सैनिक एवं संन्यासी की उभयपक्षीय विशेषताएँ थीं उनमें

July 1997

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जुझारू सैनिक और निस्पृह संन्यासी का सम्मिश्रण शायद ही कहीं देखा जाता होगा। कारण कि संन्यासी की कोमलता, करुणा उसे दयालु, श्रमशील, एवं उदार प्रकृति का बनाए रखती है। अपनी वैराग्य वृत्ति के कारण प्रायः वह सब ईश्वर की इच्छा पर छोड़ देता है और जो कुछ हो रहा है सो ठीक मान लेता है। ऐसे लोग न तो किसी से लड़ पाते हैं और न ही दुस्साहस करने लायक संकल्प ही कर पाते हैं। इसके विपरीत जिनमें संघर्ष वृत्ति है, जो अपनी प्रकृति से सैनिक हैं, परन्तु सीमित और संकीर्ण स्वार्थ के लिए। जो कुछ अर्जित उपार्जित किया गया उसे सर्वहित और लोक हित के लिए त्यागने का वैराग्य भाव भी उनमें नहीं होता। शायद यही कारण हैं कि आमतौर से यह माना जाता है कि जो आध्यात्मिकता के क्षेत्र में चला गया वह साँसारिक जीवन के लिए निरर्थक हो गया। इसी प्रकार जो संघर्षशील हैं, उन्हें संसारी कहकर नाक-भौं सिकोड़ी जाती है। वे आध्यात्मिक पथ के लिए अनधिकारी और अयोग्य समझे जाते हैं।

जबकि वास्तविकता कुछ और ही है। खरा आध्यात्मिक जीवन वही जी सकता है, जिसके अन्दर संघर्ष एवं त्याग की दोनों क्षमताएँ हों। प्रगति चाहे आत्मिक हो या भौतिक, दोनों ही दिशाएँ संघर्ष चाहती हैं। आत्मिक जीवन में अपने-अपने दोष-दुर्गुणों कुसंस्कारों और प्रलोभनों-अवरोधों से लड़ना पड़ता है। गीता का प्रशिक्षण ही अन्तरंग जीवन में पाँच प्राणों को-सौ दोष-दुर्गुणों के कौरव-पाण्डवों के रूप में लड़ा देने के लिए प्रादुर्भूत हुआ। आत्मिक साधना को भी समर कहा जाता है। दुर्गा सप्तशती में महिषासुर, मधुकैटभ और शुम्भ-निशुम्भ के रूप में स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर में घुसे बैठे असुरों को आत्मशक्ति के द्वारा निरस्त करने की शिक्षा है। इस तरह संघर्ष आत्मिक प्रगति का मुख्य आधार है। भौतिक जीवन का तो कहना ही क्या? यहाँ प्रगति तो दूर अपने अस्तित्व को बनाए रखना भी बिना संघर्ष के सम्भव नहीं। संघर्ष से ही जीवन के हर क्षेत्र में विभूतियाँ और उपलब्धियाँ बटोरी जाती हैं, परन्तु त्यागवृत्ति के बिना इनका ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ उचित उपयोग सम्भव नहीं ।इन दोनों विरल गुणों का मेल प्रायः कहीं नजर नहीं आता। लेकिन अपने अतीत में इन्हीं दोनों गुणों के मेल के कारण भारतीयता समस्त विश्व में गौरवान्वित हुई और आध्यात्मिकता को देवविद्या, संजीवनी विद्या और ब्रह्मविद्या के नाम से पुकारा गया।

परमपूज्य गुरुदेव भारत के प्राचीन आध्यात्म-तत्त्वदर्शन एवं आध्यात्म का मूर्तिमान् प्रतिनिधित्व करते हुए अवतरित हुए। वे सच्चे सैनिक थे और सच्चे संन्यासी । अपनी संघर्षवृत्ति का परिचय देते हुए उन्होंने जीवन के हर मोर्चे पर फतह हासिल की। आत्मिक एवं भौतिक परिधि में ढेरों-ढेर विभूतियाँ और उपलब्धियाँ अर्जित कीं, साथ ही अपनी सहज त्यागवृत्ति के वशीभूत होकर इन विभूतियों एवं उपलब्धियों के लाखों-करोड़ों मनुष्यों के जीवन में बिखेर दिया।

