चतुर्थ आयाम में होता है देवात्मा हिमालय का रहस्यबोध

July 1997

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हिमालय ऐसा दिव्यलोक है, जो पृथ्वी पर होते हुए भी सभी देवताओं की भ्रमण स्थली है। सभी ग्रहों और लोकों के निवासी यहाँ सहज विचरण करते हैं। यहाँ के रहस्यों और आश्चर्यों का पार नहीं हैं। सूक्ष्म शरीरधारी ऋषियों, मुनियों, दीर्घकाल तक देह धारण करने वाले सिद्धों की अलौकिक लीलाएँ यहाँ के कण -कण में बिखरी हैं। ऐसे रहस्य लोक हिमालय से प्यार परम पूज्य गुरुदेव के संस्कारों में सँजोया था। जन्म-जन्मान्तर के संस्कार मनुष्य के विचारों, प्रवृत्तियों एवं कर्मों में सहज अनुभूत होते हैं। बरबस ही वह अपने संस्कारों के अनुरूप बनते-ढलने चलने बढ़ने और कुछ वैसा ही कर गुजरने के लिए आतुर होने लगता है। गुरुदेव में भी बचपन से कुछ ऐसी ही आतुरता और उतावली थी। उनके मन में उमंगें उठती रहती थी।

जब उनके खेल-कूद के दिन ही चल रहे थे एक दिन अनायास ही वे घर से निकल गये। काफी समय तक उनके अभिभावकों ने जब इधर-उधर घर के आस-पास नहीं देखा तो उन्हें भारी चिन्ता हुई। पूज्यवर की माताजी जिन्हें वे ताईजी कहते थे, अपने श्रीराम को न पाकर बिलख पड़ीं । बहुत खोज खबर के बाद उन्हें गाँव से 5-6 मील दूर एक स्टेशन से पकड़ा जा सका। पूछने पर उस समय उन्होंने इतना ही कहा -”हमारा घर तो हिमालय हैं, वही जाना हैं यहाँ रहकर क्या करेंगे ?” आठ वर्ष के बालक के मुँह से निकली हुई यह बात उनकी खोज करने वालो को महत्वहीन लगी। उन्हें धमकाया गया। घर वापस आने पर जब ताईजी ने जब उनको फुसलाते हुए पूछा, तब उन्होंने बताया कि रात में सो जाने पर सपने में उन्हें श्वेत-धवल विशालकाय पर्वत की चोटियाँ दिखती हैं। इन चोटियों पर एक नहीं कई दीर्घकाय अद्भुत ढंग से चमकते हुए साधु-सन्त नजर आते हैं। अक्सर वे हमें बुलाते हैं, बस इसी कारण मैं उनसे मिलने के लिए जाने वाला था। उनके बचपने की बातें सुनकर ताईजी को अहसास हो गया कि यह कोई हिमालय के दिव्य सन्तों का अभिन्न आत्मीय हैं, जो वहाँ जाने, उनसे मिलने की लौ लगाए हुए हैं।

अपने बाल्यकाल में तो वे हिमालय नहीं जा सके, पर उनके सपनों, अनुभूतियों में देवात्मा हिमालय अवश्य अपनी मनोरम आभा बिखेरता रहता। हिमालय निवासी सिद्धों-सन्तों की आत्माएँ उन्हें अपने अपनत्व एवं प्यार से भिगोती रहतीं। पर यह सब होता अप्रत्यक्ष था। एक दिन वह भी पुण्य घड़ी आई जब हिमालय के रहस्य उनके अपने ही घर में घनीभूत हो उठे। उन दिनों वह पन्द्रह वर्ष परे करके सोलहवें में पदार्पण कर रहे थे। अपने उपासना गृह में एक दिव्य प्रकाशवान देखा, जो बाहर से घनीभूत होता हुआ उनके शरीर, मन और अन्तःकरण में समा गया। उन्हें आत्मबोध, अन्तःस्फुरणा, दिव्य अनुग्रह, गुरुदर्शन, आन्तरिक दिव्यता या जो कुछ कहा जाए प्राप्त हुआ।

