परमपूज्य गुरुदेव के सपनों का भारत भारत को आजाद हो गया, पर क्या हम हार गए ?

July 1997

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आज से पचास वर्ष पहले जब समूचा राष्ट्र स्वाधीनता-प्राप्ति की खुशी मना रहा था, उस समय स्वतन्त्रता संग्राम के जुझारू सेनानी, अनन्य राष्ट्रभक्त परमपूज्य गुरुदेव किसी गहन चिन्तन में निमग्न थे। अखण्ड-ज्योति कार्यालय मथुरा के अपने एकान्त कक्ष में बैठे वह सोच रहे थे कि इस स्वाधीनता को पूर्ण कैसे किया जाय ? उनकी आँखें खुशी और गम आँसुओं से भीगी थीं। उन्हें खुशी थी, निश्चित ही बेहद खुशी, क्योंकि आज भारतमाता की गुलामी की बेड़ियाँ टूट गईं। वह आजाद हो गयीं। इस आजादी के लिए उन्होंने भी माँ भारती के अनेकों वीर सपूतों के साथ बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। लेकिन गम भी गहरा था। उनका हृदय असहनीय पीड़ा से व्याकुल था, क्योंकि यह खुशी विभाजित मिली थी। जिस महान देश को सदियों, सहस्राब्दियों तक अनेकों प्रयत्न करने के बावजूद विदेशी आक्रान्ता खण्डित न कर सके थे, उसे उसी की अपनी सन्तानों ने टुकड़ों में बाँट दिया। स्वार्थ और अहं की वृत्तियों के वशीभूत होकर अपनी ही माँ की छाती पर आरी चला दी। बात इतने तक ही सीमित न रही। कुछ ऐसे बीज बोए गए कि उनकी फसल उगते ही यह बँटवारा देश के हर गाँव तक पहुँच जाए। बँटवारा-जाति के नाम पर, धर्म, क्षेत्रीयता, भाषा के नाम पर कहीं अपना कुहराम मचाने लगे। स्वतंत्रता के जन्म के समय ही गुरुदेव ने अपनी अन्तर्दृष्टि से सारी स्थिति परख ली। उनकी आँखों में एक सपना था, भारत के नवनिर्माण का सपना। इसे साकार करने के लिए उन्होंने ‘युगनिर्माण आन्दोलन’ का सूत्रपात किया। इस आन्दोलन के माध्यम से उन्होंने नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति का बिगुल बजाया। इनसानी दिलों को जाड़ने वाली, मानवीय भावनाओं को समरस करने वाली साँस्कृतिक क्रान्ति का सूत्रपात किया। यह इस बात का स्पष्ट उद्घोष था कि देश को हम जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र के आधार पर हम बँटने नहीं देंगे। साथ ही हम सब देशवासी मिल-जुलकर अपनी स्वाधीनता को पूर्ण करते रहेंगे। इसके लिए उन्होंने सतत् तपोनिरत रहकर उन सभी सूत्रों की खोज की, जिसकी वजह से भारत कभी जगद्गुरु बना था, साथ ही उन्हें इस देवभूमि में बीजरूप से वे सारी सम्भावनायें नजर आयीं जिनके आधार पर भावी-परिवर्तन का अरुणोदय एवं नवनिर्माण का स्वप्न यहाँ से साकार हो सके। अपने उद्गार व्यक्त करते हुए उनके स्वर हैं, “भारतभूमि को कभी देवभूमि कहा जाता था। अपनी अगणित दिव्य विशेषताओं के कारण भारतवासी समस्त संसार में देवता कहलाते थे। वृहत्तर भारत की जनगणना तैंतीस कोटि थी ।वह प्रत्येक दृष्टि से स्वर्गादपि गरीयसी थी। यहाँ से नररत्न उपजते और पुण्य परमार्थ के लिए श्रम, समय, मनोयोग न्यौछावर करते रहे हैं। समस्त संसार को शासन-सूत्र-संचालन का बोध कराने के कारण भारत चक्रवर्ती कहलाया। उसके कारण विश्व में सम्पन्नता का उदय हुआ, इसलिए वह स्वर्ग-सम्पदा का अधिपति माना गया। ज्ञान-विज्ञान की अनेकानेक धाराओं से सुदूर देशों को अवगत कराने के कारण उसे जगद्गुरु का श्रद्धासिक्त सम्मान दिया गया।

