गुरुकृपा अहं की मुक्ति पर ही सम्भव

July 1997

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युगावतार के पट्टणधरदस्वयं को त्रैलोक्य गुरु भगवान महावीर अनन्यतम एवं निकटतम शिष्य कहाने वाले प्रभुपाद गौतम आज निराश थे। उनके चेहरे पर चिन्ता व हताशा की रेखाएँ स्पष्ट थीं। जो कुछ घटा -उससे उनका अहं आहत होकर रह गया। अभी दो ही दिन पहले भगवान महावीर से आज्ञा लेकर वे साल और महासाल के साथ पृष्टचम्पा पहुँचे थे।

पृष्ठचम्पा में राजा गागली ने बड़े भक्तिभाव से उनका वन्दन-पूजन किया सारे नगर जन भी उनके दर्शन-वन्दन को आए। यशोमती और पिठर भी उनके चरणों में प्रणत हो, उनके सम्मुख बैठ गये। इन्हीं सबके बैठा था गागली। देवोपनीत सुवर्ण कमल पर आसीन देवार्य गौतम ने महावीर का संदेश सुनाया। यह धर्मवाणी सुनकर यशोमती, पिठर और गागली को लगा कि उनके भीतर सदा -वसन्त फूलों के वन हैं और बाहर के संसार में पतझर ही पतझर हैं। भीतर का रतिसुख इतना सघन लगा कि बाहर से मन आपोआप विरत हो गया। पृष्टचम्पा का राज्य प्रजा को अर्पित कर राजा गागली माता-पिता सहित गौतम के अनुगामी हो गये।

साल, महासाल, गागली यशोमती और पिठर ये पांचों चम्पा के मार्ग पर उनके पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए चुपचाप चल रहें थे। उन पांचों की चेतना इस समय एक ही महाभाव में एकत्र और साम्वादी हो रही थी। इन पांचों को महावीर की वाणी पर मनन करते हुए हठात लगा की भीतर एक ऐसा आलोकन है कि बाहर का अवलोकन अनावश्यक हो गया हैं। वे एक ऐसे अन्तरसुख में मगन हो गये कि उन्हें कैवल्य और मोक्ष की भी कामना न रही।

चम्पा पहुँचकर अपने पांचों शिष्यों सहित गौतम भगवान महावीर के समवसरण में यों आते दिखाई, पड़े जैसे वे पाँच सूर्यों के बीच खिले एक सहस्रार कमल की तरह चल रहे हों। पांचों शिष्यों ने गुरु को प्रणाम कर आदेश चाहा। शिष्यों के इस तरह आदेश माँगने पर उन्हें अपने गुरु होने के गर्व की अनुभूति हुई। हर्ष से गर्वित होकर गौतम उन्हें श्रीमण्डल में प्रभु के समक्ष लिवा ले गए। फिर आदेश दिया कि आयुष्मान् मुमुक्षुओं ! श्री भगवान का वन्दन करो।

वे पाँचों गुरु आज्ञापालन करने को उद्यत हुए कि हठात् शास्ता महावीर की वर्जना सुनाई पड़ी।

केवली की अशातना न करो गौतम। ये पांचों केवल ज्ञानी अर्हन्त हो गए हैं। अर्हन्त, का वन्दना नहीं करते।

तत्काल गौतम ने अपने अज्ञान का निवेदन कर अपने शिष्यों से क्षमायाचना की। परन्तु इससे उनका अहं भारी आहत हुआ। वे खिन्न मन सोचने लगे-मेरे मुख से प्रभु की धर्मप्रज्ञप्ति सुनकर इन पांचों आत्माओं ने क्षणमात्र में कैवल्य ज्ञान प्राप्त कर लिया, पर मैं स्वयं कारा ही रह गया। शिष्य गुरु हो गये, गुरु को शिष्य हो जाना पड़ा। उसे अपने ही शिष्यों के सामने नतमस्तक होना पड़ा गौतम का मन गहरी व्यथा से विचलित हो गया। प्रभु के अनन्य प्रियपात्र और पट्टगणधर होकर भी वर्षों प्रभु के साथ-साथ रहते हुए भी अर्हन्त की कैवल्य कृपा उन्हें प्राप्त न हो सकी और इसी बीच कई आत्माएँ प्रभु के समीप आकर अर्हन्त पद को प्राप्त हो गयी।

क्या मुझे कभी कैवल्य ज्ञान प्राप्त होगा ? क्या मुझे इस भव में सिद्धि नहीं मिलेगी?