यह उनका हिमालय निवासी किसी अलौकिक सत्ता से प्रत्यक्ष रूप से प्रथम परिचय था। अब तक उन्हें हिमालय के सन्तों की संगति स्वप्नों में मिलती थी, किन्तु आज प्रत्यक्ष हुई। उसी दिन उन्हें यह बताया गया कि भौतिक रूप से इस दिव्य सत्ता का निवास उस प्रदेश में हैं, जिसे चेतना का ध्रुव प्रदेश या हिमालय का हृदय कहा जाता है। यह स्थूल भी हैं सूक्ष्म भी। इस प्रकाश का स्थूल प्रतीक एक ऐसे सिद्धपुरुष का शरीर हैं जो चिरकाल से नग्न, मौन, एकाकी, निराहार रह कर अपने अग्नि-अस्तित्व को अधिकाधिक प्रखर, प्रचण्ड बनाते चले जा रहे हैं।

वे हिमालय की दिव्य विभूतियों में से एक हैं। वहीं हिमालय को देखने भर से निर्जीव और जड़ मालूम पड़ता है। लेकिन वस्तुतः उसकी चेतना और प्रेरणा अद्भुत हैं। अपनी पुरश्चरण शृंखला के बीच में ही पहली बार हिमालय यात्रा का सौभाग्य प्राप्त हुआ। चिरकाल से जिसे वे अपने स्वप्नों में देखते रहते थे, उसे प्रत्यक्ष-साक्षात् देखकर उनकी विह्वलता का ठिकाना न रहा। बस उन्हें ऐसा लगा मानो कैलाशपति शंकर ने स्वयं पर्वत का आकार धारण कर लिया हो। उनके गुरुदेव ने इसकी दिव्यता का स्पष्टीकरण देते हुए कहा- कि पृथ्वी की भौतिक शक्तियों का शक्ति केन्द्र ध्रुव प्रदेश में सन्निहित हैं। ब्रह्माण्ड के सुर्य की शक्तियाँ पृथ्वी में ध्रुव प्रदेश के मध्यम से आती हैं। ठीक उसी प्रकार दिव्यलोकों की चेतना-शक्तियाँ पृथ्वी पर यहीं अवतरित होती हैं। जहाँ हिमालय का हृदय अवस्थित हैं, जहाँ हिमालय का हृदय अवस्थित हैं, यहीं से सर्वत्र बिखर जाती हैं।

दादा गुरुदेव ने उन्हें बतलाया-यही चेतना का ध्रुव केन्द्र हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से धरती का स्वर्ग यहीं था। इसे बद्रीनाथ और गंगाजी का मध्यवर्ती अधिक ऊँचाई का, तिब्बत का समीपवर्ती भाग कहना चाहिए। देवताओं का निवास स्थान सुमेरु यहीं हैं। पाण्डव स्वर्गारोहण के लिए यहीं गये थे। असली कैलाश मानसरोवर वे नहीं जो चीन में चले गए वरन् वे हैं जो गंगा के उद्गम गोमुख से आगे शिवलिंग पर्वत और दुग्ध सरोवर के नाम से जाने जाते हैं फूलों से लदा हुआ नन्दन वन यहीं हैं। देवता यहीं भ्रमण करते हैं, परन्तु उन्हें दिव्यदर्शी ही प्रत्यक्ष रूप से देख सकते हैं। इस हिमालय के हृदय में न केवल परिस्थितियाँ बल्कि ऐसी शक्तियाँ और आत्माएँ भी विद्यमान हैं, जो में आने वालों को आत्मिक अलौकिकता का भरपूर आभास करा सकें।

सामान्य क्रम में इस शक्ति-केन्द्र तक पहुँच जाना तथा वहाँ ठहर सकना ध्रुव प्रदेशों से भी कठिन हैं कभी न गलने वाली बर्फ और ऊँचाई में आक्सीजन की कभी, रास्तों का न होना, निर्वाह की सभी आवश्यकताओं का पूर्णतया अभाव, यह सब अवरोध तो वहाँ जाने से रोकते ही हैं। चेतना दिव्यशक्तियों की तीखी ब्रह्माण्ड किरणें जो धरती पर फैलने के लिए बरसती हैं, वे भी सामान्य शरीर के लिए सहन नहीं। इसीलिए वह प्रदेश न केवल प्रकृति ने बल्कि हिमालय निवासी दिव्य सन्तों की अदृश्य प्रेरणा से सरकार ने भी आवागमन के लिए संपर्क निषिद्ध ठहराया है। यह स्थान दिव्य सत्ताओं की क्रीड़ास्थली के लिए सुरक्षित है, सामान्य शरीर लेकर न वहाँ जाया जा सकता है और न ठहरा जा सकता है।