लेकिन इस सम्मान को बनाए न रख सके। पूर्वजों की विरासत को उपेक्षित किया। अपनी कमियों कमजोरियों के चलते हम गुलाम हुए। कतिपय बर्बर आक्रान्त और कुछ मुट्ठी भर चतुर व्यापारी हमें अपने इशारों पर नचाते रहे। परन्तु जब राष्ट्रीय चेतना ने अंगड़ाई ली तो ये गुलामी की बेड़ियाँ तड़तड़ा कर टूट गयीं। हमें स्वतन्त्रता का गौरव हासिल हुआ। इसे पाकर हम सबको विचार करना है, आखिर इस स्वतंत्रता का वास्तविक सदुपयोग क्या हो सकता है? उत्तर एक ही होगा। व्यक्ति, परिवार राष्ट्र, समाज का भावनात्मक नवनिर्माण।”

युगनिर्माण आन्दोलन इसी भावनात्मक नवनिर्माण का गगनभेदी उद्घोष है। प्रकाश की यह एक प्रखर किरण जब मध्याह्न के प्रचण्ड सूर्य का रूप लेगी तो इसके प्रभाव से देखने वालों की आँखें चौंधिया जायेंगी। उनके अनुसार अभी भारत में हिन्दू धर्म में धर्ममंच से युग-निर्माण परिवार में यह मानव जाति का भाग्यनिर्माण करने वाला अभियान केन्द्रित दिखायी पड़ता है। पर अगले दिनों उसकी वर्तमान सीमाएँ, अत्यन्त विस्तृत होकर असीम हो जाएँगी। तब किसी एक संस्था-संगठन का नियन्त्रण-निर्देश नहीं चलेगा, वरन् कोटि-कोटि घटकों से विभिन्न स्तर के ऐसे ज्योतिपुञ्ज फूटते दिखाई पड़ेंगे जिनकी अकूत शक्ति द्वारा सम्पन्न होने वाले कार्य अनुपम और अद्भुत ही कहे-समझे जाएँगे। महाकाल ही इस महान परिवर्तन का सूत्रधार है और वही समयानुसार अपनी आज की मंगलाचरण थिरकन को क्रमशः तीव्र-से तीव्रतर, तीव्रतम करता चला जायेगा। ताण्डव नृत्य से उत्पन्न गगनचुम्बी जाज्वल्यमान आग्नेय लपटों द्वारा पुरातन को नूतन में परिवर्तन करने की भूमिका किस प्रकार, किस रूप में अगले दिनों सम्पन्न होने जा रही है, आज उस सबको सोच सकना, कल्पना-परिधि में ला सकना सामान्य बुद्धि के लिए प्रायः असम्भव ही है। फिर भी जो भवितव्यता है वह होकर रहेगी। युग को बदलना ही है, आज की निबिड़ निशा का कल के प्रभातकालीन अरुणोदय में परिवर्तन होकर ही रहेगा। भारत के नवनिर्माण को केन्द्र बनाकर नवनिर्माण के स्पन्दन समूचे विश्व में स्पन्दित होंगे। वह दिन दूर नहीं जब भारत अग्रिम पंक्ति में खड़ा होगा और वह एक-एक करके विश्व उलझनों के निराकरण में अपनी दैवीय विलक्षणता का चमत्कारी सत्परिणाम प्रस्तुत कर रहा होगा। यह सम्भावना नहीं सुनिश्चितता है।

