लाने में समर्थ हो पाती है। गुरु अपना लक्ष्य शिष्य के अहंकार को बनाता है, डाँट या पुचकार से, घटनाक्रमों का अनुभूति से, विभिन्न प्रकार के शिक्षणों द्वारा वह एक समर्पित शिष्य के अहंकार को धोकर, साफ कर उसे निर्मल बना देता है। हमारी संस्कृति में सभी साधना-पद्धतियाँ इसी कारण गुरु के माध्यम से ही सम्पन्न किये जाने पर सफल होती है। आत्मिक प्रगति का क्षेत्र वस्तुतः एक जीवन-समर महाभारत के सदृश है। यह उपक्रम प्रवाह के विरुद्ध है। ऊंचा उठना-गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध चलना एक बहुत बड़ा काम है- इसके लिये एक बड़ी ताकत की जरूरत पड़ती है। समर्थ गुरु की प्रथम प्रक्रिया या दीक्षा इसीलिये अनिवार्य बतायी गयी है। सच्चा गुरु कौन हो, कैसे उसे ढूँढ़ा जाय, कैसे आत्मिक प्रगति की दिशा में बढ़ा जाये? यह सब कुछ हम सभी को परमपूज्य गुरुदेव एवं परमवंदनीया माताजी ने अपने जीवन के माध्यम से समझाया- हृदयंगम कराया।

परमपूज्य गुरुदेव अक्सर कहा करते थे- “भगवान वस्तुतः बहुत दूर नहीं है तुमसे। तुम सोये हो- मात्र नींद का फासला है। परमात्मा के लिये तुम दूर नहीं हो, तुम्हारे लिये ही वह परमसत्ता दूर है- यह बात ध्यान रखना।” उनकी इस बात को हम इस तरह समझ सकते हैं। हम सोये पड़े हैं। सूरज देवता का आगमन हमारी धरती पर हो चुका है- किरणें हमारे ऊपर बरस रही है। लेकिन हम तो सोये पड़े हैं। सूरज के लिये हम दूर नहीं हैं- वह तो हमें जगाने की पूरी कोशिश कर रहा है- पूरी ताकत से हम पर बरस रहा है- हमारे रोम-रोम को जगाने की कोशिश कर कर रहा है, लेकिन इस गहन अंधकार में हम हैं कि सोये पड़े हैं। सूर्य देवता को हम परमात्मा मान लें। परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि ऐसी स्थिति में हमें जब सूर्य की तरह परमात्मा बहुत दूर मालूम पड़ता है, सद्गुरु हमारी मदद कर सकता है। सद्गुरु है तो हम जैसा ही मनुष्य रूप ही, हाड़-माँस का ही, फिर भी उसने जो जाना है- वह हमने नहीं जाना। उसे यह भी खबर है कि हम कल क्या बनने वाले हैं। यदि जाग गये तो और नहीं जागे तो भी। वह हमें जगाकर हमारी आँखों में ज्ञान का अंजन लगाकर हमारा भविष्य गढ़ने वाला एक ऐसा ताकतवर प्राणी है, जो औरों से ऊंचा उठा हुआ तो है ही- उसने परमसत्ता से साक्षात्कार कर हमें उसकी झलक दिखाने की पात्रता भी अर्जित कर ली है। वस्तुतः हम हमारी समस्त भावी संभावनाओं का द्वार है।