इसके नीचे का उत्तराखण्ड के नाम से प्रसिद्ध यातायात सम्भावनाओं वाला सुलभ हिमालय प्रदेश भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। अपनी तप-साधना का केन्द्रबिन्दु गुरुदेव ने जिस हिमालय को बनाया, वह चेतना का ध्रुव केन्द्र भी रहा और सुलभ हिमालय का प्रदेश भी। उनकी तीन हिमालय यात्राएँ तो अखण्ड-ज्योति के पाठकों को सुविदित ही हैं। लेकिन इसके अलावा वे समय-समय पर कम या अधिक समय के लिए चौबीस पुरश्चरणों के बीच में तथा बाद में जाते रहे हैं। जब हिमालय की दिव्य सत्ताओं से मिलने की उत्कण्ठा हुई, वे सीधे हिमालय की ओर चल पड़े। ये यात्राएँ कितनी ही बार कई-कई महीनों के लिए हुईं। वे हर बार वहीं से नई सामर्थ्य व स्फूर्ति लेकर लौटे।

इनमें से सर्वाधिक रहस्यमय प्रसंग उन यात्राओं के मध्य घटित हुए, जब वे हिमालय के हृदय-स्थल में पहुँचे। यह दिव्य क्षेत्र आज भी सप्तऋषियों के, अगणित तपस्वियों, की तपोभूमि बना हुआ है। एक प्रसंग में उन्होंने बताया था कि इन दिनों भी वहाँ 18,000 विशिष्ट आत्माएँ लोककल्याण एवं सृष्टि-संचालन के लिए तप में संलग्न हैं। पहले कभी यहीं व्यास जी ने अठारह पुराण लिखे थे। आदि गुरु शंकराचार्य ने प्रायः अपने सभी भाष्य यहीं बैठकर लिखे। वैदिक भारत में प्राचीन ऋषियों द्वारा आर्ष साहित्य का सृजन यहीं हुआ। चिरअतीत से भारत की आध्यात्मिक परम्पराओं का सूत्र-संचालन यहीं से होता रहा है। शिव-पार्वती का, देवसेना का निवास यहीं है, यह केवल प्राचीन मान्यता नहीं बल्कि दिव्यदर्शियों के लिए सत्य है। आध्यात्मिक एवं ऐतिहासिक स्तर पर इस भूमि की अपनी महत्ता है। अन्यत्र जो साधन देर में सफल होते हैं, इस उर्वरा भूमि में जल्दी उगते और फलते-फूलते हैं।

हिमालय के हृदय से सूक्ष्म सम्बन्ध गुरुदेव का जन्म-जन्मान्तर से है। हाँ स्थूल शरीर से उन्होंने उत्तराखण्ड में और उसके आगे पड़ने वाले रहस्यमय क्षेत्र में साधना काल का बहुत-सा भाग लगाया है। पहली बार की हिमालय यात्रा के प्रसंगों की चर्चा करते हुए उन्होंने वन्दनीया माताजी से कभी कहा था, उन्हें हिमालय जाकर अपने पूर्व जन्मों की स्थानों के साथ उनकी मधुर स्मृतियाँ उभर आयीं। उन्हें अपने चिर-परिचित घर की तरह लगा। जो रास्ते, घाटियाँ, परिस्थितियाँ स्थानीय लोगों तक को मालूम नहीं थीं, उन्हें अनायास मालूम पड़ गयीं। शायद यही कारण रहा होगा कि आठ वर्ष की आयु में घर से हिमालय भागने की धुन सवार हुई थी।