गुरुदेव भारत के नवनिर्माण को जहाँ एक ओर नियति का विधान मानते हैं वहीं दूसरी ओर राष्ट्र के नागरिकों को इसके लिए कमर कसकर खड़े होने का आह्वान भी करते हैं। जिससे इस नवनिर्माण के सपने को न केवल साकार किया जा सके, बल्कि इसके सौंदर्य को शतगुणित, अनन्तगुणित किया जा सके। उनके अनुसार, किसी राष्ट्र की राष्ट्रीय सम्पदा उस देश के नागरिकों की भावनात्मक एवं क्रियात्मक उत्कृष्टता है। किसी भी राष्ट्र व समाज की समर्थता का, प्रगति का प्रधान कारण वहाँ के निवासियों का चिन्तन एवं चरित्र होता है। संयमी, सदाचारी, सन्तुष्ट, कर्मठ, कर्तव्यपरायण नागरिक ही राष्ट्र को जीवन्त व जाग्रत बनाए रखते हैं। जिनके चिन्तन में शालीनता, व्यवहार में सहृदयता तथा क्रियाकलापों में प्रखरता का समावेश होता है, ऐसे लोग ही राष्ट्र को विभूतिवान् व समृद्ध बनाते हैं। इसलिए अन्ततः कहना यही होगा कि भारतीय समाज एवं राष्ट्र का विकास यहाँ के लोकमानस के परिष्कार पर अवलम्बित है। किसी राष्ट्र का गौरव उसके लौह-नागरिक होते हैं, यही उसके वास्तव में बहुमूल्य मणि-माणिक्य हैं। सच्ची समृद्धि इसी रत्नराशि की तुलना पर निर्भर है। राष्ट्र-निर्माण उज्ज्वल चरित्र-सुसंस्कृत और निस्वार्थ लोकसेवा निरत व्यक्ति ही अग्रिम पंक्ति में खड़े होकर रह सकते हैं, जो अवांछनीयताओं के विरुद्ध मोर्चाबंदी कर लड़ने के लिए साहसी शूरवीरों की भूमिका प्रस्तुत कर सकें। रचनात्मक प्रवृत्तियों का अभिवर्द्धन इन्हीं शूरमाओं के द्वारा सम्पन्न होगा। इन्हीं के द्वारा भारत महादेश के सर्वतोमुखी नवनिर्माण का स्वप्न साकार होगा।

गुरुदेव स्पष्ट रूप से यह मानते हैं कि विभाजन की दीवारें बेमानी हैं। इनमें से प्रत्येक जाति-धर्म-सम्प्रदाय भाषा, क्षेत्र के आधार पर किये गये बँटवारे अर्थहीन हैं। हमें अपनी पहचान भारत देश के समर्पित एवं कर्तव्यनिष्ठ नागरिक के रूप में प्रस्तुत करनी चाहिए। हमारा जन्म किसी भी जाति में हुआ हो, हम कोई धर्म मानने वाले हों, किसी भी भाषा को हम बोलते हों अथवा किसी भी क्षेत्र में रहते हों, पर हैं तो मनुष्य ही और मनुष्य जीवन की सार्थकता देवत्व की ओर बढ़ने में है। आत्मसन्तोष, आत्मकल्याण से लेकर विश्वमानव के प्रति अपने महान कर्तव्य की पूर्ति के लिए कटिबद्ध होने से ही मानवता का, देवत्व का, पूर्णता-प्राप्ति का लाभ मिल सकता है। राष्ट्र के बहुसंख्यक नागरिकों की इन्हीं भावनाओं का योग ही तो भारत के राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करेगा।

देश के नवनिर्माण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान नारी का है। भारत वर्तमान पतन-पराभव का प्रधान कारण नारी को मानवीय अधिकार से दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाता है। पिछले सामंती युग में नारी का बन्धन बहुत ही जघन्य था। नारी के साथ नृशंसतापूर्ण व्यवहार को अभी भी दुहराये जाने का क्रम बाकी है। ऐसे ही अनेक कुचक्रों में चिरअतीत से पिसती चली जा रही नारी-भारत के अभिनव नवोत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएँगी । उसने पीड़ा भोगी है, इसलिए किसी भी पीड़ित की व्याकुल कराहों को समझने की संवेदना उसमें सहज है।