जैसे सूर्य दूर है। परमात्मा भी दूर है, किन्तु सद्गुरु हमारे पास है, स्थूल हो चाहे सूक्ष्म रूप में हो। गुरु एक ऐसा झरोखा है, श्री रामकृष्ण परमहंस के शब्दों में, जिसके माध्यम से हम परमात्मा को देख सकते हैं। दूर के आकाश को हम सद्गुरु के माध्यम से देख सकते हैं, क्योंकि झरोखा समीपस्थ है- आकाश आनन्द, निस्सीम, बहुत दूरी पर है। बहुत ही व्यावहारिक परिभाषा है- सीधी-सादी सी- समझ में तुरन्त आ जाती है। और भी प्यार से गुरु की व्याख्या समझाते हुए लेखन प्रशिक्षण प्रक्रिया के दौरान उनने हमें बताया कि बुद्ध कहा करते थे कि गुरु एक बूँद के समान है। सागर की एक बूँद चख ली तो सारे सागर का स्वाद जान लिया- उस सागर का, जो परमसत्ता के एक अंश के रूप में हमारे अंदर समाया पड़ा है। ‘सद्गुरु’ परमपूज्य गुरुदेव के शब्दों में- “साधक को- समर्पित शिष्य को परमात्मा की ओर ले जाने की प्रक्रिया सिखाता है- स्वयं को स्वयं के बंधनों से मुक्त करके जीवनमुक्त बनाना सिखाता है। असली सवाल सद्गुरु की पहचान करे एवं उस पर मिटने की कला सीखने का है। मिटना अर्थात् संपूर्ण समर्पण, झुकना सीखने के लिये अपनी समस्त इच्छाओं को अर्पित कर देना।” अब दो बातें महत्वपूर्ण हैं- सद्गुरु की पहचान एवं सम्पूर्ण समर्पण, उस पर पूरा भरोसा।

परमपूज्य गुरुदेव के गुरु खोजते- खोजते उनके द्वार आ पहुँचे एवं 1926 की वसंत वेला में उन्हें सूक्ष्म शरीर से प्रत्यक्ष बन साक्षात्कार कर दीक्षा दे अपना सब कुछ उन्हें अर्पित कर गये। रामकृष्ण परमहंस ने भी नरेन्द्र की खोज स्वयं की थी एवं एक संयोग ऐसा बनाया था जिससे वे अपने प्रियपात्र को देख सकें- उसे बोध करा सकें। सबके साथ यह सौभाग्य नहीं जड़ा होता। सूफी फकीर शेख फरीद गुरु की तलाश में थे। एक वृक्ष के नीचे बैठे बाबा से बोले- “हमें भगवान से मिला दें बाबा!” ध्यानस्थ बाबा ने आँखें खोलकर कहा- “बेटा! भगवान से तो गुरु मिलाता है। गुरु को ढूँढ़ पहचान में बताता हूँ।” साधुबाबा ने इसके बाद कहा कि “तेरे गुरु एक पहाड़ के समीप एक पेड़ के नीचे बैठे होंगे। चेहरे पर प्रकाश का वलय होगा, आँखों में तेज होगा- शरीर से सुगंध निकल रही होगी।” शेख फरीद खोज में निकल पड़े- पाने की अभिलाषा बढ़ती गयी- साधना कठोरतम होती चली गयी। वापस लौटने पर देखा- एक पेड़ के नीचे पहाड़ के समीप एक साधु बैठा है। चारों ओर प्रकाश का घेरा, आँखों में तेज, भीनी-भीनी मदमस्त करने वाली सुगन्ध । चरणों में लोट गये। साधु ने पीठ पर हाथ रखा- फरीद ने मुँह उठाकर देखा- ये तो वही थे जिनने गुरु के लक्षण बताये थे। स्थान भी वही है। मैं पहचान नहीं पाया या यह उनकी लीला थी। जवाब में वे बोले- “पहले एक कौतुकी फरीद आया था। अब बीस वर्ष की तपश्चर्या के बाद निखर कर एक समर्पित शिष्य शेख फरीद आया है। गुरु केवल शिष्य को मिलते हैं। शिष्य बनने की प्रक्रिया जैसे ही तुमने पूरी की- हम तुम्हें दिखाई दे गये।” संभवतः कमी यही रह जाती है। शिष्यत्व पक नहीं पाता, इसी कारण गुरु को पहचानने में कठिनाई होती है।