और जब पहली बार उन्हें स्वप्नों में देखे गए श्वेत धवल शिखर को प्रत्यक्ष रूप से देखने, छूने, अहसास करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ तो वे भावविह्वल हो गए। यात्रा की अनेक कठिनाइयों को पार करते हुए उन्होंने तपोवन पार किया। आगे पहाड़ियों की ऊँची शृंखला शुरू होती थी। उस शृंखला को पार कर आगे जाना था। पास में कोई नक्शा या संकेत जैसी कोई चीज नहीं थी। लेकिन लगा नहीं कि कहाँ भूलना-भटकना पड़ा हो। अन्तः-प्रेरणा इस तरह मार्गदर्शन करती रही, जैसे यह रास्ता पहले से ही देखा हुआ हो।

तपोवन से आगे की पहाड़ियों की शृंखला समाप्त हुई। गोमुख तक तो कुछ साधु-सन्त मिलते गए-लेकिन उसके आगे का क्षेत्र सर्वथा जन-शून्य था। जो मिले उसमें एक महात्मा रघुनाथ दास थे। वे अन्न नहीं लेते थे। गर्मी पड़ती तो उस क्षेत्र में हरे पत्ते मिल जाते थे। सर्दी में जब वनस्पतियाँ मुरझाने लगतीं, तो वे इन रूखी पत्तियों को आलू के साथ मिलाकर वर्षों से अपना काम चला रहे थे। उन्होंने गुरुदेव को बताया कि रास्ते में मिलने वाले पत्तों और फलों को बिना समझे-बूझे चखने की जरूरत नहीं। क्योंकि स्वाद में कोई पत्ता या फल मधुर या सुस्वादु लगने पर भी मुसीबत खड़ा कर सकता है। हो सकता है वह विषैला ही हो।

आगे एक संन्यासी स्वामी तत्वबोधानन्द मिले। वे सर्दी हो या गर्मी, खुले में ही रहते। कुटिया बना रखी थी, लेकिन उसका इस्तेमाल कम ही करते-कभी-कभार कोई भूला-भटका आ जाता तो दयावश उसे ठहरा देते। इनकी तपस्या एवं सदाशयता की सराहना करते हुए गुरुदेव आगे बढ़ गए। तपोवन के आगे गंगा ग्लेशियर से सटे हुए गौरी सरोवर पहुँचकर पूज्य गुरुदेव किन्हीं अनजानी स्मृतियों में खोने लगे। उन्हें ऐसा लगा जैसे वे यहाँ पहले भी कई बार आ चुके हैं। लेकिन फिर चेतन मन ने कहा कि हिमालय क्षेत्र की यह पहली यात्रा है। सरोवर की सुन्दरता निहारते हुए वे आगे बढ़े और चलते हुए नन्दन वन कब आ गया, कुछ पता ही न चला।

वहाँ पहुँचकर उन्हें ऐसा अनुभव हुआ, जैसे रोमांच से किसी ने पर्दा हटा दिया हो। अभी एक कदम दूर जिनके संकेत-चिन्ह तक नहीं दिखाई देते थे, वहीं विलक्षण दृश्य दिखाई दे रहे थे। पूरी घाटी में वेदमन्त्र गूँज रहे हैं-कहीं-कहीं यज्ञ धूम भी उठ रहा है। शास्त्रों एवं ग्रन्थों में वर्णित ऋषियों एवं देवताओं के दृश्य साकार हो गये। पलक झपकते ही प्रस्तुत हुआ यह दृश्य मायावी लग रहा था। आँखों पर विश्वास नहीं होता था। ऐसा भी नहीं था कि स्वप्न देख रहे हों। अब तक सम्पन्न हुई यात्रा की छोटी-से-छोटी बात याद थी। जाँचने के लिए एक बार पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि झील में वैसी ही लहरें उठ रही थीं और पानी हिलोरें ले रहा था। मन्त्र ध्वनि तब भी कानों में गूँज रही थी। नन्दनवन की ओर फिर मुड़े तो वैसा ही यज्ञ धूम्र यहाँ-वहाँ उठ रहा था। हवन कुण्ड में अग्नि की ज्वालाएँ भी उठ रही थीं।