वे जानते थे कि वाणी और लेखनी के माध्यम से प्रचार और शिक्षण का कुछ असर तो होता है और लेखनी के माध्यम से प्रचार और शिक्षण का कुछ असर तो होता है और उसकी आवश्यकता भी रहती है। लेकिन उतने भर से काम नहीं चल सकता। प्रभावशाली शिक्षण वह होता है, जो मूर्तिमान् हो। प्रत्यक्ष को देखे बिना प्रेरणा नहीं मिलती। उसका उदाहरण जब तक सामने न आए तब तक श्रेष्ठता के सन्मार्ग पर चलने की किसी को स्फुरणा तक नहीं मिलती, विचार केवल हलचल उत्पन्न करते हैं। उन्हें जब क्रियान्वित किया जाता है। तब लोग अपने आप ही कह उठते हैं, यह है विचार की सार्थकता, देख लो नमूना तुम्हारे सामने हैं।

किसी समय केवल सात ऋषि थे और वे समस्त संसार के सातों द्वीपों का एक-एक करके समग्र नेतृत्व सम्भालते थे। कारण वे जो कहते थे, सो करते भी थे। वाणी से ही नहीं क्रिया से भी वे जनता को दिखाते थे। जो बताना चाहते थे, उसे उन्होंने अपने मन-वचन और कर्म में अति गहराई तक समाविष्ट कर लिया था। यह समन्वय ही उनकी प्रगतिशीलता का मात्र आधार था। विद्या और प्रतिभा का भी मूल्य है। पर जहाँ तक जीवनक्रम बदल देने जैसे घोर कर्म को कराने की, व्यक्ति को पतन के गर्त से निकल कर उत्कर्ष के शिखर पर पहुँचाने की आवश्यकता होती है, वहाँ बाँस के डंडों से काम नहीं चलता। यह सब तो मजबूत कारणों से ही सम्भव होता है। प्राचीनकाल के आत्मवेत्ता अपने को इतना समर्थ और प्रभावशाली बनाते थे कि लोकनेतृत्व कर सकें। इसके लिए वे बुद्धि या प्रतिभा को प्रखर करने में ही नहीं लगे रहते थे, वरन् समग्र व्यक्तित्व को विचार एवं कर्म के समन्वय से प्रचण्ड बनाते थे। भारतीय तत्त्वज्ञान की विश्वव्यापी गौरव-गरिमा प्रभावशीलता एवं सफलता का मूल कारण उसके व्याख्यानों द्वारा अपने जीवन की प्रयोगशाला में अपने कथन की सार्थकता सिद्ध करना ही था। आज वह क्रम टूटा तो वह दर्शन भी बैठ गया, जिसकी अब चर्चा ही शेष रह गई है। उच्च दर्शन की उपेक्षा करके कोई समाज अपनी उत्कृष्टता स्थिर नहीं रख सकता और उसके अभाव में उसे दुर्बल एवं पतित ही होना पड़ेगा। वर्तमान दार्शनिक अवरोध ने कुछ ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी है कि जिसका सुधार बिना एक क्षण गवाँए अविलम्ब प्रारम्भ किया जाना चाहिए।