यही नहीं, नारी समाज की भावनात्मक धुरी है। उसी के इर्द-गिर्द परिवार एवं समाज की गति-प्रगति का चक्र घूमता है। परमपूज्य गुरुदेव की नजर में परिवार एक छोटा राष्ट्र है, सुविस्तृत समाज का छोटा संस्करण । देश की भावनात्मक प्रगति के लिए व्यक्तित्व को परिवार को एक-दूसरे के पूरक मानना आवश्यक है। इसके लिए जरूरी है कि संयुक्त परिवारों की वैज्ञानिक आचार-संहिता विकसित की जाए। यदि परिवारों को सुसंस्कारिता के प्रशिक्षण की पाठशाला के रूप में बनाया जा सके, तो उस कारखाने से ढलकर जो नररत्न निकलेंगे वे राष्ट्रीय कीर्ति की पताका आकाश में फहरा सकेंगे।

लेकिन यह महान कार्य नारी ही कर सकती है, यही कारण है कि युगद्रष्टा गुरुदेव ने सम्भावनाओं की सदी इक्कीसवीं सदी को नारी सदी की संज्ञा दी। वह कहते हैं, समय की माँग ध्वंस से मुड़कर सृजन की दिशा पकड़ रही है। उसमें नारी ही फिट बैठती है। राष्ट्रीय जीवन का नवनिर्माण तभी सम्भव है जब नारी को वश में रखने की कठोरता छोड़कर नर उस महाशक्ति के सम्मुख समर्पण करे। भवितव्यता भी यही है, नेतृत्व नारी का होगा और अनुगमन नर का। सृजन की प्रतीक नारी राष्ट्र के भविष्य-निर्माण में ठोस एवं स्थायी भूमिका निभा सकेगी। हो भी क्यों नहीं, महिलायें मात्र प्रसव ही नहीं वरन् भावी पीढ़ी का स्तर भी विनिर्मित करती हैं। वह सच्चे अर्थों में भविष्य की निर्मात्री हैं। अगले दिनों में अपने देश की महिलाओं का यही स्वरूप निखरेगा, जिससे वह समूचे राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय परिसर में सर्वत्र-सुख शान्ति की स्वर्गीय वर्षा कर सकेंगी।

राष्ट्रीय स्वतंत्रता के आन्दोलन में अपने व्यक्तित्व की आभा बिखेरने वाले परमपूज्य गुरुदेव का कहना है, मेरे सपनों के भारत की रूपरेखा नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक क्रान्ति में निहित है। इन्हीं के आधार पर देश में स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन तथा सभ्य समाज की संरचना का पुनर्निर्माण होगा। इसके लिए विभिन्न जातियाँ अपनी पंचायत करके विभिन्न वर्गों और क्षेत्रों में फैली हुई, कुरीतियों के उन्मूलन की शुरुआत करे और उपजातियों की बेड़ी काटकर जाति में जाति का बन्धन काटकर महाजाति में परिणत होने के लिए कदम बढ़ाएँ। साथ ही इनसान और इनसानियत के रूप में अपना परिचय विकसित करने की बात भी सोची जाए। क्योंकि धर्म-सम्प्रदायों के नाम पर, भाषा-जाति-प्रथा-क्षेत्र आदि के नाम पर जो कृत्रिम विभेद की दीवारें बन गयी हैं। वे लहरों की तरह अपना अलग प्रदर्शन भले भले ही करती रहें पर सभी एक जलाशय की सामयिक हलचल मानी जायेंगी। राष्ट्र एक होकर रहेगा। इन कृत्रिम लकीरों के आधार पर हजारों-लाखों बँटवारे करना न तो उचित और न ही अपनी राष्ट्रीय संस्कृति के अनुरूप।

“माताभूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः” कहकर अपना परिचय देने वाले इस गरिमामय देश के निवासी अपने ही अस्तित्व के टुकड़े काटने लगें, यह कहाँ तक उचित और सराहनीय है ?