अभी वह समझने के लिए बुद्धि पर जोर डाले इसके पहले ही सुदीर्घ दिगम्बर काया प्रकट होती दिखाई दी। उनके गुरुदेव सामने उसी रूप में खड़े थे, जिसे उन्होंने अपने घर में पूजा के समय देखा था। उनके भक्तिपूर्ण प्रणाम के उत्तर में उनके होठों पर मन्द-सी मुसकान फैल गई। उनके कौतूहल का निराकरण करते हुए दादा गुरुदेव ने कहा- तुमने जो दृश्य देखा, वह चेतना के चतुर्थ आयाम का है। हिमालय का वास्तविक और रहस्यात्मक सौंदर्य साधारणजन की आँखों से दूर है। इसे तो कोई बिरले समर्थ साधक अथवा जिन पर हिमालय निवासी दिव्य सन्तों की कृपा हो- वही देख पाते हैं।

विश्राम आदि के पश्चात् अगले दिन परमपूज्य गुरुदेव अपने मार्गदर्शक के साथ चेतना के चतुर्थ आयाम में दृश्य हिमालय के रहस्य का अवलोकन करते हुए आगे बढ़े। इस समय वे अपने गुरुदेव के साथ ही आकाश मार्ग से जा रहे थे। उनका शरीर धरती से पर्याप्त ऊपर था। इसी क्रम में वे उन गुफाओं तक पहुँचे जो वहाँ के सिद्ध पुरुषों की तपस्थली थी। अब ये ऋषिगण अपने सूक्ष्म शरीरों में थे। हालाँकि कुछ ने अपने स्थूल शरीर भी बनाए रखे थे। जिन सन्तों से मुलाकात हुई इनमें से किसी से भी बैखरी वाणी में बातचीत नहीं हुई। जो भी बात हुई वह सिर्फ परावाणी में।

जिन दिव्य सन्तों का सान्निध्य पर्याप्त समय तक तथा अधिक घनिष्ठ रूप से मिला उनमें से गर्ग मुनि, ऋषि धौम्य, सन्त पुण्डलिक, बाबा नरहरिदास, जीवानन्द, सिद्धेश्वर गिरि, पवहारी तथा स्वामी कृष्णानन्द प्रमुख थे। इन सबसे मिलकर उनको यह बोध हुआ कि वे भी इसी दिव्य परिवार का अभिन्न अंग हैं। इनके अलावा और भी दो दर्जन से ज्यादा सिद्ध सन्तों का सान्निध्य प्राप्त हुआ। इसी परिचय क्रम में पता चला कि गोविन्दपाद वही है जिन्होंने शंकराचार्य को समर्थ और योग्य बनाया था। इस परिचय में उन दिनों की स्मृतियों को साकार रूप दे दिया। इसी तरह जीवानन्द अपने में बौद्ध काल की अनुभूतियों को समेटे हुए थे। सबसे ज्यादा स्थूल और घनीभूत सान्निध्य स्वामी कृष्णानन्द से मिला। सामान्यजन के लिए प्रायः मौन रहने वाले कृष्णानन्द गुरुदेव के लिए पर्याप्त मुखर थे। अखण्ड-ज्योति के पाठक जानते ही होंगे कि इन्हीं स्वामी कृष्णानन्द ने महामना मालवीय जी के आग्रह पर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की आधारशिला रखी थी।

हिमालय के इन सभी दिव्य सन्तों का सान्निध्य पूज्य गुरुदेव की प्रत्येक हिमालय यात्रा में बना रहा। हर यात्रा उनके जीवन में अनेकों रहस्यपूर्ण एवं आश्चर्यजनक प्रसंग जोड़ती गयी। इन प्रसंगों की चर्चा करते हुए वे वन्दनीया माताजी से कहा करते थे कि हिमालय के दिव्य वातावरण में इन दिव्य सन्तों के साथ रहने से जीवन में दिव्य-स्फुरणा का संचार होता है। एक यात्रा में उन्हें अद्भुत अनुभूति हुई। पशु-पक्षी छोटे जीव-जन्तु यहाँ तक वृक्ष पौधों से भी संवाद स्थापित हो गया। कितने ही शाकाहारी और माँसाहारी पशु उनके घनिष्ठ मित्र हो गए। एक मादा रीछ तो बहुत ही हिल गयी। वह अपने छोटे बच्चों को झोंपड़ी के पास छोड़कर आहार की तलाश में चली जाती। बच्चे उनके पास में खेलत-उछलते रहते। पहले उस क्षेत्र में माँसाहारी पशु शाकाहारियों को आये दिन मारते खाते रहते थे, पर जितने दिन पूज्य गुरुदेव का वहाँ रहना हुआ, एक भी ऐसी घटना नहीं घटी।