भारतीय तत्त्वदर्शन एवं आध्यात्म के सम्मुख इस जीवन-मरण जैसे अवरोध का विश्लेषण और निराकरण सही रूप से प्रस्तुत करने के लिए गुरुदेव ने न केवल कहा और लिखा बल्कि उसे अपने कर्तव्य का अविच्छिन्न अंग भी बनाया। उन्होंने यह प्रतिपादित किया कि सैनिक और संन्यासी दोनों का एक साथ रह सकना सम्भव है। सम्भव ही नहीं स्वाभाविक भी है और आवश्यक भी। दयालुता का अर्थ अनाचार का संरक्षण नहीं और वैराग्य का अर्थ आलसी और अकर्मण्य हो जाना नहीं है। इसी तरह क्षमा का अर्थ पाप और अनीति को स्वच्छन्द रूप से कुहराम मचाते रहने के लिए छूट देना नहीं है। पापी को भी प्यार किया जा सकता है, पर पाप के प्रति तो निष्ठुरता बरतनी ही पड़ेगी। सन्त की भी पूजा कसाई की भी पूजा। पुण्य की भी जय-पाप की जय ऐसा समदर्शनः तो व्यक्ति को दार्शनिक भूल-भुलैयों में उलझा कर संसार का सर्वनाश ही कर देगा। गुरुदेव ने अपने जीवनक्रम में उन तथ्यों को स्थान दिया जिनमें उनके सैनिक तत्त्व के साथ संन्यासी तत्त्व भी पूरी तरह जुड़ा हुआ है। सैनिक के रूप उन्हें देखा और परखा जाए तो लगेगा कि वे सैनिक पहले और संन्यासी पीछे थे। इसी प्रकार जब उनके संन्यासी गुणों को देखते हैं तो वे ही मुख्य मालूम पड़ते हैं। वस्तुतः दोनों तत्वों का विलक्षण समन्वय उनमें है, इसे संयोग नहीं मान लेना चाहिए वरन् यह समझना चाहिए कि उनकी हर क्रिया लोकशिक्षण के लिए थी और वे यह बताते थे कि सैनिक और संन्यासी के समन्वय से ही अध्यात्म की सर्वांगपूर्णता बनती है।

गुरुदेव के अबोध बचपन की बातों का तो ठीक से पता नहीं, पर जब से वे कुछ समझने-समझाने लायक हुए तब से उन्होंने अपनी साहसिक शूरवीरता को ही आगे रखा। जिस गाँव में वह जन्में थे, उसी गाँव की एक वृद्ध अछूत महिला की सेवा की कहानी से तो अखण्ड-ज्योति के पाठक परिचित ही हैं। आज की स्थिति में ये बातें किसी को सामान्य लग सकती हैं। लेकिन अब से लगभग 75 साल पूर्व का जमाना दूसरा था। उन दिनों छूत-छात अब से अधिक थी। फिर पण्डित-ब्राह्मण तो नहाने-छूने-खाने में ही धर्म को समेटे बैठे थे। ऐसी परिस्थिति में उनके परिवार ने विरोध किया, गाँव के दूसरे लोगों ने उंगली उठायी। नतीजा यह था कि घर में घुसने पर प्रतिबन्ध लग गया। बारह वर्ष का बालक आखिर करता ही क्या ? घर से बाहर उन्हें हाथ में रोटी दी जाती, कोई उन्हें छूता तक नहीं, घुड़साल में चारपाई डाल दी गई। यह सब हुआ पर मेहतरानी बुढ़िया की सेवा तब तक नहीं घटी, जबतक कि वह पूरी तरह अच्छी नहीं हो गयी। बारह वर्ष के बालक का साहस तो देखिए-सारा परिवार-सारा गाँव-सारा समाज एक ओर और बारह वर्ष का बालक एक ओर। बालक प्रह्लाद की तरह अड़ा ही रहा, समय ने इस घटना को भले ही पीछे डाल दिया हो, पर चर्चा बनी रही कि जिसे मनुष्य सही समझे उसके लिए कितना कठोर और दृढ़ होना चाहिए। इसका उदाहरण उन्होंने छोटी अवस्था में किस तरह बहादुरी से प्रस्तुत किया।

