शिव शक्ति का लीला-संदोह

July 1997

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मेरे बिना उनकी अभिव्यक्ति नहीं, उनके बिना मेरा अस्तित्व नहीं। शक्ति-स्वरूपा वन्दनीया माताजी के ये उद्गार उनके एवं शिव स्वरूप परमपूज्य गुरुदेव के लीला-संदोह का अहसास कराते हैं। शिव और शक्ति अभिन्न हैं। उनके सम्बन्ध भी अविच्छिन्न एवं नित्य हैं और उनकी यह लीला भी शाश्वत एवं चिरन्तन है। सृष्टि के आदि से एक ही परम चैतन्य अपना लीलानाट्य शिव और शक्ति के रूप में कर रहा है। इस चैतन्य ऊर्जा का व्यक्त यानि कि गतिज रूप ही शिव है। इस सत्य को स्वीकारते हुए शस्त्रों का भी कहना है-

उमारुद्रात्मिकाः सर्वाः प्रजाः स्थावर जंगमाः। व्यक्तं सर्वमुपारुपमव्यक्तं तु महेश्वरः॥

अर्थात्- यह स्थावर, जंगम समूची सृष्टि उमा व रुद्र का ही रूप है, इसमें जो व्यक्त रूप है वही भगवती उमा है और अव्यक्त रूप भगवान महेश्वर का है।

श्रुति भी यही कहती है कि संसार में जो कुछ देखा जाता है, सुना जाता है, स्मरण किया जाता है, सभी शिव-शक्ति है। रुद्र नर है, उमा नारी है। रुद्र ब्रह्मा है, उमा वाणी है। रुद्र विष्णु है, उमा लक्ष्मी है। रुद्र सूर्य है, उमा छाया है। रुद्र सोम है, उमा तारा है। रुद्र दिन है, उमा रात्रि है। रुद्र यज्ञ है, उमा वेदी है। रुद्र वही है, उमा स्वाहा है। रुद्र वेद है, उमा शास्त्र है। रुद्र वेद है, उमा शास्त्र है। रुद्र वृक्ष है, उमा वल्लि है। रुद्र गन्ध है, उमा पुष्प है। रुद्र अर्थ है, उमा अक्षर है। रुद्र लिंग है, उमा पीठ है। जो हृदय में ऐसी भावना रखते हैं। सर्वत्र नमन कर सकते हैं, वही शिव और शक्ति की लीला के रहस्य को जानते हैं।

प्राचीन वैदिक युग के किसी मन्त्रद्रष्टा ऋषि से यह पूछा गया कि हमें कौन-से देवता की स्तुति एवं पूजा करनी चाहिए, कस्मै देवाय हविषा विधेम ? उन्होंने दस ऋचाओं में इस प्रश्न का उत्तर दिया, इनमें से दो ऋचाएँ बहुत ही मोहक हैं-

हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतमौ कस्मै देवाय हविषा विधेम॥

य आत्मदा बलदा यस्य विश्वडपासते प्रविषं यस्य देवाः। यस्य छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम्॥

आरम्भ में भगवान हिरण्यगर्भ शिव हुए, जो समस्त भूतों के पूर्वज एवं स्वामी थे उन्होंने अपनी शक्ति से जो बाद में प्रकट हुई पृथ्वी और आकाश को धारण किया। हमें चाहिये कि हम उन्हीं की स्तुति एवं पूजा करें। जो समस्त क्रिया कलापों को जीवन तथा शक्ति प्रदान करते हैं। जिनके तप से अग्नि में से स्फुल्लिंग के समान नवीनता प्रकट होती है। जो समस्त जीवों को पालन करने वाले हैं, जिनकी आज्ञा का सभी प्राणी आदरपूर्वक पालन करते हैं। मृत्यु एवं अमृतत्व जिनकी छाया है, उन्हीं की हम लोग स्तुति एवं पूजा करें।