यह स्थिति घर वापस लौटने तक बनी रही। अखण्ड-ज्योति संस्थान में पूज्य गुरुदेव के आस-पास के पशु-पक्षी उनके आस-पास फुदकने में प्रसन्नता अनुभव करते। हिमालय प्रवास में यह दशा इतनी सघन थी कि वन्य प्रदेश के सारे प्रणी उनके अपने स्वजन हो गये थे। कहते हैं कभी भरत सिंहनी के बच्चों के साथ खेलते थे, शिवाजी ने सिंहनी को दूहा था, संत ज्ञानेश्वर ने भैंसे से वेद उच्चारण कराये थे। ऋषियों के आश्रम में गाय और सिंह एक ही घाट पर पानी पीते थे। ये सारी कथाएँ एक साथ पूज्य गुरुदेव के हिमालय प्रवास में साकार हो उठती थीं।

इसी तरह अपने प्रवास काल में जब वे एक बार कुछ जड़ी-बूटियों की खोज में रास्ता भटक गये और अपने स्थान से बहुत दूर सम्भवतः बीस मील आगे निकल गये। रात बहुत हो गयी। हिंस्र पशुओं की आवाज गूँजने लगी। ऐसे समय में हिमालय के एक दिव्य देहधारी देवपुरुष ने उन्हें हाथ पकड़कर पाँच-सात मिनट में ही यथास्थान पहुँचा दिया। एक बार वर्षा के पानी से उनका निवास सब ओर से घिर गया। खाद्य पदार्थ सभी समाप्त हो गये। इसी समय हिमालय के एक सिद्ध सन्त का ज्योतिर्मय शरीर दिखाई पड़ा, उसने हाथ के इशारे से जमीन खोदने का संकेत किया। जैसे ही उन्होंने वहाँ जमीन खोदी-एक ऐसा मीठा और स्वादिष्ट कन्द निकला, जिसका वजन तकरीबन बीस सेर था। इससे कई दिनों तक आराम से निर्वाह किया जा सकता था।

एक बार गुरुदेव ने सारी जरूरत भर की निर्वाह राशि किसी विपत्तिग्रस्त को दे दी। पास में कुछ भी न रहा। लेकिन दूसरे दिन वहाँ की किसी अज्ञात शक्ति की अनुकम्पा से सिरहाने कामचलाऊ राशि मिल गई। उस क्षेत्र में निवास करने वाली दिव्य-आत्माओं का आभास और उनसे भेंट के सुयोग की कथाएँ कुछ ऐसी हैं कि उन अद्भुत अनुभवों को सुनकर किसी को जादू तिलस्म जैसी बातें याद आ जाएँ, पर वस्तुतः न तो इनमें अत्युक्ति हैं न अतिशयोक्ति। लेकिन भला उनके जैसा उच्च व्यक्तित्व ऐसी कौतूहल-वर्धक कथाएँ गढ़कर किसी को भ्रमित करने की चेष्टा क्यों करेगा ? फिर ये बातें उन्होंने सिर्फ वन्दनीया माताजी को ही बतायी थीं। इतने समय बाद इनकी चर्चा अखण्ड-ज्योति की इन पंक्तियों में की जा रही है। वह भी सिर्फ इसलिए कि हिमालय की दिव्यता को समझाया जा सके।

