भविष्य को उनने पढ़ा ही नहीं, गढ़ी भी

July 1997

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परमपूज्य गुरुदेव का समग्र जीवन साधनामय कहा जा सकता है। योगी सिद्धपुरुष दिव्यदृष्टि सम्पन्न होते हैं। उन्हें आने वाले हर परिवर्तन, काल की चाल का अहसास सतत् होता रहता है। अपने द्वितीय हिमालय प्रवास (1959-1961) से लौटकर आने के बाद से ही, जब उन्होंने ‘युगनिर्माण योजना’ के शुभारम्भ की घोषणा की-पंचकोशी साधना भी गायत्री तपोभूमि से अखण्ड-ज्योति के मार्गदर्शन के माध्यम आरम्भ करा दी थी। उनकी इस हिमालय यात्रा में सम्पादन का दायित्व परमवन्दनीया माताजी को सौंपा गया था। उनने अपनी पत्रिका के संपादकीय में लिखा-उनकी (पूज्यवर की) यह विशेष तपश्चर्या स्वर्ग-मुक्ति सिद्धि-शक्ति के लिए नहीं, क्योंकि उन्हें तो वे बहुत पहले ही प्राप्त कर चुके हैं। अब तो वे अपनी पीड़ा में विश्वमानव की पीड़ा को घुलाकर एक तड़पते हुए घायल की तरह हो गए हैं। उनकी तड़पन परशुराम के कुल्हाड़े के रूप में शिव के तीसरे नेत्र के रूप में, इन्द्र के वज्र के रूप में नए परिवर्तन का न जाने क्या आधार प्रस्तुत करे? आज कौन कहे और कैसे कहे ?”

वस्तुतः यह सब सूक्ष्मजगत में घटित हो ही रहा था, 1967 की जून माह की अखण्ड-ज्योति पत्रिका में पृष्ठ 17 पर एक लेख प्रकाशित हुआ-महाकाल और उसका युग-निर्माण प्रत्यावर्तन।’ इसमें पूज्यवर ने संकेत किया कि “आगामी तीस वर्ष अत्यन्त कष्ट भरे हैं। युगपरिवर्तन की पृष्ठभूमि बन रही है। महाकाल की इच्छा कभी अपूर्ण नहीं रह सकती। महाकाली अपना सृजनात्मक और संघर्षात्मक प्रक्रिया को प्रचण्ड करने में संलग्न है। पिछले दिनों दो खण्ड अवतारों ने श्रीरामकृष्ण परमहंस एवं योगीराज श्रीअरविन्द के रूप में जन्म लिया है। तीसरा अवतरण युगनिर्माण आन्दोलन के रूप में आजकल चल रहा है। इसमें महाकाल भी काम कर रहा है और महाकाली भी, जिससे आज की मानव-जाति की अंधकारपूर्ण दुर्दशा कल के स्वर्ग-सौभाग्य जैसे उज्ज्वल भविष्य में परिणत हो सके। पूर्ण अवतार लगभग तीस वर्ष की कठिन अवधि के उपरान्त प्रकट होगा। महान व्यक्तियों के रूप में भी और महान परिवर्तन के रूप में भी। इस प्रयोजन को पूरा करने के लिए भगवान दिव्य आत्माओं का वरण कर रहे हैं। उन्हें हम शतशत प्रणाम करें, यही मन करता है।”

परमपूज्य गुरुदेव ने भविष्य को न केवल पढ़ा था, अपितु वे उसे गढ़ने के लिए भी धरती पर आए थे। लगभग चार माह बाद अक्टूबर 1967 की पत्रिका ‘अब फिर से सतयुग आएगा-यह बोल रहा है महाकाल’ इस शीर्ष कविता के साथ प्रकाशित हुई। यह अंक विशेषांक था-महाकाल और इनकी युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया’ नाम से। भावी विभीषिकाएँ महाकाल और उनका रौद्र रूप, त्रिपुरारी महाकाल, शिव का तृतीय नेत्रोन्मीलन, दशावतार और इतिहास का पुनरावृत्ति आदि के वर्णन के बाद इस अंक में लिखा गया था कि आज की सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता लोकसेवा ही है और इसके लिए अपने परिवार जा कि गायत्री परिवार के रूप में उच्चस्तरीय आत्माओं का भाण्डागार है, को बढ़-चढ़कर आगे आकर अपने त्याग, बलिदान का परिचय देना चाहिए । बाद में यही सारी सामग्री पुस्तकाकार में भी छपी।