गुरुपूर्णिमा के पावन पर्व पर जब हम सभी अपने श्रद्धा-सुमन ऋषियुग्म के चरणों पर अर्पित कर रहे हैं- हम मात्र एक प्रश्न अपने आप से पूछ सकते हैं- कहीं हमारे शिष्यत्व में कोई कमी तो नहीं रह गयी- कहीं अभी भी उस युगान्तकारी सत्ता की सामर्थ्य में हमें संदेह तो नहीं हैं- कहीं समर्पण आधा-अधूरा तो नहीं है। इन प्रश्नों का यदि हम उत्तर खोज लें तो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में एक शिष्य के नाते हमारी गुरु-भक्ति हमारे दायित्व क्या होने चाहिये, इन्हें समझने में तनिक भी कठिनाई नहीं होगी। स्वयं गुरुदेव ने अपने गुरु के प्रति अपने समर्पण के संदर्भ में लिखा है- “हमने अपना शरीर, मन-मस्तिष्क धन और अस्तित्व, अहंकार सब कुछ मार्गदर्शक के हाथों बेच दिया है। हमारा शरीर ही नहीं, अंतरंग भी उसने खरीद लिया है। अपनी कोई इच्छा शेष नहीं रही। भावनाओं का समस्त उभार उसी अज्ञात शक्ति के नियंत्रण में सौंप दिया।” स्वयं पूज्यवर ने बार-बार अस्तित्व के इस समर्पण की चर्चा करते हुए अपनी पुस्तक ‘हमारी वसीयत और विरासत’ में बार-बार लिखा है- “यह घाटे का नहीं, असंख्य गुने लाभ का व्यापार है। हमारी तुच्छता जिनके चरणों में समर्पित हुई, उनने अपनी महानता हमारे ऊपर उड़ेल दी। बाँस के टुकड़े ने अपने को पूरी तरह खोखला करके बंशी के रूप में प्रियतम के अधरों का स्पर्श किया तो उसमें से मन-मोहक रागनियां निकलने लगीं।...... हमारे पास जो प्रत्यक्ष दीखता है, उससे हजार-लाख गुना अप्रत्यक्ष छिपा पड़ा है। यह हमारा उपार्जन नहीं है। विशुद्ध रूप से यह उस मार्गदर्शक सत्ता का ही अनुदान है। जिसके साथ हमारी आत्मा ने विवाह कर लिया।”

समर्पण वस्तुतः किस स्तर का होना चाहिये, यह हम पूज्यवर की लेखनी से दिये गये मार्गदर्शन से समझ सकते हैं। गुरुसत्ता के एवं हमारे सम्बन्ध अब के नहीं, जन्म-जन्मान्तरों के हैं, यह बात भी यदि हम समझ लें तो सारी भ्रान्तियाँ दूर हो सकती हैं। पूज्यवर ने अपने समय में अगणित व्यक्तियों को प्रत्यक्ष व परोक्ष मार्गदर्शन दिया। पत्रों से भी वे प्रेरणा-प्रकाश सतत् दिया करते थे। ऐसा ही एक पत्र यहाँ उद्धृत है, जो उनने 15 मार्च,1966 को दिल्ली के श्री शिवशंकर गुप्ता को लिखा था- “तुम्हें हम पूर्व जन्मों के अनुरूप इस जन्म में भी अपना छोटा बालक ही समझते हैं। साँसारिक हलचलों में अभी हम यथा-संभव सहायता करते रहते हैं। आगे तुम्हारी आत्मिक प्रगति में भी भरसक सहयोग करेंगे। मनुष्य के अवतरित होने का लक्ष्य भी तुम्हें इसी जन्म में प्राप्त होगा। ....को जो स्वप्न तुमने देखा, वह स्वप्न नहीं, योगतन्द्रा की स्थिति थी। हम कभी-कभी अपने स्वजनों की देखभाल के लिये सूक्ष्म शरीर से जाया करते हैं। उस दिन तुम्हारे पास भी अपना वात्सल्य प्रकट करने गये थे। सो ही तुमने देखा।” शिष्य के असमंजस को दूर कर किस तरह गुरु मार्गदर्शन देते हैं, उनका नमूना मात्र है। ऐसे हजारों भावाभिसिक्त पत्र हमारे पास उनकी हस्तलिपि में लिखे रखे हैं, जो उनके अनन्य स्नेह एवं समर्पित शिष्य पर बरसने वाले अनुग्रह-अनुदान के परिचायक हैं। सचमुच अपने सामने ही प्रत्यक्ष-परोक्ष दोनों रूपों में मार्गदर्शन कर श्री रविशंकर जी को न केवल उनने आत्मबोध करा दिया- आपातकालीन स्थिति में उनकी मदद की- उन्हें बंधनमुक्त कर मोक्ष भी प्राप्त करा दिया।