तभी गौतम को अचानक याद आया, बहुत पहले उन्हें एक देववाणी सुनायी पड़ी थी। उसमें कहा गया था कि कोई व्यक्ति यदि अपनी लब्धि के बल अष्टापद पर्वत पर जाकर वहाँ विराजमान जिनेश्वरो को नमन करें और वहाँ एक रात्रि वास करे, तो उसे इसी जन्म में सिद्धि प्राप्त हो सकती हैं।

त्रिलोक गुरु महावीर स्वयं गौतम एकमेव गुरु हैं। उनके होते हुए यह देववाणी और अष्टापद यात्रा ? ऐसी बात वह प्रभु से परे कैसे ? गौतम अन्यमनस्क और उदास हो गये। वे बड़ी उलझन में पड़ गये। श्रीभगवन्त ने उनकी पीड़ा को देख लिया। तत्काल आदेश दिया। देवानुप्रिय गौतम दुःखी मत हो। जाओ अपने मन की अभिलाषा पुरी करो। गौतम की आंखों में पराप्रीति के आँसू छलक आये। मेरे प्रभु कितने सम्वेदी है, वे मेरे हर मनोभाव में मेरे साथ हैं। मेरे मन की हर साध बिन कहे ही पूरी कर देते हैं।

प्रभु की पादवन्दना कर तत्काल श्रीपाद गौतम समवसरण से प्रस्थान कर गए और चरणऋद्धि की सामर्थ्य से वायु वेग के साथ कुछ समय में अष्टापद पर्वत के समीप आ पहुँचे। उस काल उस समय कौडिन्य, दत्त, शैवाल आदि पन्द्रह सौ तपस्वी अष्टापद को मोक्ष का हेतु सुनकर, उस गिरि पर चढ़ने का पराक्रम कर रहे थे। उनमें से पाँच सौ तपस्वी चतुर्थ तप करके आद्र कन्दादि का पारण करते हुए भी अष्टापद की पहली मेखला तक ही जा सके थे। दूसरे पाँच सौ तपस्वी छट्ठ तप करके मात्र सूखे कन्दादि का पारण करते हुए भी उस गिरि की दूसरी मेखला तक ही पहुँच सके थे। तीसरे पाँच सौ तापस अट्ठम् तप करके सूखे शैवाल का पारण करके भी तीसरी मेखला से आगे न जा सके थे। इससे अधिक तपस्या की सामर्थ्य न होने से वे तीनों मेंखलाओं में ही रुको पड़े थे। उनके मन में ही रुके पड़े थे। उनके मन में प्रश्न था कि क्या केवल तपस्या से ही चुडान्त पर पहुँचा जा सकता है ? उनमें बोध सा जग रहा था कि कोरा कायक्लेश मोक्ष लाभ नहीं करा सकता।

तभी उन्होंने अचानक देखा की तप्त सुवर्ण के समान काँतिमान, एक पुष्टकाय महाशाल पुरुष वहाँ आकर पर्वतपाद में उपविष्ट हुए हैं। पर्वत के समक्ष वे कायोत्सर्ग में लीन हो गये हैं। उन्हें अष्टापद पे चढ़ने को उद्यत देख, वे तापस परस्पर कहने लगे, हम कृशकाय होकर भी तीसरी मेखला से आगे न जा सके तो ये विपुल शरीर महाकाय पुरुष कैसे ऊपर कैसे चढ़ सकेंगे ? वे प्रश्न ही करते रहे और उधर गौतम न जाने कब उस महागिरि पर चढ़ गए और वे देव के समान उनकी आंखों से अदृश्य हो गए। तब उन सब को निश्चय हो गया कि इन महर्षि के पास कोई महाशक्ति हैं, सो उन्होंने निर्णय लिया कि जब ये महापुरुष लौटकर नीचे आयेंगे तब हम सब इनको गुरु रूप में स्वीकार कर इनका शिष्यत्व ग्रहण कर लेंगे और वे पर्वत चूल पर एकाग्र ध्यान लगाए गौतम की प्रतीक्षा करने लगें।