यहाँ यह ध्यान रखने योग्य है कि युग-परिवर्तन विभीषिकाओं को निवारणार्थ सामूहिक साधना रूपी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग यह शब्दावली परमपूज्य गुरुदेव की लेखनी से सतत् इस अवधि के बाद काफी जोर देकर एक चेतावनी-एक मार्गदर्शन के रूप में सभी परिजनों को मिलने लगी थी। अपने तृतीय हिमालय प्रवास व हमेशा के लिए गायत्री तपोभूमि छोड़ने की बात वे 1962 से ही कहते आ रहे थे यह 1971 के बाद भी जारी रहा, साथ ही उनकी साधकों के निर्माण की प्रक्रिया भी जारी रही। उनका एक ही उद्देश्य था-समष्टि का हितसाधन, सृष्टि की विकासात्मक भवितव्यता को गति देना। उसी दिशा में एक विशेष प्रयोग उनके द्वारा सिद्ध स्थली शाँतिकुँज गायत्री तीर्थ में 1984 से 1987 के दौरान चली सूक्ष्मीकरण साधना के दौरान सम्पन्न हुआ। इसी साधनावधि में उनने स्वयं को पाँच सूक्ष्मशरीरों-पाँच वीरभद्रों के रूप में सक्रिय बनाकर युग-परिवर्तन की प्रक्रिया को गति देने की बात कहीं। उनकी यह साधना रहस्य और रोमांच से भरी थी। इन पंक्तियों के लेखक को इस साधना का सौभाग्य मिला है। पूज्यवर के शब्दों में इसके विषय में सुनें तो-जिस आवास स्थली में-कोठरी में रहा जा रहा है, वहाँ तक एक दो का ही प्रवेश वाँछित समझा गया है। उसमें जो प्रयोग चल रहे हैं, वे अद्भुत हैं। तब दिन में करने के हैं। कुछ मंत्र ऐसे हैं, जिनमें तनिक भी एक शब्द की भी भूल हो जाने पर उच्चारण तंत्र ही उलट-पलट सकता है। इसलिए प्रयोग करते समय क्षण-क्षण देखभाल रखनी पड़ती है।”

इस 3 वर्ष की अवधि में जब यह प्रयोग चल रहा था, स्थूलशरीर के क्रियाकलाप काफी सीमित हो गए थे। पूज्यवर ने कहा-पाँचों शरीरों को एक सूत्र में बाँधे रहने भर के लिए वर्तमान स्थूलशरीर की आवश्यकता है।” आहार न के बराबर किन्तु शक्ति इतनी प्रचण्ड कि कोई आँख से आँख ना मिला सके। महान प्रयोजन हेतु ही तो ऋषि, तपस्वी, अवतारी पुरुष ऐसी कठोर साधना करते हैं। आहार नहीं लेंगे तो कमजोरी आ सकती है, यह कहने पर गुरुदेव ने कहा था कि आकाश तत्त्व से जो भी ग्रहण करना होता है वे ग्रहण कर लेते हैं, क्योंकि सूक्ष्मीकरण प्रयोग हेतु स्थूल आहार उनके लिए महत्त्वहीन है। किसी भी चिकित्सक या वैज्ञानिक के लिए यह आश्चर्यजनक तथ्य हो सकता है कि कोई बिना आहार के अपनी वृद्ध-काया के साथ कैसे कब तक जीवित रह सकता है। किन्तु जैसा पूर्व में कहा गया कि 1961 में हिमालय से लौटने के बाद से ही भविष्यत् की तैयारी के निमित्त उनकी सारी साधना नियोजित थी। सूक्ष्मीकरण की सावित्री साधना उनकी दधीचि स्तर की प्रचण्ड तप−साधना थी, जो अन्तिम श्वास तक अनवरत चलती रही।


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