राष्ट्र-निर्माण की पहल हमें समाज निर्माण से करनी होगी। समाज-व्यक्तियों का समूह है। समाज का ही बड़ा रूप राष्ट्र और विश्व है। व्यक्ति और समाज को समुन्नत बनाने के लिए उच्चस्तरीय आस्था का निर्माण एवं अभिवर्द्धन सत्परम्पराओं के संचालन और विकृतियों के निवारण के लिए निरन्तर प्रयत्न किया जाना आवश्यक है। भारत का सामाजिक क्षेत्र ऐसा है जिसमें लोकमंगल के लिए बहुत कुछ करने को पड़ा है। अपने देश का पिछड़ापन दूर करने में राजसत्ता उतनी सफल नहीं हो सकती, जितनी कि सामाजिक क्षेत्र में की गयी सेवा साधना। समाज को राहत देने का एकमात्र यही उपाय है कि समूचे विचार-क्षेत्र की एक बार नये सिरे से सफाई-धुलाई भी की जाय और अनुपयोगिता बहुत बढ़ गयी हो तो उसे गलाने और नये ढाँचे में ढालने की हिम्मत सँजोयी जाय। जनमानस का परिष्कार किये बिना राष्ट्रीय कल्याण सम्भव नहीं। व्यक्ति के नैतिक विकास द्वारा समानतावादी समाज की ओर देश को उन्मुख होना पड़ेगा। सुखी और सभ्य समाज तभी निर्मित होता है, जब मानव व्यक्तिवादी विचारधारा छोड़कर, समष्टिवादी, समाजवादी बने।

सामाजिक क्रान्ति के द्वारा ऐसे प्रचलनों को निरस्त किया जाना चाहिए जो विषमता, विघटन, अन्याय अनौचित्य के पृष्ठपोषक हों। पारस्परिक स्नेह, सौजन्य, सहयोग का विस्तार करने वाली ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की ‘सर्व भूतेषु’ की दृष्टिपोषक प्रथा-प्रचलनों को ही मान्यता मिले और शेष को औचित्य की कसौटी पर खोटी सिद्ध होने पर कूड़ेदान में बुहार फेंका जाए।अपने देश का समाज सहकारी सहायक बने। उसकी अभिनव संरचना में कौटुम्बिकता के शाश्वत सिद्धान्तों का समावेश किया जाए। न जाति, लिंग की विषमता रहे और न आर्थिक दृष्टि से किसी को गरीब-अमीर रहने दिया जाए। न कोई उद्धत-अहंकारी धनाध्यक्ष बने और न ही किसी को पिछड़ेपन की पीड़ा-भर्त्सना सहन करनी पड़े।अपराध की कोई गुंजाइश ही न रहे, यदि कहीं कोई उपद्रव उभरे तो लोकशक्ति क्षरा इस प्रकार दबोच दिया जाए कि दूसरों को वैसा करने का साहस ही शेष न रहे।

समुन्नत राष्ट्र की रचना उत्कृष्ट नेतृत्व में, अग्रगामी सज्जनों का समूह करता है। अच्छा समाज अच्छे व्यक्ति उत्पन्न करता है, और उत्कृष्ट व्यक्ति समृद्ध राष्ट्र का निर्माण करते हैं। दोनों ही अन्योन्याश्रित हैं। यह प्रयोजन, सुयोग्य, अनुभवी और निस्पृह लोक सेवियों के द्वारा ही सम्पन्न हो सकता है। अनेक सम्प्रवृत्तियों के गतिशील रहने से ही राष्ट्र की श्रेष्ठता और महानता सुदृढ़ रह सकती है। जब नेतृत्व करने अथवा राष्ट्रीय जीवन की गति बदलने की शक्ति केवल चरित्र से ही प्राप्त होती है। भारत महादेश की उज्ज्वल भवितव्यता के लिए समाज में वैयक्तिक व सामाजिक नीति मर्यादाओं को महत्व देना होगा। कहीं कोई ऐसा काम करने की न सोचे, जिससे मानवीय गरिमा एवं राष्ट्रीय महानता को आँच आती हो। जब देश में सभी सन्तोषी, नीतिवान, उदार एवं सरल, सौम्य पद्धति अपनाएंगे, मिल-बाँटकर खाएंगे, तभी वे हँसती हँसाती जिन्दगी जी सकेंगे।