उधर गौतम लब्धिबल से क्षणमात्र में ही अष्टापद पर्वत की चूड़ा पर जा पहुँचे थे। वहाँ उन्होंने शाश्वत विद्यमान चौबिस तीर्थ-करों के अकृतिम और आकाशगामी, उत्तान खड़े दिव्य बिम्बों का बड़े भक्तिभाव से वन्दन किया। उन्हें प्रतीत हुआ, मानो नन्दीश्वर द्वीप के भरतेश्वर द्वारा बनवाए हुए चैत्य में उन्होंने प्रवेश किया हो। चैत्य में से निकलकर गौतम एक विशाल अशोक वृक्ष के नीचे विराजमान दिखाई पड़ें। वहाँ अनेक सुरों-असुरों और विद्याधरों ने उनकी वन्दना की। गौतम ने उनके योग्य महावीर की वाणी उन्हें सुनायी। जिससे उनके कई निरंतर प्रश्नों का समाधान हो गया। वहाँ एक रात्रि परमध्यान में निर्गमन करके प्रातःकाल वे पर्वत से उपदत्याका में उतर आए।

तब वे सारे तपस प्रभुपाद गौतम के समीप सिमट आए। उन्होंने स्वयं ही जिज्ञासा जान ली। सम्यक् दर्शन, ज्ञान-चारित्र्य की महिमा का प्रतिबोध देकर गौतम बोले-परम कल्याण बरेषु तापसो। देह की स्थूलता और क्षीणता चेतना के ऊर्ध्वगमन की निर्णायक नहीं। साधक की आत्मशक्ति के विकास पर ही यह निर्भर करता है। आत्मजयी अर्हत् देह में विद्यमान होकर भी देहातीत विचरते हैं।

चरित्र्यशुद्धि के कारण भावदलिंगी यतियों की चेतना में जब महाभाव अवलोकित हो उठता है तो उनके निकट ऐसी दैवी ऋद्धियाँ स्वतः सहज ही प्रकट हो उठती हैं, जो मानुषी अवस्था में सम्भव नहीं। ये ऋद्धियाँ और लब्धियाँ उन मुनि-भगवन्तों का काम्य नहीं, लक्ष्य नहीं, प्रयोजन नहीं। वे आप ही मानों उनकी चरण-चेरियाँ होकर उनकी सेवा में उपस्थित रहती हैं। आत्मकल्याण हेतु कभी-कभी वे स्वयं ही मुनीश्वर की सहायक हो जाती हैं। अणिमा और महिमा ऋद्धि पलमात्र में देह को लघु या गुरु कर देती हैं, तब चैतन्य के ऊर्ध्व आरोहण में देह दासी की तरह अनुगमन कर जाती हैं। मैं खेल ही खेल में कैसे इस महागिरि पर चढ़कर उतर आया, यही तो तुम सबकी जिज्ञासा थी।

श्रीपाद गौतम के ऐसे वचन सुनकर पन्द्रह सौ तापस चकित, निःशब्द, निर्मन से हो रहे। फिर उन्होंने एक स्वर में निवेदन किया-हे महायतिन्! हम सब श्री चरणों में समर्पित हैं। आप हमारे एकमेव श्रीगुरु हो जाएँ और हमें अपने शिष्य रूप में ग्रहण करें।

तापसों के इस कथन पर उनके गुरु होने का गर्व फिर अंगड़ाइयाँ लेने लगा। महावीर के परम नजदीकी होने का अभिमान विषधर नाग की भाँति फुँफकार उठा। वे हर्ष में मन होकर कुछ सोचने लगे।

तभी सारे तापस एक स्वर में बोले, हे महाभाव मुनीश्वर ! हम सबको भी अपने जैसा ही दिगम्बर बना लें। हमसे ऊब आपके अनुगमन के लिए प्रस्तुत हैं।