दैनिक नव-ज्योति के सम्पादक श्री मोहनराज भण्डारी पूज्यवर से शिष्यवत छोटे भाई वाला स्नेह 1940-41 से ही प्राप्त करते रहे हैं। पिछले दिनों शाँतिकुँज आकर उनने अपनी निधि हमें सौंपी। पूज्य गुरुदेव की हस्तलिपि में लिखा एक पत्र 1-12-47 का है- “तुम्हारा प्रेम ऐसा है जिसे भुला देना किसी वज्र हृदय के लिये भी कठोर है।” यही वह सच्चा स्नेह है, जिसे गुरुसत्ता को अनन्त संख्या में अपने अनुचरों, सहयोगियों के साथ जोड़े रखा। श्री रामदास को लिखे एक पत्र में (9-7-1952) वे लिखते हैं- “जैसे पत्थर की प्रतिमा का पूजन करने से उस पूजा का श्रेय प्रतिमा तक सीमित नहीं रहता और सीधा ईश्वर तक पहुँचता है, उसी प्रकार गुरुभक्ति भी किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं है, वह भी सीधी ईश्वर तक ही पहुँचती है।”

उपरोक्त पंक्तियाँ परमपूज्य गुरुदेव मार्गदर्शक के रूप में सद्गुरु के सच्चे स्वरूप को अभिव्यक्त करने के अभिप्राय से उद्धृत की गयी है। गुरुसत्ता का यह स्वरूप समझ में आ जाने पर फिर मन में कोई असमंजस नहीं रहता। सतत् उनका ही काम करते रहने, उनके उद्देश्यों के निमित्त अपना सर्वस्व अर्पित करने का आपा विकसित होता चला जाता है। उसी परिणाम में फिर मिलता भी चला जाता है।

अनेकों अनुभूतियाँ उस विलक्षण गुरुसत्ता के संबंध में उपलब्ध है, मात्र भौतिक-आध्यात्मिक अनुदानों तक ही सीमित नहीं है, वरन् विभिन्न रूपों में परोक्ष मार्गदर्शन के रूप में भी हैं, जिनसे वे सुपात्र शिष्य अपनी राह बदलकर सन्मार्ग पर चल सके। यही सचमुच सबसे बड़ी उपलब्धि है।