गुरुदेव ने शिक्षा को राष्ट्र-निर्माण का आवश्यक एवं अनिवार्य तत्व माना है। शिक्षा राष्ट्रीय जीवन का शाश्वत मूल्य है। ज्ञान और आचरण में बोध और विवेक में जो सामंजस्य प्रस्तुत कर सके और उसे ही सही अर्थों में शिक्षा या विद्या कहा जा सकता है।विकासोन्मुख राष्ट्रों ने राष्ट्रीय उत्कर्ष को ध्यान में रखते हुए अपनी शिक्षा-प्रणालियाँ विकसित कीं। स्वतंत्रता के पचासवें वर्ष में भी हम आगे बढ़ नहीं पाये, इसका कम से कम आधा दोष तो वर्तमान निरुद्देश्य शिक्षा-पद्धति को दिया जा सकता है। इस सम्बन्ध में यह विशेष ध्यान रखने की बात है कि हमें अपनी शिक्षा-नीति अपने देश की भौगोलिक, साँस्कृतिक एवं आध्यात्मिक विशेषताओं को ध्यान में रखकर राष्ट्रीय उद्देश्य के अनुरूप बनानी चाहिए। अपनी मौलिक सोच को ताक पर रखकर हम उधार की नीतियों से काम चलाते रहें, यह कतई किसी भी तरह उचित नहीं है।

बुद्धिजीवियों को इसके लिए ऐसे प्रबल प्रयास करने चाहिए, जिससे अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति हो सके। स्वावलम्बी और सुयोग्य नागरिक ढालने वाली शिक्षापद्धति की मौलिक कल्पना करनी चाहिए और सार्थकता सिद्ध करने के लिए व्यवस्था बनानी चाहिए। कृत्यों में प्रगतिशील शिक्षातन्त्र जन सहयोग से खड़ा किया जाना चाहिए। शिक्षा उसे कहते हैं जो जीवन के बाह्य प्रयोजनों को पूर्ण करने के लिए सुयोग्य मार्गदर्शन करती है। कोई व्यक्ति सुशिक्षित कहलाने का पात्र तभी हो सकता है, जब वह बुरी से बुरी परिस्थितियों में भी आशावादी बना रहे।

विद्या का क्षेत्र उससे आगे का है। आत्मबोध, आत्मनिर्माण, कर्तव्यनिष्ठा, सदाचरण, समाजनिष्ठा, राष्ट्रभक्ति आदि वे सभी विषय विद्या कहे जाते हैं, जो वैयक्तिक चिन्तन, दृष्टिकोण में आदर्शवादिता और उत्कृष्टता का समावेश करते हों। इसके बिना मनुष्य के अन्तराल में छिपी हुई रहस्यमय दिव्यता का विकास नहीं हो पाता। विद्या का स्वरूप है-विचारणा एवं भावना के स्तर को उच्चस्तरीय बनाने वाला ज्ञान, अनुभव और अभ्यास। इसी से गुण-कर्म-स्वभाव का परिष्कृत व्यक्तित्व विनिर्मित होता है। शिक्षा और विद्या का समन्वय स्वार्थपरता को हटाता और राष्ट्रनिष्ठा को बढ़ाता है।