पूज्य गुरुदेव अपनी हिमालय यात्राओं में जिन सात अन्य विशेष विभूतियों के में आये, उनकी सृष्टि की सूक्ष्म व्यवस्था के संचालन में अतिमहत्वपूर्ण भूमिका है। उन्होंने ही अपने श्रीमुख से अपने निकट स्थजनों में किसी प्रसंगवश बताया था कि जिस तरह विभिन्न राष्ट्रों का कामकाज राष्ट्रपति-प्रधानमन्त्री एवं मन्त्रिमण्डल के सदस्य मिलजुलकर संपर्क चलाते हैं, उसी तरह सूक्ष्म जगत की भी एक सुचारु व्यवस्था है। यह कार्य सात ऋषिकल्प आत्माएँ करती हैं। इनका काम भगवान एवं माँ प्रकृति के कार्य में आवश्यक सहयोग देना है।

इन विशिष्ट दिव्यसत्ताओं का कार्य कुछ वैसा ही है, जैसी कि चर्चा पौराणिक कथाओं में सप्तऋषियों के संदर्भ में की गयी है। इनमें से एक हैं साउथ मारिया, जो दिखने में तकरीबन 70 वर्ष की आयु की महिला लगती हैं। ये अद्भुत तपस्वी है, अपनी तपस्या के कारण इन्हें हिमालय के दिव्यसत्ताओं के बीच श्रद्धास्पद सम्मान प्राप्त हैं। सूक्ष्म व्यवस्था के विशिष्ट घटकों में अन्य दिव्य सन्त हैं, अपने दादा गुरुदेव, स्वामी सर्वेश्वरानन्द जी, इनका कृशकाय शरीर अग्नि की प्रदीप्त ज्वाला की भाँति आभा बिखेरता है। इसके अलावा अन्य विभूति हैं, लाहिड़ी महाशय, जिन्होंने क्रियायोग का प्रवर्तन किया। मोहन साईं इस दिव्यमण्डल के अन्य घटक है, जो सतत् तप करते हुए अपनी ऊर्जा से जगत को अनुप्राणित करते रहते हैं। इनके अलावा हातोसाना और अशोक गिरि हैं। ये छहों दिव्य आत्माएँ प्रकृति की अधीश्वरी शक्ति की सहायक हैं। यह अधीश्वरी शक्ति ही सातवें ऋषि की भूमिका सम्पन्न करती हैं। ये सभी सात इन दिनों भगवान प्रज्ञावतार की सूक्ष्म-व्यवस्था के मूल्यवान एवं महत्वपूर्ण घटक हैं।

गुरुदेव के अनुसार इन सातों के सम्मिलन का स्थान स्थूल दृष्टि से बद्रीनाथ से केदारनाथ जाने का जो दुर्गम पगडंडी मार्ग प्रायः बीस हजार फीट की ऊँचाई पर है, उससे एकदम नीचे बीच में सप्त गुफाओं वाला क्षेत्र पड़ता है। सामान्यक्रम से किसी मनुष्य का वहाँ तक पहुँचना मुश्किल है। पहुँचने पर भी ये गुफाएँ तो देखी जा सकती हैं लेकिन वहाँ की इन शक्तियों को देख पाना सम्भव नहीं है। वैसे इन गुफाओं को न तो दूरबीन द्वारा दूर से न ही ग्लेशियो-लाजिस्ट गणों द्वारा ही देखा जा सकता है, लेकिन यथार्थ अवलोकन तो उसी के द्वारा सम्भव है जिसकी चेतना चतुर्थ आयाम को देख पाने में समर्थ है। गुरुदेव के अनुसार यथार्थ हिमालय का रहस्यबोध व्यक्ति को इसी आयाम में जाकर मिल सकता है।

हिमालय की दिव्य सत्ताओं के साथ गुरुदेव के अनेकों रहस्यमय प्रसंग हैं, हों भी क्यूँ न, आखिर वे भी तो इसी परिवार के सदस्य हैं। उन्होंने अपने शरीर छोड़ने से पहले वर्ष 1984 में अपने पाँच सूक्ष्म शरीरों का जिक्र करते हुए लिखा था कि उनका एक सूक्ष्म शरीर हिमालय में अनवरत तप करेगा। उनकी यह तप-प्रक्रिया आज भी मन्द नहीं पड़ी है। जिनके पास दिव्य दृष्टि है वे आज भी देख सकते हैं कि अपने सूक्ष्म शरीर से आज भी हिमालय की दिव्य सत्ताओं एवं सन्तों के संग नवयुग के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न कर रहे हैं।


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