युगनिर्माण मिशन के आदि का रहस्य भी कुछ सृष्टि के रहस्य जैसा ही है। शिवस्वरूप परमपूज्य गुरुदेव भगवान महाकाल के शाश्वत प्रतिनिधि के रूप में आकर तपोनिरत हुए। बाद में उनकी नित्य शक्ति के रूप में वन्दनीया माताजी का अवतरण आगमन हुआ। उन्होंने ही इस मिशन को धारण किया। पूज्यवर की तपशक्ति से मिशन की अनेकानेक गतिविधियाँ जन्म लेती गयीं। पूज्यवर की कृपाशक्ति हम सबको पावन करने का दुष्कर कार्य सम्पन्न करती है। उनकी आज्ञा ही हमारे क्रिया-कलापों-गतिविधियों का मूल है और आज हममें से कोई-किसी से यदि प्राचीन ऋषियों की भाषा में प्रश्न करे-कस्मै देवाय हविषा विधेम ?” तो निश्चित ही हम सबका इंगित उन्हीं की ओर उठेगा-तस्मै देवाय हविषा विधेम।”

शिव और शक्ति का यह लीला-संदोह मिशन के जन्म, जीवन एवं इसके विविध क्रियाकलापों में स्पष्ट है। शिव और शक्ति में, गुरुदेव एवं माताजी में कौन वरिष्ठ है कौन कनिष्ठ ? यह प्रश्न तो तब हो जब वे दो हों। जब वे एकात्म हैं, तब इस तरह के सवालों की गुँजाइश कहाँ रहती है। हाँ इतना अवश्य है कि गुरुदेव के तप की प्रभा जहाँ अपने तीव्र आकर्षण से चकाचौंध करती है। वहीं वन्दनीया माताजी का अपरिमित वात्सल्य हृदय की गहराइयों को तृप्त करता है। गुरुदेव, माताजी एवं गुरुदेव, इन दोनों के रहस्यमय जीवन की अबूझ पहेली भले ही समझ में न आए, पर इतना अवश्य है कि यदि माताजी न होतीं तो मिशन का इतना विस्तार सम्भवतः न होता।यानि कि शक्ति न होती तो शिव अपना लीला विस्तार न कर पाते।

प्राचीन काल से ही इस सत्य की स्वीकारोक्ति होती आयी है। सौंदर्यलहरी में आचार्य शंकर कहते हैं-

शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुँ। न चेदेवं देवो न खलु कुशलः स्पन्दितमपि॥

अर्थात् शक्ति के बिना शिव अपने को अभिव्यक्त नहीं कर सकते। क्योंकि शक्ति के बिना सृजन-पालन-संहार कुछ भी तो सम्भव नहीं। अधिक क्या इसके बिना तो स्वयं शिव स्पन्दनहीन हो जायेंगे।

भावुक भक्तों ने इस शक्तितत्त्व में तथा इसकी समस्त क्रियात्मक हलचलों में एकमात्र कृपा को ही कारण माना है। इनका अस्तित्व ही कृपापूरित मात्र है। इनके कोप में भी कृपा छिपी रहती है। तभी तो देवी माहात्म्य में भी कहा गया है- चित्तेकृपा समरनिष्ठुरता च दृष्ट्वा॥

शास्त्रकारों ने तो यहाँ तक कहा है-माँ ! भगवान शिव समस्त प्राणियों के हृदय में विद्यमान हैं और तुम उनके हृदय में विराजती हो, पर तुम तो हृदय में भी करुणा रूप में विराजती हो, हम तो तुम्हारा ही आश्रय लेते हैं।”

शास्त्रकार की यह उक्ति वन्दनीया माताजी के सम्बन्ध में शत-प्रतिशत सत्य है। जिन्हें उनका सान्निध्य मिला है, उन्हें मालूम है कि उनके कोप में भी करुणा छिपी रहती थी। गुरुदेव का व्यक्तित्व यदि सूर्य की भाँति प्रखर था तो माताजी चन्द्रमा की भाँति शीतल एवं स्निग्ध थीं। गुरुदेव की प्रखरता-तेजस्विता को अपनी सन्तानों के लिए वात्सल्यपूर्ण शीतलता में बदल देना उनके व्यक्तित्व की सराहनीय विशेषता थी। शिव और शक्ति अपने अभिनव रूप में युगावतार आचार्यजी एवं युगशक्ति माताजी के रूप में अपनी लोक-लीला करते हुए भले ही अब परमतत्व में विलीन हो गये हों, परन्तु सजल श्रद्धा एवं प्रखर प्रज्ञा के रूप में शान्तिकुञ्ज में स्थापित उनके प्रतीक-चिह्नों के माध्यम से उनकी सूक्ष्मसत्ता एवं शक्ति के स्पन्दन अभी भी भावुक भक्तों को स्पष्ट रूप से अनुभव होते रहते हैं।


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