सन् 1930 का काँग्रेस संचालित सत्याग्रह आन्दोलन शुरू हुआ। तब तक वे 18 वर्ष के हो चुके थे। उन दिनों आतंक बहुत था। गोली चलने, लम्बी जेल होने, घर-जायदाद जब्त होने की चर्चा हर किसी के मुँह पर थी। गुरुदेव ने निश्चय किया कि अन्याय का प्रतिकार करने के लिए बड़े से बड़ा कष्ट सहना चाहिए। वे सत्याग्रहियों की सेना में भरती हुए। जिन दिन उन्हें जाना था, उससे एक दिन पूर्व ही घर में बन्द कर लिया गया। न जाने के लिए समझाने से लेकर बल प्रयोग तक के सारे उपाय परिवार द्वारा काम में लाए जा रहे थे। पर जो उचित है उस पर से रत्तीभर हटने-टलने की बात स्वीकार नहीं हुई। रात के शौच जाने के बहाने घर की कैद से छूटे। नंगे पैर, एक बनियान और नेकर पहने हाथ में लोटा लेकर घने अंधेरे में रास्ता उलट कर चल दिए और घोर घनी, काली अंधियारी रात मूसलाधार वर्षा के बीच भेड़ियों से भरे घने खार, बीहड़, नदी, नाले पार करते हुए रातों-रात लम्बी यात्रा करके आगरा जा पहुँचे। जब तक घर वाले पता लगाने पहुँचे उससे पहले ही जेल चले गये।

उग्र सत्याग्रहियों में उनकी गणना थी। एक-एक करके तीन बार उन्हें उस अवधि में जेल जाना पड़ा और कुल मिलाकर लगभग चार वर्ष जेल रहे। जुर्माना हुआ, घर का सामान जब्त और नीलाम बार तो बुरी तरह पिटे और एक बार तो घोड़े के पैरों के नीचे कुचले जाने पर इतनी चोट लगी कि जीवन संकट में पड़ गया। गैरकानूनी कलकत्ता काँग्रेस में उत्तर प्रदेश का जत्था लेकर पहुँचे तो वहाँ गोलियों की बौछार से जहाँ कितने ही साथी खेत रहे वहाँ वे आश्चर्य की तरह बच गये। बंगाल की आसनसोल जेल में इन्हें फिर बन्द रखा गया। उन दिनों की दुस्साहसपूर्ण चर्चाएँ जिनमें सन् 42 के करो या मरो आन्दोलन की घटनाएँ भी शामिल हैं कुछ ऐसी हैं जिन्हें सुनते ही पसीना छूटने लगता है। ऐसी घटनाएँ न केवल उनके द्वारा योजनाबद्ध रूप से संचालित होती रही, वरन् स्वयं भी वे उनमें बढ़-चढ़ कर भाग लेते रहे। ऐसा दुस्साहसी व्यक्ति एकान्त में साधना करने वाला महान साधक भी हो सकता है, सहसा विश्वास नहीं होता। भगवद् आराधना करने वाले किसी भी साधक में, संन्यासी में, मृत्यु से अठखेलियाँ करने का इतना प्रचण्ड दुस्साहस हो सकता है यह एक अनोखी बात लगती हैं, पर है सत्य। इन घटनाओं के संदर्भ में परमपूज्य गुरुदेव इतना ही कहा करते थे कि आत्मा की अमरता और मृत्यु को वस्त्र बदलने जैसी सामान्य घटना मानने की गीता की शिक्षा सदुद्देश्य के लिए बड़े से बड़ा दुस्साहस कर गुजरने की ही तो शिक्षा देती है।