कई परिजनों- नये जुड़े पाठकों को लगता है कि हम तो उनके जीवनकाल में जूड़े नहीं- न उन्हें देख पाये, न उनसे दीक्षा ले पाये। फिर संबंध कैसे स्थापित हो। परमपूज्य गुरुदेव के जीवनकाल में अंतिम विशेषांक अखण्ड-ज्योति पत्रिका के अप्रैल 1990 अंक के रूप में प्रकाशित हुआ था, वही बाद में एक पुस्तकाकार में ‘इक्कीसवीं सदी के लिये हमें क्या करना होगा?” शीर्षक से सबको उपलब्ध हुआ। उसी से कुछ पंक्तियाँ ऐसे पाठकों के लिये उद्धृत हैं- “कोई यह न समझे कि दीप बुझ गया और प्रगति का क्रम रुक गया। दृश्य शरीर रूपी गोबर की मशक चर्मचक्षुओं से दिखे या न दिखे, विशेष प्रयोजनों के लिये नियुक्त किया गया प्रहरी अगली शताब्दी तक पूरी जागरुकता के साथ अपनी जिम्मेदारी वहन करता रहेगा।” यही नहीं आश्वासन अत्यधिक स्पष्ट है। स्वयं पूज्यवर ने गायत्री जयंती 2 जून, 1990 को स्थूल शरीर से चेतना को मुक्त कर स्वयं को विराट से एकाकार कर लिया। उनने लिखा- “पक्षी सुदूर अन्तरिक्ष में उतनी दूर उड़ जाते हैं कि खुली आँखें से दीख नहीं पड़ते, फिर भी वे अपने घोंसले का, दुधमुँहे बच्चों का पूरा ध्यान रखते हैं। बच्चे भी समय पर उनके द्वारा खुराक मिलने की प्रतीक्षा करते हैं। गाय अपने बछड़े सहित जंगल में चरने चली जाती है। संयोगवश कभी दोनों बिछड़ भी जाते हैं, फिर भी एक दूसरे को ढूँढ़ने और पुकारने में कमी नहीं रहने देते। वर्तमान अखण्ड-ज्योति पत्रिका- पाठकों का, अपने परिवार का परिकर अगले दिनों बढ़ सकता है, पर घटेगा नहीं। मिशन की पत्रिकाओं के रूप में प्रकाश-चेतना हर माह अपने पाठक- परिजनों के यहाँ अप्रत्यक्ष रूप से जा पहुँचती है। इससे परोक्ष मिलन एवं नियमित आदान-प्रदान का क्रम चलता रहता है। उसी माध्यम से विचारों का ही नहीं, प्राण-चेतना का, शक्ति का प्रत्यावर्तन भी बन पड़ता है।”

उपरोक्त पंक्तियों में एक स्पष्ट मार्गदर्शन सभी पा सकते हैं। पूज्यवर की सूक्ष्म प्राण-चेतना से संपर्क स्थापित किये रहने का सर्वश्रेष्ठ सशक्त माध्यम यह पत्रिका है, जिसका स्वाध्याय सभी को निरन्तर नित्य विलक्षण अनुभूतियाँ कराता रहता है। कइयों को दैनन्दिन जीवन की कठिनाइयों से जूझने संबंधी मार्गदर्शन मिलता है, तो कइयों के मनोबल-प्राण चेतना को ऐसा उछाल मिलता है कि प्रतिकूलताएँ दूर हो अनुकूल वातावरण बनता चला जाता है- इस सहजता से कि अनुमान ही नहीं लग पाता। पत्रिका के नियमित पाठक बन रह- औरों को पढ़ाकर हम अपनी गुरुभक्ति रूपी कर्तव्य ही नहीं पूरा करते- हम पर चढ़ा ऋण भी उतारते हैं, जो अनुदानों की प्राप्ति के रूप में हैं व सतत् बढ़ता ही चला जाता है। इस गुरुपूर्णिमा पर यदि हम यह संकल्प ले सकें कि अधिक से अधिक व्यक्तियों को अखण्ड -ज्योति के माध्यम ये युग-चेतना से जोड़ने का प्रयास करेंगे तो यह गुरुसत्ता के चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित कराने का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप होगा।