तपसों की प्रबल अभीप्सा और अटल आग्रह देख श्री गुरु गौतम प्रसन्न हुए, उन्होंने सहर्ष उन्हें दिगम्बरी शिक्षा दे दी। अदृश्य देवशक्ति ने उन्हें पिच्छी कमण्डलु प्रदान किये, फिर विन्ध्यागिरि में जैसे यूथपति महाहस्ति के साथ दूसरे हाथी चलते हैं वैसे ही भदन्त गौतम अपने गुरुपद पर प्रफुल्लित होते हुए पन्द्रह सौ शिष्यों के साथ श्री भगवान के समवसरण की दिशा में प्रस्थान कर गये। चलते-चलते गौतम को न जाने क्या सूझा कि उन्होंने राजमार्ग छोड़कर अरण्य की राह पकड़ी। तापस निःशंक होकर अपने गुरु का अनुगमन करने लगे। जाने कबसे वे दीर्घ और कठिन तपस्या कर रहे थे। गुरु प्राप्ति के उल्लास से उन्हें एक अपूर्व और तीव्र भूख लग आयी थी। खूब प्यास भी लग रही थी। गौतम अपने शिष्यों की इस ऐषणा को जान गए। एक स्थान पर रुककर उन्होंने आदेश दिया-

देवानुप्रियों, आहार की बेला हो गयी। स्थिर खड़े होकर अपनी अंगुलियाँ ऊपर उठाओ। आहार-जल प्रस्तुत है।

वे पन्द्रह सौ श्रमण पहले तो सुनकर अवाक् रह गये, इस जनहीन अरण्य में आहार जल कैसे ? लेकिन अगले ही क्षण उनका प्रश्न और विकल्प जाने कहाँ विलीन हो गया। वे भीतर-बाहर निरे शून्य रह गये।

तभी उन्हें सुनाई पड़ा- आयुष्मान् आहार-जल ग्रहण करो।

तापस उन्मन हो पाणिपात्र उठा आहार-जल ग्रहण करने को उद्यत हो गये। उन्होंने देखा कि जाने कहाँ से उनकी अंगुलियों में प्रासुक जलधारा बहने लगी। वे जल पीकर शान्त हो गये। मानों प्यास सदा को बुझ गयी।अचानक उनके उठे हाथों में दिव्य केशर सुरभित पायस ढलने लगा। उन्होंने जीभर कर मधुर पायस का आहार किया। मानों उनकी भूख सदा के लिए मिट गयी। और उन पन्द्रह सौ तापसों ने अनुभव किया कि जैसे उन पन्द्रह सौ तापसों ने अनुभव किया कि जैसे उनका शरीर अनायास परिमल की तरह हल्का और व्याप्त हो चला है। भीतर के पोर-पोर में शून्य उभर रहा है। बाहर भी सब कुछ एक शून्य गहराता जा रहा है। औचक ही उनको लगा कि उनका मैं विलुप्त हो गया है। प्रथम पुरुष भी नहीं, द्वितीय पुरुष भी नहीं, बस निरे पन्द्रह सौ तीसरे पुरुष बिना किसी आयास के स्वतः संचालित चले जा रहे हैं। कर्ता भी नहीं, भोक्ता भी नहीं, व्यक्ति भी नहीं। हठात् उन सबको सम्वेदांत हुआ कि उनके भीतर न जाने कितने सूर्यों की नदी-सी बह रही है।

परम मुहूर्त घटित हुआ। सभी पन्द्रह सौ तापसों को दूर से ही प्रभु के अष्ट प्रतिहार देखकर उज्ज्वल कैवल्य ज्ञान उत्पन्न हो गया।निमिष मात्र में वे कैवल्य से प्रभास्वर हो उठे। समवसरण के श्रीमण्डप में पहुँचकर देवार्य ने विधिवत तीन प्रदक्षिणा देकर श्रीभगवान का त्रिवार वन्दन किया। उनके पीछे खड़े तापसों का देहभाव अनायास चला गया। वे वन्दना-प्रदक्षिणा से परे चले गए। वे कायोत्सर्ग में लीन हो निश्चल ध्रुवासीन हो रहे और विपुल मात्र में अर्हन्त महावीर के साथ तदाकार हो गये।