गायत्री यज्ञ आन्दोलन उनके द्वारा भारत के ऐतिहासिक आन्दोलनों में से एक है। इसकी विशालता का मूल्याँकन किया जाए तो दाँतों तले उँगली दबानी पड़ेगी कि किस प्रकार उसमें करोड़ों व्यक्तियों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया और इन व्यवस्थाओं में किस प्रकार करोड़ों रुपये की व्यवस्था सम्भव हुई। साथ ही इस अभियान के अनेक आध्यात्मिक पहलू भी हैं, जो सूक्ष्मजगत को अनुप्राणित करने से सम्बन्ध रखते हैं। पर एक प्रत्यक्ष पहलू सामाजिक क्रान्ति का भी है। भारत की मूल समस्या सामाजिक है। राजनैतिक और आर्थिक समस्याएँ तो उसके साथ जुड़ी हुई हैं। यदि देश में ऊँच-नीच स्त्रियों को प्रतिबन्धित, विवाह शादियों में होने वाले अपव्यय जैसी सामाजिक बुराइयों को दूर न किया जा सका तो देश का पिछड़ापन कभी दूर न होगा, और राजनैतिक, आर्थिक प्रगति के बावजूद विकास की कोई सम्भावना साकार न होगी। कारण कि इस प्रकार की बुराइयों से जो क्षति निरन्तर होती रहती है, उसे कितनी भी बड़ी विकास योजनाएँ पूरा नहीं कर सकतीं। जब क्षतिपूर्ति तक हमारे प्रयासों से सम्भव नहीं तो प्रगति की बात ही कहाँ बनेगी। इस लक्ष्य को भली-भाँति समझते हुए उन्होंने गायत्री यज्ञ आन्दोलन के साथ सामाजिक क्रान्ति की व्यवस्था को गहराई तक जोड़कर रखा।

गायत्री मन्त्र का मनुष्य मात्र को अधिकार दिये जाने की घोषणा करने से जब अछूत भी उसका उपयोग करने लगे तो पुरातन पन्थियों में खलबली मच गई। जो मन्त्र ब्राह्मणों का था, कान में कहा-सुना जाने वाला था, उसे सब-लोग प्रकट रूप से कहें-सुनें यह कैसा अनर्थ? यज्ञों में केवल ब्राह्मण लोग दक्षिणा लेकर आहुतियाँ देते थे। स्त्रियों को अन्य वर्गों को उसमें प्रवेश मिलता ही नहीं था। उसमें सम्मिलित होने के लिए सबका खुला प्रवेश? यज्ञ आयोजनों में आने वाले आगन्तुकों को दाल-भात रोटी आदि कच्चे खाने का प्रबन्ध और बिना जाति-पाँति के भेदभाव के उनका बनाया और परोसा जाना, यह उन दिनों घोर आश्चर्य का विषय था। इस व्यवस्था को अनाध्यात्मिकता, नास्तिकता आदि न जाने किन-किन नामों से पुकारा जाता रहा।

पुरातन पन्थियों ने उसका घोर विरोध किया। सभाएँ हुईं, लेख छपे, धर्मध्वजियों ने भाषण-वक्तव्य दिए, और सही-गलत जो कुछ भी हो सकता था सब कुछ कहा गया। चर्चा फैलायी गई आचार्यजी ब्राह्मण नहीं लकड़ी का काम करने वाले बढ़ई हैं और भी ना जाने क्या-क्या कहा गया। कई बार तो उन्हें शारीरिक आघात पहुँचाने और अपशब्द कहने तक के अवसर आये। पर क्या मजाल कि उनके चेहरे पर जरा भी उदासी आई हो। सामाजिक क्रान्ति का इतना बड़ा तूफानी अभियान खड़ा करने वाले में कितना दुस्साहस होना चाहिए, उसे देखना-नापना हो तो उनके जीवन को देखकर समझा जा सकता है। यदि साह सैनिक की तरह उनकी संघर्ष वृत्तियों का लेखा-जोखा लिया जाये तो पता चलेगा कि अन्याय और अत्याचारों के विरुद्ध उनका प्रत्येक दिन ही लड़ने में बीता है। यदि वे संघर्षात्मक घटनाक्रम इकट्ठे किये जाएँ और उनमें मिली सफलता और असफलताओं, घावों और चोटों को गिना जाए तो पता चलेगा कि वे अनाचार से आजीवन कट-कट कर लड़ने वाले योद्धा के रूप में ही जन्में और अन्तिम साँस तक इस महायुद्ध में संलग्न रहते हुए उन्होंने प्राण त्यागे।