परिवर्तन अवश्यम्भावी है। मात्र ढाई वर्ष (30 माह) का समय शेष रह गया है। ऐसे में संधिवेला में मिलन की प्रक्रिया कैसे पूरी हो- कैसे हम ऋषियुग्म की सत्ता से संपर्क स्थापित करें ताकि युग-संधि महापुरश्चरण की भागीदारी के साथ-साथ अनुदानों के अधिकारी बन सकें- यह मार्गदर्शन इस पुस्तक में दिये गये उनके इस आश्वासन से मिलता है- “शान्तिकुँज परिसर में संचालक अपना सूक्ष्म शरीर, अदृश्य अस्तित्व बनाये रहेंगे। आने वाले, रहने वाले अनुभव करेंगे कि उनसे अदृश्य किन्तु समर्थ प्राण-प्रत्यावर्तन और मिलन, आदान-प्रदान भी हो रहा है। इस प्रक्रिया का लाभ अनवरत रूप से जारी रहेगा।” परमपूज्य गुरुदेव ने महाप्रयाण के बाद परम वंदनीया माताजी ने चार वर्ष तक मिशन का प्रत्यक्ष मार्गदर्शन किया- देव संस्कृति दिग्विजय अभियान के अंतर्गत लाखों, करोड़ों को साँस्कृतिक चेतना से अनुप्राणित कर 19 सितम्बर, 1994 महालयारम्भ भाद्रपद पूर्णिमा को महाप्रयाण किया। वे भी सूक्ष्म में विलीन हो अपनी आराध्यसत्ता से एकाकार हो गयीं। अगस्त 1994 अखण्ड ज्योति के अंक में उनका ऐ विशेष लेख प्रकाशित हुआ- ‘एक माँ की अन्तर्वेदना एवं अपेक्षा भरी गुहार।’ कुछ पंक्तियाँ उद्धृत हैं- “अब हमारी भूमिका परोक्ष जगत में अधिक सक्रियता वाली होगी। गुरुसत्ता का आमंत्रण तीव्र पर तीव्र होता चला जाता है तथा एक ही स्वर, हर श्वाँस के साथ मुखरित होता चला जाता है- युग-परिवर्तन के लिए और अधिक और अधिक समर्पण। ...शक्ति का प्रवाह कभी अवरुद्ध नहीं होता, इस तथ्य को जानने वाले कभी भी लौकिक स्तर पर चिंतन नहीं करेंगे तथा अपने पुरुषार्थ में साधना- पराक्रम में कोई कमी नहीं आने देंगे, ऐसा हमारा दृढ़ विश्वास है।”

ऋषियुग्म रूपी हमारी दोनों गुरुसत्ताओं की ही हमसे एक श्रेष्ठ साधक बनकर युग-परिवर्तन की प्रक्रिया में योगदान देने की अपेक्षा रही है। इस विषम-वेला में जब सारे विश्व में तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं- अनीति का आतंक चरम सीमा पर है- पग-पग पर अवरोध नजर आते हैं। समर्थ प्राण-प्रत्यावर्तन हेतु, अपनी ऊर्जा -शक्ति को बढ़ाने के लिये हर किसी को शाँतिकुँज आने का आमंत्रण है- 1 जुलाई से आरम्भ होने वाले 9 दिवसीय ऊर्जा अनुदान सत्रों भागीदारी करने के निमित्त 2 मास के तीर्थ सत्रों के बाद ये अब पुनश्च आरम्भ हो रहे हैं। साधना द्वारा आत्मबल सम्वर्द्धन कर ही अगले दिनों की विभीषिकाओं से जूझा जा सकेगा। युग-संधि महापुरश्चरण में नियमित भागीदारी से गुरुसत्ता का प्राण-अनुदान निरन्तर इस तपस्थली से वितरित होता रहता है। आवश्यकता मात्र केन्द्र से स्वयं को जोड़े रखने की है। समयदान-अंशदान-नियमित उपासना स्वाध्याय, सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन की सेवा-साधना जैसे अनिवार्य अनुबंधों में जो प्रमाद और उपेक्षा बरतेगा उसके विषय में पूज्य गुरुदेव का कहना है कि “उसे शाँतिकुँज की संचालक शक्ति झकझोरेगी। उसके कान उमेठेगी और बाधित करती रहेगी। हर व्यक्ति जुड़कर एवं सक्रिय रहकर ही चैन से बैठ सकेगा ।” क्या हम प्रस्तुत व्यास पूर्णिमा पर्व पर संबंधों की सघनता एवं सक्रियता का अनुपात बढ़ा सकते हैं- यह प्रश्न सभी के लिये है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यही हमारी गुरुभक्ति का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप हो सकता है।


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