तभी गुरुभाव के दर्प में गौतम ने पन्द्रह सौ शिष्यों को आदेश दिया। महाभाग तापसो श्री भगवान की वन्दना करें।

तत्काल प्रभु ने वर्जना का हाथ उठाकर निर्देश किया:- केवली की आशातना न करो, आयुष्मान् गौतम! क्वली, केवली की वन्दना नहीं करते। ये पन्द्रह सौ तापस कैवल्य लाभ कर अर्हन्त हो चुके हैं। अर्हन्त, अर्हन्त को प्रणाम नहीं करते, वे परस्पर एक दूसरे के दर्पण होते हैं।

सुनकर गौतम की व्यथा फिर जाग उठी। वे फिर से आहत हो गये। मेरे ही द्वारा प्रतिबोधित दीक्षित मेरे पन्द्रह सौ शिष्य भी केवली हो गए और मैं स्वयं निरा ठूँठ ही रह गया। प्रभु के निकटतम होते हुए भी मैं अभी तक कैवल्य न पा सका। तभी अचानक श्री भगवान का स्वर सुनाई पड़ा:- देवानुप्रिय गौतम ! तुम मेरे निकट रहे ही कब?

इस प्रश्न ने भगवत्पाद गौतम को चौंका दिया। क्योंकि वे तो स्वयं को प्रभु के सबसे अधिक नजदीक मानते थे। उनकी इस सोच से असम्प्रक्त युगावतार कहे जा रहे थे, तुम मेरे नजदीक न रहकर केवल अपने अह के नजदीक ही जीते रहे हो। इसी अह के वशीभूत होकर तुमने अज्ञानी होते हुए भी गुरुपद स्वीकार किया।कैवल्य ज्ञान से विहीन होते हुए भी तुमने बहुसंख्यकों को दीक्षा दी। हाँ यह बात अलग है कि उनमें से जिन्होंने भी महावीर की वाणी का मर्म समझा, महावीर के विचारों से आत्मसात् कर सके, वे कैवल्य ज्ञानी हो गये।

लेकिन प्रभु आप के विचारों पर ही तो मैंने प्रवचन दिये हैं। गौतम के स्वर में असमंजस था।

तुमने सिर्फ प्रवचन किये हैं। तुम जो कुछ बोलते हो, तुम्हें उस पर विश्वास रहा ही कब है। अविश्वास में जी रहे हो देवानुप्रिय! यदि तुम्हें महावीर में विश्वास होता तो अष्टपाद पर्वत की ओर न भागकर महावी के बताये हुए मार्ग का अनुसरण करते।

लेकिन मैं तो आपका उत्तराधिकारी पट्टगणधर हूँ भगवन्। गौतम की आवाज में कँपकँपी थी।

महावीर का कोई उत्तराधिकारी नहीं हो सकता, भदन्त। अवतारी चेतना का उत्तराधिकारी होने की सामर्थ्य भला किसमें हो सकती है। तुम्हें सिर्फ एक कर्तव्य सौंपा गया है। तुम मुझे पुत्र की भाँति प्रिय हो और इसी रूप में तुम्हें भौतिक विभूतियाँ मिली हैं। जबकि कैवल्य ज्ञान का अधिकारी तो सिर्फ शिष्य होता है। यदि शिष्य सच्चा और योग्य हो तो अयोग्य गुरु का संपर्क भी उसे कैवल्य लाभ दे देता है।तुम एवं तुम्हारे शिष्य स्वयं इसके उदाहरण हैं। परन्तु गुरु कितना भी योग्य हो लेकिन यदि शिष्य अयोग्य, दम्भी और अहंकारी है तो कुछ भी सम्भव नहीं। तुम आत्मावलोकन करो वत्स।

प्रभु के इस कथन ने भगवत्पाद गौतम का विवेक जाग्रत कर दिया। उन्हें शिष्यत्व की महिमा और गुरु से यथार्थ निकटता का मर्म समझ में आने लगा।


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