जहाँ तक व्यक्तिगत सुखोपभोग का सम्बन्ध है, गुरुदेव ने सर्वत्यागी संन्यासी का जीवन जिया। जहाँ तक व्यक्तिगत भौतिक उन्नति का सम्बन्ध है, वे उसकी ओर सदा से उपेक्षा की दृष्टि से देखते रहे। धन, यश और विलास उनके इर्द-गिर्द इकट्ठा होने लगा तो ऐसी डुबकी लगायी कि यह मगर उन्हें ताकते ही रह गये और वे देखत-देखते ही उनकी पकड़ से बाहर। यदि उन्होंने वैभव चाहा होता तो शासन में ऊँचे पद पर पहुँचे होते। राजनीति में उनका लोहा माना जाता, विद्वानों में मूर्धन्य गिने जाते और पैसा उनके पैरों पर लोटा फिरता। फोटो छपते, अभिनन्दन ग्रन्थ और राजसम्मान की उपाधियों से विभूषित होते और भी न जाने क्या-क्या होते।

उनकी हिमालय जितनी क्षमताओं की प्रतिक्रिया बड़े से बड़े वैभव के रूप में सामने खड़ी होती। पर इस सम्बन्ध में वे निस्पृह अवधूत की तरह ही बने रहे और अपनी बाल सुलभ सरलता को ही अपनी सर्वोत्तम संग्रहित सम्पत्ति मानते रहे। लोगों ने उन्हें कितना ठगा है, कुछ प्राप्त करने के लिए कितने प्रपंच रचे हैं और काम निकल जाने पर किस तरह तोताचश्मी दिखाते रहे हैं। इसका कभी कोई-कोई चुटकुला उनके मुँह से निकट शिष्यों-परिजनों को सुनने को मिलता रहा है। लेकिन उन्हें इसका कभी राई-रत्ती क्षोभ नहीं हुआ। स्थितप्रज्ञ की भाँति उनका मन सदा-सर्वदा निर्विकार रहा है।

हाँ कभी-कभी वह इतना जरूर सोचते थे कि ये भोले लोग कुछ ऊँची चीज माँगने या पाने के इच्छुक होते तो वह जिस तरह एक समर्थ के दरवाजे पर जाकर अपनी झोली भर लाए थे, उसी तरह ये लोग भी कुछ काम की वजनदार चीज लेकर जा सकते थे, पर ओछापन बेचारों को कृतज्ञता की सुखद अनुभूति का लाभ नहीं लेने देता है। जो उनके बहुत पुराने परिचित हैं, वे इस लम्बी अवधि में जहाँ के तहाँ रहे और गुरुदेव कहाँ से कहाँ पहुँच गये, इसे देखकर उनकी जलन और कुढ़न बढ़ती गयी। पर उन्होंने वीतराग संन्यासी की भाँति उनसे हमेशा प्यार भरा बर्ताव ही किया।

कई लोगों ने ईर्ष्यावश अनेक तरह की क्षति पहुँचाने की कोशिश की। ऐसे ईर्ष्यालु लोगों के कुकृत्यों में बेसिर-पैर के लाँछन लगाने से विष देने तक की जघन्य घटनाएँ शामिल हैं। उनसे प्रतिशोध लेने की बात मन में कभी नहीं आयी। उन्हें वे केवल बेचारे कहकर ही सम्बोधित करते रहे। जिसने उन पर चाकू से घातक प्रहार किए, अपनी समझ से उसने जान से मार देने में भी कोई कसर न छोड़ी, उसे भी उन्होंने भाग जाने दिया। इस तरह के लोगों के लिए वे हमेशा यही कहते रहे कि ये जानते ही नहीं कि क्या कर रहे हैं और उलट कर इसका परिणाम उनके लिए क्या हो सकता है?