राष्ट्रीय जीवन के वर्तमान लड़खड़ाते स्वरूप, निराशा के घने कुहासे के बीच गुरुदेव के स्वर आशा के प्रखर सूर्य की भाँति उदय होते हैं। उनके शब्दों में भारत के अभ्युदय का पुण्य प्रभात अब निकट है। अंधकार की सघन निशा का अन्त और प्रकाश का व्यापक विस्तार अगली ही सदी में होने जा रहा है। ऊषाकाल की लालिमा को उभरते और ऊँचे उठने का आभास इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में ही देखा जा सकेगा। जिन्हें तमिस्रा चिरस्थायी लगती हो वे अपने ढंग से सोचे, पर हमारा दिव्यदर्शन भारत के उज्ज्वल भविष्य की झाँकी करता है। लगता है इस पुण्य-प्रयास में सृजन की पक्षधर देवशक्तियाँ प्राणपण से जुट गयी हैं। इन दिनों अदृश्य के अन्तराल में कुछ ऐसा ही पक रहा है।भाव संवेदना की शक्ति का उद्भव इसी स्थिति में समझा जा सकता है। हाँ अभी वर्तमान में कुछ ऐसा अवश्य हो रहा है, जिसे प्रसव पीड़ा की उपमा दी जा सकती है। लेकिन यह तो सिर्फ वातावरण बदलने का पूर्व संकेत भर है।

वह आगे कहते हैं-हमने भारत को ही नहीं समूचे विश्व के भविष्य की झाँकी बड़े शानदार ढंग से देखी है। परन्तु इस पुण्य-प्रभात का उदय पहले अपने ही महादेश में होगा।बाद में इसकी आभा समूचे विश्व को अवलोकित-प्रकाशित करेगी। हमारी कल्पना है कि आने वाला युग प्रज्ञायुग होगा। प्रज्ञा अर्थात् दूरदर्शी विवेकशीलता के पक्षधर व्यक्तियों का समुदाय। हर व्यक्ति स्वयं में एक आदर्श इकाई बनेगा एवं हर परिवार उससे मिलकर समाज का एक अवयव। सभी सामूहिक राष्ट्रनिर्माण एवं राष्ट्रीय उत्कर्ष को अपनी जिम्मेदारी अनुभव करेंगे। सच्ची प्रगति इसी में समझी जाएगी कि गुण-कर्म-स्वभाव की दृष्टि से किसने अपने आप को कितना श्रेष्ठ समुन्नत बनाया।

वर्तमान निराशाजनक स्थिति में भी हम चाहें तो कल उदय होने वाले इस सौभाग्य-सूर्य की निश्चितता से स्वयं में स्फूर्ति एवं उल्लास अनुभव कर सकते हैं। परमपूज्य ने अगस्त 1947 की अखण्ड-ज्योति में एक लेख लिखा था, ‘क्या हम हार गये ?’ इस लेख में जहाँ एक ओर उनके मन में छिपी पीड़ा का अहसास मिलता है वहीं दूसरी ओर उत्साहवर्द्धक आह्वान भी है। स्वाधीनता प्राप्ति पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उनके शब्द हैं-मत सोचिए कि हम हार गये। हमने खोया कुछ नहीं, कुछ न कुछ पाया ही है। एक मोर्चा फतह ही किया है। आइये अपनी बिखरी हुई शक्तियों का संचय करें, संगठन को दृढ़ करें। सद्बुद्धि का विकास करें, शेष कठिनाइयों का हल करने की क्षमता उत्पन्न करें। शताब्दियों बाद विदेशी विजातियों के चंगुल से छूटकर हम सौभाग्य निर्णय का सूर्योदय देख रहे हैं।संसार परिवर्तनशील है, काल गतिवान है, एक गहरा धक्का खाने के बाद अब हमारा सौभाग्य सूर्य पुनः उदित होने को है। उसको सम्भालने के लिए आइये हम अपनी भुजाओं में समुचित बल पैदा करें।हम हारे नहीं हैं।थोड़े जीते सही, पर जीते हैं, आगे अभी और जीतेंगे, परमात्मा हमारी सहायता करेगा।” पूज्य गुरुदेव के शब्द पचास वर्ष बाद ही अर्थहीन नहीं हुए हैं।बल्कि स्वाधीनता की स्वर्णजयंती पर अपनी विशेष आभा लेकर चमक रहे हैं, इनके प्रकाश में हम सभी राष्ट्र के नवनिर्माण में जुट जाएँ तो अपने महान राष्ट्र का उज्ज्वल भविष्य आने में देर नहीं।


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