व्यक्तिगत लाभ और व्यक्तिगत प्रतिशोध की बात उन्हें कभी सूझी ही नहीं। अपने आप को एक प्रकार से भूले ही रहे। एक महान अध्यात्मवेत्ता संन्यासी की भाँति उन्होंने हर पल अनुभव किया कि उन्होंने अपनी व्यक्तिगत सत्ता को किसी महान सत्ता में घुला ही दिया है और अपना कहने लायक उनके पास कुछ रह नहीं गया है। प्रत्यक्ष इसे हानि अपकर्ष ही कहा जा सकता है। लोग व्यंग करते रहे जिस जमाने में साधु-महात्मा लोग एयरकन्डीशन का उपयोग करते और हवाई जहाजों में सैर करते हैं, उन दिनों भी गुरुदेव पंखा चलाने में भी संकोच अनुभव करते थे। हाँ उस नजर से देखने वाले अध्यात्म को घाटे का सौदा कह सकते हैं, पर तब फिर गुरुदेव को ही नहीं विश्वामित्र, भर्तृहरि, बुद्ध, महावीर आदि न जाने कितनों को घाटा उठाने वाले सौदागर कहा जायेगा, पर वास्तविकता इसके विपरीत है। सच्चा त्यागी ईश्वरीय विभूतियों से लाभान्वित होता है, जिसके वे प्रत्यक्ष उदाहरण बनें।

एक आदर्श संन्यासी की भाँति उनकी निस्पृहता केवल व्यक्तिगत जीवन तक ही सीमित है। समाज की सम्पन्नता एवं सुविधा बढ़ाने की उन्हें हमेशा लाख-करोड़ गुनी चिन्ता सताए रही। समाज में फैले हुए अनाचार के प्रति उनमें उससे लाख गुना रोष रहा। जितना अपना सर्वस्व लूट ले जाने वाले डाकू के प्रति हो सकता है। विश्व वेदना से व्यथित उनकी अन्तरात्मा का रुदन कदाचित ही कोई देख पाया हो। पर जिन्होंने अनुभव किया वे जानते हैं कि उनके अनुपम व्यक्तित्व में व्यथा और आक्रोश का हिमाच्छादित ज्वालामुखी जैसा कैसा विचित्र संयोग सन्निहित रहा है।

बाहर से अतिसरल, अतिसौम्य और अतिशान्त दिखने वाले परमपूज्य गुरुदेव में इतना रोष, इतना दर्द हो सकता है, इसका पता उनके निकटवर्तियों को छोड़कर शायद ही किसी को हुआ हो। उन्होंने कभी किसी व्यक्ति विशेष का नाम तो नहीं लिया, पर अपने समाज के (1) राजनेता (2) धर्मगुरु (3) बुद्धिजीवी (4) सरकार (5) सम्पत्तिवानों के प्रति वे हमेशा से यह कहते जरूर रहे हैं कि उनके हाथों में जो शक्ति है उसका यदि उन्होंने दुरुपयोग किया होता तो आज ये दुर्दिन न देखने को मिलते जो देखने पड़ रहे हैं।

वह सच्चे सैनिक एवं सर्वत्यागी संन्यासी की भाँति सतत् इन पाँचों विभूतियों, विभूतिवानों को दिशा देने के लिए संलग्न रहे। उग्रतप, कठोर साधना, निरन्तर प्रयास में निरत उनका जीवन उनके अनुयायियों, शिष्यों, साधकों, लोकसेवियों को एक ही सन्देश देता है कि सैनिक एवं संन्यासी की उभयपक्षीय विशेषताओं से परिपूर्ण आध्यात्म ही सार्थक है। अब तो अपनी पीड़ा में विश्वमानव की पीड़ा को घुलाकर वे सूक्ष्म में चले गए हैं। उनकी सूक्ष्म चेतना, परशुराम के रूप में, शिव के तीसरे नेत्र के रूप में, इन्द्र के वज्र के रूप में प्रकट होकर नए परिवर्तन का जो अनगिनत आधार प्रस्तुत करेगी, उसे देखने वाले हतप्रभ हुए बिना रह सकेंगे।


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